चिंतन ऐसा
डॉ. नवीन दवे मनावतजब मैं आस्तिक
बन ईश्वर को
नास्तिक की दृष्टि से देखना चाहता हूँ
तो अज्ञात चिंतन में
खो जाता हूँ
जब मैं नास्तिक
हो दुनियां से
एक नाता बनाने की कोशिश
करता हूँ
और आस्तिकता का ढोंग
करता हूँ
तो एक अज्ञात चिंतन में
खो जाता हूँ
जब अस्तित्व
का चिंतन करता हूँ
तो पता नहीं
एक अज्ञात चिंतन
मन को घेरे रहता है
और चुंबक की भाँति खींचता है
कि तुम्हारा ईश्वर से
रिश्ता नहीं है
मैं बस चिंतन ही करता हूँ
शोचनीय बात है!
अलौकिकता तक
सीमित नहीं?
तो अद्वैत से शंकर का चिंतन करूँ
विशिष्ट से रामानुज का
या शुद्ध से वल्लभ का
बस
सब प्रश्न है?
चिंतन विलक्षण है
आज भी????
अलौकिकता अज्ञात चिंतन है।