चार बेवकूफ़ों की कहानी 

01-08-2019

चार बेवकूफ़ों की कहानी 

क्षितिज जैन ’अनघ’

मैं और अर्पिता उर्मिला मैम के यहाँ रिविज़न करने आए थे। हमारा हिस्ट्री का एग्ज़ाम दस दिन बाद था। यूँ तो बचपन की मोहब्बत और ग्यारहवीं की मार्कशीट को कोई नहीं पूछता,  लेकिन अपने घरवालों के कहने पर हमें जाना पड़ा था। अर्पिता को मैंने पिक कर लिया और हम दोनों उर्मिला मैम के यहाँ आ गए।

अनुमानत: दो घंटे मनोयोग से पढ़ने के पश्चात हम थक गए, जब पूरे साल ही इससे अधिक पढ़ाई नहीं की थी तो अब क्या करते? यूरोप के थ्री और्डर्स से लैटिन अमेरिका के इंका और माया और मेसोपोटामिया पढ़ते-पढ़ते दिमाग़ ख़राब हो गया। कुछ चीज़ें तो ऐसी लग रही थीं मानो आज पढ़ा ही पहली बार हो। वैसे भी, अर्पिता तथा मैं साथ होते तो पढ़ाई करना अपने आप में एक कठिन कार्य था। वह कोई बात छेड़ती और मैं उसको आगे बढ़ाता। घंटो तक यही सिलसिला चलता रहता। अभी हम दोनों ही थक चुके थे और हमने मैम से दस मिनट के ब्रेक की माँग की। अपना चश्मा ठीक करते हुए मैम ने बनावटी ग़ुस्से से हमारी ओर देखा।

"दो घंटे भी पढ़ नहीं सकते बैठ कर!"

"मैम, एक बार में इतना ही घुसता है दिमाग में," मैंने अपने शरारती अंदाज़ में कहा।

"हाँ, बातें तो घुस जाती हैं," मैम मेरा कान खींचते हुए बोली।

"सॉरी मैम, सॉरी।"

"प्लीज़ मैम, दस मिनट का ही ब्रेक दे दीजिये," अर्पिता ने कहा।

"चलो, ठीक है। लेकिन सिर्फ़ दस मिनट का।"

"थैंक यू मैम!" हम दोनों ने ख़ुश होकर कहा और अगले ही सेकेंड से अपनी बातों में खो गए। अभी हम अपने क्लास के बच्चों का मज़ाक बना रहे थे। उर्मिला मैम बीच बीच में हमारी बातें सुन मुस्करा देती।

"ओये यार, ये साकेत कितना अजीब है न!" अर्पिता बोली।

मैं हँस पड़ा।

"साकेत शर्मा?"

"येस मैम।"

"उसमें क्या अजीब है?"

अर्पिता ने मेरी ओर कनखियों से देखा, "अजीब ही अजीब है मैम, ऐसी बड़ी-बड़ी बातें करता रहता है जब देखो। कहता है, मैं बड़ा होकर अपने देश के लिए काम करूँगा, और उसे दुबारा उतना महान बनाऊँगा जितना वह प्राचीन काल में था। उसकी बातों से लगता है कि महापुरुष बनने का शौक़ है उसे। उसके दिमाग़ में ढेरों योजनाएँ रहतीं हैं, मैं ये करूँगा, मैं वह करूँगा। हमें तो वह बावला ही लगता है, हाँ, कई बार उसकी बातें सुनकर हँस ज़रूर लेते हैं हम सब," वह अभी भी हँस रही थी।

"मुझे तो वह बेवकूफ़ लगता है। ऐसे बड़े-बड़े सपने देखने से क्या होगा? कभी वास्तवकिता को ध्यान में रखकर सोचा है उसने? अपना अलग ही कल्पना लोक बना लिया और उड़ता रहे उसमें। यह समय करियर बनाने का है, पढ़ाई करने का है, और ये महाराज महापुरुष बनने की सोच रहे हैं। मेरी नज़र में तो बेवकूफ़ ही है वह।"

"उसके अकेले के करने से क्या हो जाएगा मैम? वह क्या कोई गाँधी जी या भगत सिंह है जो उसने कहा और लोग आँख मूँद कर उसके पीछे चल पड़ें। और यह सब आज के ज़माने में कहाँ तक संभव है? हर काम के लिए पैसा चाहिए होता है, इतना पैसा कहाँ से उगाएगा वह? कहते रहने से कुछ नहीं होता, काम करने में हवा फुस्स हो जाती है," अर्पिता ने कहा।

"उसने अपने ये विचार कई बार मुझे भी बताए हैं। तुम मानो न मानो, उसकी बातें सुन मैं बहुत प्रभावित हुईं हूँ। इस वय में ऐसी बातें सोचना और उनको चिंतन प्रक्रिया से परखना, वास्तव में अद्भुत है।"

"क्लास को तो वह बेवकूफ़ ही लगता है।"

"सारी क्लास को?

"येस मैम।"

"उसे फ़र्क भी नहीं पड़ता," अर्पिता बोली।

उर्मिला मैम दो क्षण के लिए चुप रहीं।

"अच्छा, एक कहानी सुनोगे? ये कहानी भी ऐसे बेवकूफ़ों की है।"

"कहानी?" हम दोनों चौंक गए।

"किन्तु आधे घंटे लेट तक रुकना होगा।

मैंने घड़ी देखी। अभी तो पाँच बज रहे थे। घंटे भर का कोर्स और रह गया होगा। सात बजे तक भी घर पहुँच जाएँ तो क्या बुरा है? वैसे भी, कैब तो मिल ही जानी थी।

"ओके मैम।"

"मेरी स्टडी में चलो। वहाँ कुछ दिखाऊँगी भी तुम्हें।"

हम दोनों उनके पीछे-पीछे उनकी स्टडी में गए। स्टडी में केवल उनका टेबल लैंप जल रहा था परंतु उससे पर्याप्त रोशनी हो रही थी। हम दो चेयर्स पर बैठ गए। वे अपनी स्टडी टेबल पर बैठीं।

"सुनो, एक बार, चार बेवकूफ़ एक साथ बैठे और जैसे तुम गप्पें मारते हो, वैसे ही गप्पें मारने लगे। कुछ देर बाद, उन्होंने तय किया कि वे एक-एक कर अपनी बेवकूफ़ी बताएँ जिसके कारण सारा संसार उन्हें बेवकूफ़ कहता है.....

"चारों बेवकूफ़ बैठे हुए थे। उनमें से एक खड़ा हुआ, उसके सिर पर शिखा थी और उसने धोती-अंगवस्त्र पहन रखे थे। उसके ललाट पर लाल तिलक था। देखने में वह कृशकाय था लेकिन उसकी आवाज़ बड़ी रौबदार थी। "दोस्तों, मैं आप सब में से सबसे बड़ा हूँ, इसलिए सबसे पहले मैं बताता हूँ कि मैं बेवकूफ क्यों हूँ।"

"ज़रूर कहिए, ब्राह्मण महोदय," उसके पास बैठे एक योद्धा जैसे दिखने वाले बेवकूफ़ ने कहा।

"तो ध्यान से सुनिएगा।"

सबने सिर हिला कर स्वीकृति दी।

"मैं पहले एक अध्यापक था। एक बार, हमारे देश पर विदेशी आक्रांता ने आक्रमण किया। सारे राजा एक-एक कर उसके सामने समर्पण कर चुके थे। लेकिन मेरे दिमाग़ में पता नहीं क्या सनक थी कि मैं सारे राजाओं से मिल-मिल कर उन्हें समझाने लगा कि वे अपने स्वार्थ और अहंकार को छोड़कर देश के लिए लड़ें। किसी ने मेरी बात नहीं मानी, एक बहुत बड़े राजा ने तो मुझे धक्के मार कर सभा से बाहर निकाल डाला। मैंने प्रण लिया कि मैं उस को सिंहासन से हटा कर ऐसा राजा नियुक्त करूँगा जो देश की प्रति समर्पित हो। यहाँ मैंने पहली बेवकूफ़ी की, इतना होने के बाद भी मैंने अपना हठ नहीं छोड़ा। और कुछ शिष्यों के साथ एक सेना बनाई। मैं ही मूर्ख था जो उनके हित के लिए सोच रहा था जिन्होंने मेरी बात को गंभीरता से न लेकर मेरे स्वाभिमान को आहत किया था। ख़ैर, वह आक्रांता हार कर चला गया। मुझे एक प्रतिभावान शिष्य मिला जिसकी सहायता से मैंने उस अहंकारी राजा को हटा, उसे सम्राट बनाया। ये मेरी दूसरी बेवकूफ़ी थी, इसके कारण लोग कहने लगे कि मैंने केवल अपने प्रतिशोध के लिए यह सब किया। तथा मेरी तीसरी बेवकूफ़ी यह थी कि उस राजा का महामात्य रहकर भी मैंने कभी अपने लाभ के बारे में नहीं सोचा, एक मुद्रा का भी व्यक्तिगत लाभ नहीं लिया।"

"यह तो बहुत बड़ी मूर्खता है," एक पगड़ी पहना व्यक्ति बोला। "आज तो यही सिद्धांत पाला जाता है कि व्यक्तिगत लाभ सबसे ऊपर है, सबसे पहले है। अब आप इस सिद्धान्त को नहीं पालेंगे तो संसार आपको मूर्ख ही समझेगा।"

"सही कहा आपने," उस योद्धा ने दुबारा कहा। "आपकी पहली मूर्खता तो शायद हम सबने की है। उनका हित विचारा है जिन्होंने हमारा तो सदैव अहित ही किया है। कभी अपने स्वार्थ को नहीं देखा जबकि आज सबसे महत्वपूर्ण वही माना जाता है।"

"आप कौन है महोदय?" पहले बेवकूफ़ ने पूछा।

"मैं एक छोटे से राज्य का राजा था। मेरे काल में एक विदेशी वंश यहाँ बस गया था तथा उसने समस्त देश पर आधिपत्य कर लिया था। होना क्या था, सभी ने उसकी अधीनता मान ली, लेकिन यहीं आपको मेरी पहली मूर्खता दिखेगी। मैं स्वाभिमान और देशभक्ति के गीत पागलों के समान गाता रहा और उस राजा के सामने सिर न झुकाने की ज़िद पर अड़ा रहा। उसने मेरे राज्य पर हमला कर दिया किन्तु किसी प्रकार उसे पराजित कर एक बार के लिए तो मैंने अपने राज्य की रक्षा कर ली। यहाँ मैंने दूसरी मूर्खता की,"वह योद्धा बोल रहा था। उसकी क़द काठी अत्यंत भव्य थी। "मुझे पता था कि वह दुबारा मेरे राज्य पर आक्रमण करेगा, और इस बार उसकी सेना अधिक होगी। अत: मैं जनता के साथ वनों में चला गया और अपने सुख-आराम को न देखते हुए जीवन भर लड़ता रहा। यही मेरी दूसरी बेवकूफ़ी है। सारे राजे-रजवाड़ों ने तो सुख चैन की ज़िंदगी जी, लेकिन मैं जीवन भर संघर्ष ही करता रहा। तीसरी बेवकूफ़ी भी कुछ ऐसी ही है। जब सभी ने हार मान ली तो मैं क्यों लड़ता रहा? इससे अच्छा तो मैं भी अपनी बहन बेटियाँ उसको ब्याह कर निश्चिंत जीवन जीता, मुझे क्या पड़ी थी स्वाभिमान और स्वदेश की? "

"यह काफ़ी बड़ी बेवकूफ़ी थी," पगड़ीधारी व्यक्ति पुनः बोला।

"आपने आदर्शों का पालन किया, यह तो सबसे बड़ी मूर्खता हुई," चौथा बेवकूफ़, जो अभी तक कुछ नहीं बोला था, चर्चा में सम्मिलित हुआ। उस व्यक्ति ने चश्मा पहन रखा था। धोती पहने हुए वह पहले मूर्ख के जैसा लग रहा था बस वह पहला बेवकूफ़ थोड़ा क्रोधी व तेजस्वी लग रहा था जबकि यह चश्माधारी मूर्ख अत्यंत सौम्य व शांत लगता था।

"आप निस्संदेह काफ़ी बेवकूफ़ हैं," पहला मूर्ख बोला।

"केवल काफ़ी? यह मत भूलिए कि हम चारों इस भारतीय सभ्यता के सबसे बड़े मूर्ख हैं। यह बात स्वयं इतिहास ने कही है। अत: ये मूर्खताएँ भी साधारण मूर्खता नहीं होंगी," चौथा मूर्ख दुबारा बोला।

"तो मुझसे सुनिए महान बेवकूफ़ी," तीसरे बेवकूफ़ ने हँस कर कहा।

"मैं एक संन्यासी युवक था। मैंने विश्व भर में भारत की कीर्ति और उसके गौरवमयी इतिहास का डंका बजाया। वहाँ से प्रसिद्धि पाकर मैं भारत लौटा, ध्यान से सुनिएगा, यह पहली बेवकूफ़ी थी। मैं आराम से विदेश में महापुरुष बनकर रह सकता था, लेकिन मुझे अपने देश लौटने की सूझी। जब इतने समृद्ध देशों ने मुझे महापुरुष स्वीकार लिया था तो क्या आवश्यकता थी मुझे वापस आने की? यहाँ आकर मैंने अपने देशवासियों को जगाने का प्रयास किया, यही दूसरी मूर्खता हुई। मुझे पता होना चाहिए था कि इस देश को जब उठना होगा तब उठ जाएगा, मेरे प्रयासों से कुछ नहीं होगा। मेरी तीसरी मूर्खता थी कि मैंने सबको अध्यात्म को जीवन में उतारने को कहा। मुझे शायद पता नहीं था कि अध्यात्म स्वयमेव एक मूर्खता बन चुकी थी।"

"वास्तव में आपकी भूल अत्यंत महत्‌ थी," चौथा बेवकूफ़ बोला। "कुछ ऐसी ही बेवकूफ़ियाँ मैंने कीं लेकिन मैं यह निश्चय से कह सकता हूँ कि मुझे आप सबसे बड़ा मूर्ख समझा जाता है।"

"ऐसा कैसे कह सकते हैं आप?" दूसरे बेवकूफ़ ने कहा।

"मैंने देश की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष किया था। लेकिन उससे बड़ी बात, मैंने जीवन भर सत्य की आराधना तथा अहिंसा की सेवा की। पहली बेवकूफ़ी तो आप समझ ही गए होंगे। दूसरी बेवकूफ़ी हुई कि मैंने नैतिकता व धर्म को मानव के जीवन का आधार माना। उस कारण से मुझे समय ने कायर समझ लिया। तृतीय भूल, जो मैं आपको बताऊँगा वह है कि अच्छाई तथा सच्चाई पर स्वयम्‌ से अधिक विश्वास किया जिसके कारण लोग मुझसे रुष्ट हो उठे‍ तथा उन्होंने मेरे तरीक़ों और मार्ग को ग़लत बताना चालू कर दिया। कदाचित मैं समय को अपनी बात समझा नहीं पाया, अथवा सत्य की आराधना करते करते मैं उस ओर से बिल्कुल बेख़बर हो गया था। अहिंसा पर मेरी श्रद्धा शायद सबसे बड़ी भूल थी इस सभ्यता की। आज कोई अहिंसा के मेरे मार्ग को सही नहीं मानता तथा वह सबसे मूर्खतापूर्ण चीज़ों में सम्मिलित हो गया है। अत: मुझसे बड़ा मूर्ख कदाचित इस सभ्यता ने नहीं देखा है," वह बेवकूफ़ बोला। "चलिये मैं आपको कुछ दिखाने ले चलता हूँ।"

इतना कहकर वह बेवकूफ़ उन्हें एक ध्वस्त गाँव में ले गया।

"यह क्या है?" पहला बेवकूफ पूछ उठा।

"आज का विश्व हिंसा और विनाश से बुरी तरह जूझ रहा है, यह उसी की एक झलक है। देखिये, कैसा विनाश दिख रहा है आपको चारों ओर, यह एक मात्र जगह नहीं है जगत में जहाँ ऐसा हुआ हो। सारे देश, हिंसा और विनाश, विध्वंस और घृणा से ग्रस्त हैं। ऐसे में हम बेवकूफ़ों की बातें कैसे प्रासंगिक रह सकतीं हैं?"

"आपने सही कहा। हम बेवकूफ़ इसीलिए हैं क्योंकि हमने अपने समय तो बहुत बड़ी बड़ी बातें कीं, किन्तु ये बातें इस समय उतनी ही वास्तविक रह गईं हैं, जितना आकाश पुष्प। सबसे बड़ी बातें भी हमारी थीं, इसलिए सबसे बड़े मूर्ख भी हमीं सिद्ध हुए," पगड़ीधारी मूर्ख बोला।

"हम चाहे हँस के मानें या रो कर, हम इस सभ्यता के सबसे बड़े मूर्ख हैं...," योद्धा ने कहा....।

"इसके बाद वह चश्माधारी उन्हें विभिन जगहों पर ले गया और उन्हें भ्रष्टाचार, हत्याओं, ग़रीबी और अनैतिकता-अन्याय के दर्शन कराये। फिर वह उन्हें कुछ बच्चों के पास ले गया और उनकी बातें सुनाई। वे एक स्वर में उन मूल्यों तथा सिद्धांतों को बेवकूफ़ी बता रहे थे जिनका उन्होंने पालन किया था। इसके बाद तो उन्हें निश्चय हो गया कि उनसे बड़ा बेवकूफ़ कोई और नहीं है।" उर्मिला मैम ने कहानी पूरी की।

"लेकिन ये सारे मूल्य मूर्खता कैसे हुए मैम?" मेरे ज़ेहन में यह प्रश्न कब से कुलबुला रहा था।

"और ये मूर्ख कौन थे मैम?" अर्पिता ने पूछा।

मैम मुस्कराईं। "इनमें पहला मूर्ख थे आचार्य चाणक्य, जिन्होंने भारत को एकसूत्र में पिरोया। दूसरे बेवकूफ़ थे महाराणा प्रताप, जिन्होंने राष्ट्रीयता और स्वाभिमान की अग्नि को सदैव जलाए रखा। तीसरे मूर्ख थे स्वामी विवेकानंद, जिन्होने विश्व भर में भारत का डंका बजा दिया, तथा चौथे बेवकूफ़ थे महात्मा गाँधी, जिन्होंने सत्य और अहिंसा का पाठ मानवता को पढ़ाया।"

"लेकिन ये तो महापुरुष थे ना मैम?" मुझे विश्वास नहीं हो रहा था।

"थे तो सही, लेकिन सबसे बड़े बेवकूफ़ भी तो थे ना। यह तो उन्होंने ख़ुद ने ही कह दिया। बाद में महात्मा गाँधी ने उन्हें कुछ बच्चों की बातें भी तो सुनाई थीं जिनमें वे उनके सिद्धांतों को बेवकूफ़ी बता रहे थे। वे बच्चे कोई और नहीं, हम सब हैं, जब हम उनके आदर्शों व सिद्धांतों का ही सम्मान नहीं करते तो उनका भी सम्मान कहाँ करते हैं? गाँधी जी की अपने ही देश में क्या हालत है, यह तुम्हें भी पता है और कुछ हद तक उसके लिए ज़िम्मेदार तुम ख़ुद हो। तुम साकेत जैसे व्यक्ति को बेवकूफ़ कह रहे हो तो तुम उन्हें भी बेवकूफ़ कह रहे हो न, क्योंकि तुम उसके भीतर की महान कार्य करने की चाह को अपमानित कर रहे हो। तो हुए ना ये महापुरुष सबसे बड़े बेवकूफ़....!"

हम दोनों सोचते ही रह गए, चार बेवकूफ़ों की यह कहानी किसी और की नहीं, हमारी बनाई हुई ही तो है। हमने ही तो उन्हें बेवकूफ़ बना डाला है उनके सिद्धांतों को बेवकूफ़ी मान कर। हम दोनों आत्मलीन से एक दूसरे को देख रहे थे कि मैम की आवाज़ हमारे कानों में पड़ी, "कहाँ खोये हो तुम दोनों? अगला चैप्टर है जापान और चाइना वाला....

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