नसों में जब बहती है,
ख़ून के क़तरों के बदले,
बर्फ की एक तरल धार,
तब मनुष्य तज देता है,
जीने का अपना अधिकार।
तन के अनल से,
मन को झुलसा कर,
जब आम आदमी,
टूटती साँसों को रोकने का,
असफल प्रयास करता है,
फिर एक अंतर्ग्नि,
खत्म हो चुकी मोमबत्ती के जैसे,
भक से बुझ जाती है,
और बेजान शरीर,
करता रह जाता चीत्कार।