दरीचा था न दरवाज़ा था कोई
स्व. अखिल भंडारीदरीचा था न दरवाज़ा था कोई
मगर उस घर में भी रहता था कोई
मुझे ही ढूँढता फिरता था शायद
गली के मोड़ तक आया था कोई
किनारों पर भरोसा था उसे भी
नदी में आज फिर डूबा था कोई
कहाँ का था कहाँ जाना था उस को
इधर से अजनबी गुज़रा था कोई
सुना है रात भर बारिश हुई थी
लगा यूँ रात भर रोया था कोई
मुझे चेहरा मेरा दिखला रहा था
वो ख़ुद टूटा सा आईना था कोई
1 टिप्पणियाँ
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वाह वाह बहुत खूबसूरत ग़ज़ल , जितनी तारीफ़ की जाए कम है बेहद ख़ूबसूरत मतले के साथ ये पेशकश लाज़वाब है ढेरों दाद और मुबारकबाद क़ुबूल करें
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