लड़कपन 

राजेंद्र कुमार शास्त्री 'गुरु’ (अंक: 149, फरवरी प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

मैं और मेरी पत्नी सीमा हमारी बेटी आर्या को दाख़िला दिलवाने के लिए हमारी कॉलोनी के नज़दीक के स्कूल में गए थे। विद्यालय हमारी कॉलोनी से लगभग एक किलोमीटर दूर है। दाख़िला दिलवाने के बाद हम तीनों पैदल ही घर की तरफ़ आ रहे थे। हम कुछ दूर ही चले थे की अचानक बारिश शुरू हो गई। हम दौड़कर एक दूकान के आगे बने टीन शेड के नीचे आकर खड़े हो गए। सीमा ने कहा, "लो! अब बारिश को भी अभी आना था। कुछ देर और रुक जाती तो क्या बिगड़ जाता इसका?"

"ओह! तो तुम क्या चाहती हो की इन्द्रदेव भी मेरी तरह तुम्हारे हर हुक्म को माने?" मैंने सीमा से मज़ाक करते हुए कहा।

"मेरे कहने का मतलब ये बिल्कुल नहीं था। अब मजबूरी में हमें थोड़ी सी दूर के लिए टैक्सी लेनी पड़ेगी और आप तो जानते ही हो ये टैक्सी वाले भी मौक़े का फ़ायदा उठाते हैं।"

सीमा मुझसे बहस कर रही थी की अचानक आर्या ने मुझसे अपना हाथ छुड़ाया और सड़क पर बह रहे पानी में धम से जाकर कूद पड़ी व अठखेलियाँ करने लगी। उसके चेहरे पर एक अजब की मुस्कुराहट थी। सीमा ने डाँटते हुए उससे कहा, "ये क्या किया आर्या तुमने? तुम्हारी स्कूल ड्रेस ख़राब हो गई बेटा।"

मैंने सीमा को पीछे से धक्का देते हुए कहा, "लो, जनाब आपकी भी साड़ी ख़राब हो गई।"

सीमा और मुझे पहले तो बारिश की बूँदे सता रहीं थीं। लेकिन बाद में हम तीनों की बारिश के साथ ऐसी जुगलबंदी हो गई कि हम तीनो हँसते - मुस्कुराते घर की तरफ़ बढ़ने लगे। सावन की बारिश की बूँदों ने हमें ऐसा नहलाया कि फ़ालतू की जो परम्परा हमने बना रखी थी कि "बारिश में भीगने से कपड़े ख़राब हो जाते हैं।" वो धुल गई।

घर पहुँचने के बाद हम तीनों ने कपड़े बदले। मैंने सीमा की तरफ़ देखा तो पता चला आज फिर 8 साल बाद मेरे सामने वही कॉलेज की लड़की है, जो बारिश में भीगने के लिए मौक़ा ढूँढ़ती थी। लेकिल समय के चक्र ने हमें बड़ा बना दिया था। मैंने मन ही मन आर्या को हमारा लड़कपन जगाने के लिए धन्यवाद किया।

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