परम प्रतापी देश

15-03-2021

परम प्रतापी देश

अनिल मिश्रा ’प्रहरी’ (अंक: 177, मार्च द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

 

यह   परम   प्रतापी   भारतवर्ष     हमारा

बहती  जिसमें  गंगा-  यमुना  की    धारा, 

सदियों से इसमें पाप सकल  धुल   जाता

पावन-जल में संताप सकल  घुल   जाता। 

 

युग -युग से रक्षित  करता  इसे  हिमालय 

उत्तुंग शिखर पर स्थित  दिव्य– शिवालय, 

तन पर हिम की सित चादर डाल खड़ा है

बाधक दुश्मन के पथ का  बहुत   बड़ा  है।

 

है पूर्व दिशा विस्तृत, निर्भय  एक   खाड़ी 

तन का मंजुल परिधान, नीलिमा साड़ी,

सेवा  करने  को  अपने     भुज    फैलाये 

प्राची  की  ले  अरुणाई   नित्य     जगाये। 

 

दक्षिण   में   सागर    हहराता,    लहराता 

गौरव- गरिमा के  गान अथक   है    गाता, 

जलधार लिए  पद - पंकज   धोने वाला 

गूँथे  अजस्र  चंचल   लहरों   की     माला। 

 

नर्मदा लिए निज  अंक प्रमुदित   प्रतीची 

मृदु सांध्य-लालिमा सुर्ख़ अधर   है   खींची, 

धन - वैभव, बसते    जहाँ     द्वारकानन्दन 

सागर करता पुलकित जिनका अभिनन्दन।

 

हैं रंग - बिरंगे फूल यहाँ   पर  पर खिलते 

हिन्दू- मुस्लिम  के  वैर  नहीं    हैं मिलते, 

मंदिर,  मस्जिद,  गुरुद्वारा,  गिरिजाघर   है 

नफ़रत  फैलाने  वाली    बन्द    डगर     है। 

 

हम न्याय, धर्म की चौखट पर  झुक   जाते

पावक  अन्यायी  के  तन   पर   बरसाते, 

सत, अमन - चैन के  युग से   रहे    पुजारी 

मानवी - मूल्य के  लिए   सतत्   बलिहारी। 

 

सर अन्यायी  के  आगे  कभी    न   झुकता 

रोके   तूफानी  वेग   न अपना     रुकता, 

सठ,  हठी, भ्रमित संदेश  नहीं   जो मानें 

जलते   जैसे  धू -  धू करके  परवाने। 

 

भूले  से   भी   हमसे   जो   आ  टकराता 

बनके   रोड़े    राहों   में   जो भी    आता,

वह    सर्वनाश   को  आमंत्रित   करता    है 

सच, एक नहीं वह  सात  जनम   डरता   है। 

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