बहुत पहले श्रीमती आशा पूर्णा देवी की पुस्तक पढ़ी थी “प्रथम प्रति श्रुति”। इस पुस्तक ने मुझे बहुत प्रभावित किया था। इस संस्मरण का आरम्भ मैं उसके ही कुछ शब्दों से कराती हूँ:

“दादी-परदादी का ऋण चुकाए बिना अपनी बात नहीं कहनी चाहिए।… सूने गाँव की छाया-ढंकी तलैया ही भरी बरसात में छलक कर नदी से जा मिलती है और प्रवाह बन कर दौड़ पड़ती है। उस छाँह ढकी पहली धारा को तो मानना ही पड़ेगा, … दादी-परदादियों के संघर्ष का इतिहास!

गिनती में वे असंख्य नहीं थीं, बहुतों में वे एक-एक थीं। वे अकेली आगे बढ़ीं - आगे बढ़ीं खाई-खंदक पार करके, चट्टानें तोड़-तोड़ कर, कंटीली झाड़ियों को उखाड़ते हुए। रास्ता बनाते हुए शायद हो कि दिशा खो बैठीं, अपनी ही बनाई हुई राह को छेंक कर बैठ पड़ीं। उसके बाद दूसरी आई, उसने उनके बनाए काम को हाथ में ले लिया। और राह इसी तरह से तो बनी….।“

लेखिका ने जिन दादी-परदादियों की ओर इंगित किया है उनमें से एक थीं मेरी परदादी! जिन्हें हम लोग “अम्मा” कहते थे। मुझे अपनी नानी-दादी की याद नहीं है, मेरे होश सँभालने से पहले ही उनका देहान्त हो चुका था परन्तु हमारी परदादी “अम्मा” मेरी किशोरावस्था तक स्वस्थ जीवन बिता रही थीं व उनसे संबंधित बहुत सी स्मृतियाँ मेरे साथ हैं। उनकी मृत्यु १०४ वर्ष की आयु पार करके हुई। उनके कथनानुसार उन्होंने १८५७ का ग़दर देखा था और फाँसी की सज़ा पाए बलवाइयों को पेड़ों से झूलते भी। इस कथन में कितना सत्य है व कितनी कल्पना, यह कहना कठिन है पर इससे उनकी आयु का अनुमान तो हो ही जाता है।

हमारे घर में अम्मा का कमरा, अम्मा का पलंग, अम्मा की कुर्सी-तिपाई आदि पर उनका पूरा अधिकार था। बहुत प्यार करते हुए भी वे हम बच्चों को अपनी सीमा का अतिक्रमण नहीं करने देती थीं। घर के कामों में कोई हस्तक्षेप या टोका-टोकी करते हमने उन्हें कभी नहीं देखा। जो हल्का-फुल्का काम उन्हें दे दिया जाता, वे बड़े शान्त भाव से उसे कर देती थीं। घर के कार्य-कलापों में उनकी रुचि नहीं दिखती थी। उस ज़माने में वयोवृद्ध पुरुषों की जो भूमिका घर-गृहस्थी में होती थी, वही उनकी भी थी। तमाखू खाने का शौक़ था व उसकी पत्तियाँ वे हाथों से मसलती थीं।

मंदिर, धार्मिक उत्सवों व कर्मकाण्ड में अम्मा की कोई रुचि नहीं थी। कोई भजन गाते या गुनगुनाते उन्हें कभी नहीं सुना। हाँ, नुमाइश, मेले व सिनेमा जाने का उन्हें बहुत शौक़ था। ऐसे किसी भी प्रोग्राम की भनक उनके कानों में पड़ी नहीं कि वे फ़ौरन साथ जाने को तैयार हो जाती थीं। वे चाहें और हम उन्हें साथ न ले जाएँ, इसका प्रश्न ही नहीं उठता था। इस संबंध में एक मनोरंजक घटना याद आती है:

एक बार हम भाई-बहनों का फ़िल्म देखने जाने का प्रोग्राम बना। अम्मा भी साथ जा रही थीं। ऐसी जगहों में जाने के लिए वे अच्छी तरह से तैयार होती थीं। सफ़ेद, नाख़ूनी किनारे की धोती के साथ बादामी रंग के स्काउटिंग वाले कपड़े के जूते पहनती थीं। घुटे हुए चिकने सिर पर सरसों का तेल मला जाता था जिससे सर ठंडा रहे। छड़ी चमकाई जाती थी। इस सब सरंजाम के कारण घर से निकलने में देर हो गई।

हमारे पहुँचने तक हॉल में फ़िल्म शुरू हो गई थी। हॉल में अँधेरा था, लोग चुपचाप सिनेमा देख रहे थे। गेटकीपर टॉर्च हाथ में लेकर हम लोगों को राह दिखाते आगे बढ़ा, उसके पीछे अम्मा थीं, लाठी ठकठकाते हुए। दो चार पग चलते ही उन्होंने ज़ोरदार आवाज़ में पूछा, “तो हम कहाँ बैठीं? ई कुर्सी पर?”

संभवतः फ़िल्म देखने वालों को यह व्यवधान अखर रहा था। हम सब भी संकुचित से थे पर अम्मा अपनी आयु का, जो इस समय सौ के लगभग होगी, पूरा फ़ायदा उठा रही थीं। तभी कोने की सीट पर बैठे एक सज्जन ने शोर से झुँझला कर उनकी ओर देखा, उनकी आयु का अनुमान किया व खीझ भरे स्वर में बुदबुदा कर कहा, “यह उम्र और सिनेमा?”

उस आयु में भी अम्मा के आँख-कान ठीक काम करते थे अतः उन्होंने यह टिप्पणी सुन ली। तत्काल मुड़ कर अपनी लाठी उन सज्जन के मुँह तक लाकर उन्होंने अपनी ज़ोरदार, बुलन्द आवाज़ में पूछा, “काहे? का बुढ़वन के जिउ नायँ होत?”

उन सज्जन का मुँह खुला का खुला रह गया। अम्मा तो अपनी लाठी ठकठकाते हुए आगे चल दीं पर वे संभवतः अपने बोलने पर पछताते बैठे रह गये। आज भी अम्मा का यह वाक्य, “का बुढ़वन के जिउ नायँ होत?” हमारे परिवार में मुहावरे की तरह प्रयुक्त होता है।

अम्मा जब विवाह के बाद ससुराल आईं तो किशोरी ही थीं। उस समय की एक घटना महत्वपूर्ण व बहुचर्चित भी रही:

एक बार उनकी ससुराल में कोई उत्सव मनाया जा रहा था। आँगन में पूजा-पाठ व हवन आदि का आयोजन था। पुरुषों के बैठने के लिए दरियाँ बिछी हुई थीं। बीच में क़नात लगा कर दूसरी ओर स्त्रियों के बैठने का प्रबन्ध था।

पूजा आरम्भ हुई। संयोगवश उस दिन घर का धोबी कपड़े लेकर आया था व उसका गधा हाते में बँधा था। संभवतः उत्सव की चहल-पहल से उत्तेजित होकर उसने अपना पगहा तुड़ा लिया व आँगन में स्त्रियों की ओर घुस आया। उसे देख कर अम्मा की सास ने उनसे कहा, “बहू, तनी ई गदहा भगाय देव।“

अम्मा उस समय नवविवाहिता किशोरी थीं, गहने-कपड़ों से अलंकृत! सास के आदेश का पालन करने के लिए हाथ में डंडा लेकर वे आगे बढ़ीं। लम्बा घूँघट होने के कारण उन्हें ठीक से दिखाई नहीं दे रहा था अतः गधे के पास पहुँच कर जब उन्होंने उसे भगाने का प्रयास किया तो लड़खड़ा कर वे उसी पर गिर पड़ीं। अपने ऊपर अप्रत्याशित भार आ जाने के कारण घबड़ा कर गधा जो भागा तो आँगन के बीच में पहुँच गया जहाँ पूजा का सरंजाम था। गिरने से बचने के लिए अम्मा जी जान से गधे के अयाल को पकड़े रहीं व गधा उन्हें आँगन में इधर-उधर घुमाता रहा। खन-खन बजते आभूषणों एवं चमकदार कपड़ों से अलंकृत एक घूँघट वाली नारी मूर्ति को इस हास्यास्पद स्थिति में देख कर पुरुष ठहाका मार कर हँसने लगे। ख़ैर, किसी तरह उन्हें उतारा गया व कार्यक्रम सुचारु रूप से पूरा हुआ।

दूसरे दिन प्रातः जब अम्मा तैयार होकर बाहर आईं तो उनका सर तो ढँका था पर घूँघट नहीं था। नई बहू का यह नया रूप देखकर सास ने आशंकित होकर जब कारण पूछा तो उन्होंने स्पष्ट शब्दों में बेझिझक कहा,

“जौन परदा हमका आँखी रहत आँधर बनाय दिहिस, जौन परदा हमका मरदन केर आगे नापरदा कै दिहिस, ऊ परदा अब हम ना करब।“

उस काल की पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए अम्मा के इस काम की प्रतिक्रिया का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। उस समय स्त्रियों को आर्थिक स्वतन्त्रता नहीं थी, चल-अचल सम्पत्ति में उनका कोई अधिकार नहीं था। जिस किशोरी ने उन परिस्थितियों में यह क़दम उठाया, उसमें कितना अदम्य आत्म-विश्वास होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। संभवतः उनके परिवार पर, दूसरी बहू-बेटियों के बिगड़ने की आशंका से, समाज की ओर से दबाव डाला गया होगा पर अम्मा का अटूट संकल्प “चाहे हमका मारो, चाहे काटो पर परदा अब हम न करब,” अन्ततः सर्वजयी होकर रहा।

आज “पर्दा” समाज का बहुचर्चित विषय है - संभवतः राजनीति के दाँव-पेंचों के कारण। पर्दे के पक्ष में जब मैं पुरुषों व कभी-कभी स्त्रियों के तर्क सुनती हूँ तो अम्मा की अपराजित इच्छाशक्ति व आत्मविश्वास के आगे मेरा सिर आदर से झुक जाता है।

सुना है जब अम्मा के बड़े लड़के का विवाह हुआ तो कुछ समय बाद ही नई बहू को घर का काम समझा कर, उसे चाबी का गुच्छा थमा उन्होंने तिमंज़िले पर अपना आवास कर लिया। खाने के समय वे अपना “टिफ़िन कैरियर” डोर से नीचे लटका कर अपना खाना ऊपर मँगा लेती थीं। न घर के काम-काज में कोई हस्तक्षेप करती थीं, न कोई आलोचना। वह “चाबी का गुच्छा” जो अधिकांश घरों में कलह का कारण बनता है, उन्हें अपने आकर्षण में बाँधने में असमर्थ होकर रह गया। अपने खाली समय में वे “कैथी” (कायस्थों की प्रचलित लिपि) में लिखा करती थीं। अभाग्यवश उनके लेखन का कोई भी अंश हमारे पास नहीं है।

अम्मा की मृत्यु लगभग १०४ वर्ष की आयु में हुई। उन्हें न तो कोई बीमारी थी, न स्वास्थ्य-संबन्धी समस्या। न चश्मा लगाती थीं, न ही सुनने का कोई उपकरण। सामान्य खाना खाती थीं, बस, चलने में छड़ी का प्रयोग करती थीं। जब कोई मज़ाक में उनसे पूछता, “अम्मा, तुम कब जाओगी?” तो हँस कर कह देती थीं,

“राम जी हमरा कागद हेराय दिहिन हैं।“

राम जी को उनके काग़ज़-पत्र अचानक ही मिले होंगे क्योंकि दो-दिन की बीमारी में ही उनका बुलावा आ गया।

उनको गए कितने ही वर्ष बीत गए हैं पर उनकी स्मृति अभी भी धुँधली नहीं हुई है। परिवार में उनकी बातें अभी तक याद की जाती हैं।

धीरे-धीरे मैं, उनकी पड़पोती, भी उनकी आयु के आयाम पर पहुँच रही हूँ। कभी-कभी जब किसी शौक़ को पूरा करने की इच्छा होती है पर बड़ी आयु के संकोच से ठिठकती हूँ तो अम्मा का वाक्य मन में गूँज जाता है,

“काहे? का बुढ़वन के जिउ नायँ होत?”

1 टिप्पणियाँ

  • अद्भुत! सादर नमन आप दोनों परदादी- परपोती की जोड़ी को...

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