इक नूतन सा
राजेंद्र कुमार शास्त्री 'गुरु’इक नूतन सा बेरंग,
शायद...
कुछ दिन पहले ही निकला था वह।
कोमलता उसकी पहचान थी,
पर फिर भी नागवार लगा,
उस शाखा को,
गिरा दिया बेचारे को।
तड़पता हुआ गिर पड़ा,
उस तपती रेत में।
रोने लगा ज़ोर से,
उस शाखा के बिछोह में।
दिलासा देकर बोली ज़मीं
तुझमें नहीं है कोई कमी।
तेरे जैसे अनाड़ी,
न जाने कितने कुरबां हो गए,
इस मिट्टी की साख को बचाने के लिए,
न जाने कितने गुमराह हो गए।