दिशा अबोध है
डॉ. नवीन दवे मनावतआज हम जिस
धरातल पर खड़े हैं
कितने महफ़ूज़ हैं?
कितने अस्तित्वशाली हैं!
रोज़ एक विडंबना
बन जाती है।
और
जीवन की उलझन
सुलझने से पहले
नई विडंबित बात हो जाती है।
आज हमारी
धमनियाँ और शिराएँ
अवरुद्ध हो गई हैं
रुक गई है उनमें
धड़कने की गति
विलासिता का केलोस्ट्रोल
धँस गया है उनमें
बेजान सी
जिजीविषाओं को पाना चाहते हैं हम
रक्त और मवाद
सी विचारधारा -
जिससे बनाना चाहते हैं
अभेद्य किला ,
जिसे मज़बूत तो नहीं
लावारिस कहा जाये!
मन:स्थिति बन गई है
उस मछली सी
कमज़ोर
जो क्षीण हो जाती है जलाभाव से
कायरों की तरह
पर कुछ मौत अप्रत्याशित
उस मछली की
जो बुनना चाहती है
अपने ही प्रज्ञाचक्षु से
सम्भावनों के रक्षित जाल को
खोज रहे हैं
एक प्रलोभन का
अस्तित्व
अपने भीतर
यत्र - तत्र
पर दिशा अबोध है।