रोज़ पढ़ता हूँ भीड़ का चेहरा
स्व. अखिल भंडारीरोज़ पढ़ता हूँ भीड़ का चेहरा
सब के चेहरों पे एक सा चेहरा
मुद्दतों बाद उस को देखा था
उस के चेहरे पे था नया चेहरा
आइने में नज़र नहीं आता
गुम कहाँ हो गया मेरा चेहरा
कुछ नए लोग आएँगे मिलने
तुम भी ले जाओ इक नया चेहरा
उस का चेहरा लिबास था उसका
बदला मौसम बदल गया चेहरा
आइना देख कर परेशाँ हूँ
किस का चेहरा है ये मेरा चेहरा
इक खुली सी किताब था पहले
क्यूँ पहेली है अब तेरा चेहरा
साफ़ शफ़्फ़ाफ़ आइना उसका
गर्द आलूद ये मेरा चेहरा
1 टिप्पणियाँ
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वाह वाह बहुत खूबसूरत ग़ज़ल , जितनी तारीफ़ की जाए कम है बेहद ख़ूबसूरत मतले के साथ ये पेशकश लाज़वाब है ढेरों दाद और मुबारकबाद क़ुबूल करें
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