बजट की समझ

संजीव शुक्ल (अंक: 176, मार्च प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

कुछ छिद्रान्वेषी  राजनीतिक विश्लेषक लोग पूछते हैं बजट में बजट कहाँ है? इसमें बजट जैसा तो कुछ है ही नहीं। इसमें तो सिर्फ़ ख़रीदने, बेचने और टैक्स लगाने की ही बातें हैं।

अब आपको कैसे बताएँ कि आपके लच्छन ठीक नहीं!! और कैसे खुलकर  कहें कि आप दृष्टि-दोष से पीड़ित हैं। बस आप यूँ समझिये कि बजट बिलकुल आत्मा जैसा होता है।

जी हाँ, जिस तरह आत्मा होती है, पर वह दिखती नहीं। आत्मा महसूस करने की चीज़ है। इसे देखने के लिए भौतिक दृष्टि नहीं बल्कि आंतरिक भावदृष्टि चाहिए। इसी तरह बजट भी एक तरह से सरकार की आत्मा है। जो शक करते हैं कि बजट में बजट जैसा कुछ नहीं है, उनको बताना है कि यह शतप्रतिशत बजट ही है, पर उसे आप ऐसे न देख पाएँगे। ठीक वैसे ही जैसे परमात्मा की सत्ता पर विश्वास किये बिना आत्मा को नहीं जाना जा सकता क्योंकि आत्मा परमात्मा का ही एक अंश है। इसी तरह देश की सत्ता पर विश्वास किये बिना आप बजट को नहीं जान पाएँगे। पहले आप अपने अंदर सत्ताभाव जगाओ, उसका आराधन करो।  

आप कलुषित मन लेकर बजट को जान लेंगे?? बजट आत्मा सदृश है, उसको जानने के लिए  बुद्धि की नहीं भाव की ज़रूरत है. . . 

पहले आलतू-फ़ालतू के प्रश्न मन से निकालकर पवित्र हो। तब ही कुछ जान पाओगे।

जब तक भक्तिभाव विकसित नहीं होगा हृदय तमाम आशंकाओं से घिरा रहेगा। आप पहले अपने में वह खोजी दृष्टि लाइये फिर देखिये कैसे नहीं दिखता बजट!! जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठि . . .  बजट सिर्फ़ जनता का पैसा जनता में लुटा देने का ही नाम नहीं है। बजट बड़े-बड़े पूँजीपतियों को सहूलियतें देने का भी नाम है, जो चुनावों के समय देश के जनप्रतिनिधियों को धन मुहैया कराकर अप्रतिम देशसेवा करते हैं। यह ऐसा कर्ज़ है जो हर चुनाव में जनप्रतिनिधियों के मत्थे चढ़ जाता है। अतः यह ऐसा कर्ज़ है जो चुक ही नहीं सकता। टैक्स लगाना कोई ख़राब बात नहीं, बल्कि मेरा कहना है कि टैक्स जितना ज़्यादा लिया जाय उतना ही अच्छा। टैक्स आध्यात्मिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। यह धन संग्रह की प्रवृत्ति पर भी अंकुश लगाता है। भारतीय मनीषा अपरिग्रह में विश्वास करती है। टैक्स से संचित धन विधायकों, सांसदों के वेतन-भत्तों, उनकी हवाई यात्रा, विदेश यात्रा और सांसद-विधायक निधि के रूप देश को वापस कर दिया जाता है। सांसद-विधायक निधि में सांसदों और विधायकों को मिलने वाला परसेंटेज उनकी देश और समाज सेवा की तुलना में नगण्य है। 

जो आलोचक यह कहते हैं इससे अमीर और ज़्यादा सुखी और ग़रीब और दुखी हो जाएगा, तो भाई ऐसे असन्तुष्ट लोगों को इस सूत्र वाक्य का अध्ययन कर आत्मचिंतन करना चाहिए। यह सूत्रवाक्य है– "सुख-दुख समे कृत्वा". . . अर्थात्‌ सुख और दुख में समान रहना चाहिए। ज़्यादा चिल्ल-पों नहीं मचानी चाहिए।

कहने का मतलब जब अमीर लोग बजट द्वारा प्रदत्त अमीरी से दुःखी नहीं होते हैं तो ग़रीब लोग अपनी सुरसा के मुँह की तरह बढ़ने वाली ग़रीबी से काहे दुःखी होते हैं. . . यह धीर प्रकृति के मनुष्यों के लक्षण नहीं।

लोगों का क्या वह तो उकसाएँगे ही पर आप बगुला भगत की तरह धैर्य बनाए रखें।

अब कुछ लोग तो यह भी कहने से नहीं चूकते कि बजट में सिर्फ़ टैक्स ही टैक्स है, जनता के कल्याण के लिए तो कुछ है ही नहीं। अब आप ही बताइए– प्रबुद्ध नागरिको, कि बजट में अगर टैक्स नहीं होगा तो और क्या होगा? टैक्स ही तो बजट की ख़ूबसूरती है। टैक्स से देश का विकास होता है। इसके अलावा जब आप टैक्स भरेंगे तो आपके अंदर टैक्स पेयर होने की फ़ीलिंग्स आएगी। आपका सीना फूल के 56 इंच का हो जाएगा।

आप बजट में जनता के कल्याणकारी प्रावधानों के अभाव का रोना रोते हो! 

आख़िर आप कब आत्मनिर्भर होना सीखेंगे? यह परजीविता का भाव आख़िर कब जाएगा मन से? आज बापू की आत्मा कितना रो रही होगी, कितना धिक्कार-धिक्कार कर रही होगी!! आज ज़िंदा होते तो ऐसे सवाल खड़े करने वाले को अपनी लाठी से लाठिया दिए होते। सब सरकार ही करेगी तो फिर तुम लोग क्या करोगे? विद्वान लोग कह गए हैं कि सरकार वही अच्छी जो न्यूनतम हस्तक्षेप करे; न्यूनतम काम करे। आप अपने मामलों को ख़ुद ही टेकल करिये। 5 साल में सिर्फ़ एक बार वोट डालकर ही अपने को बहुत बड़ी तोप समझ लिए। नेता लोग चुनाव में अपने को जनसेवक क्या बोल दिए आप लोग अपनी सेवा कराने पर तुल गए। हद है मक्कारीपना की. . .

सरकार टैक्स नहीं लगाएगी; सरकार कुछ ख़रीदेगी नहीं;  सरकार कुछ बेचेगी नहीं; तो फिर  सरकार करेगी क्या?  फिर काहे की सरकार?? 

सरकार के इक़बाल को बुलंद करने के लिए यह सब ज़रूरी है। अगर वह यह सब नहीं करेगी तो आप कैसे जान पाएँगे कि यह सरकार है? सरकार भले के लिए ही होती है, भले ही उससे कुछ लोगों का भला हो रहा हो, पर हो तो रहा है। सरकार पर प्रश्नचिन्ह लगाना छोड़ो। वह तो भला हो सरकार का जो हर चीज़ बेचकर हमारा पेट पाल रही है, नहीं तो हम तो अभी तक  यही समझ रहे थे कि हमने पिछले सत्तर सालों में बहुत विकास कर लिया है। हम पर्याप्त रूप से आत्मनिर्भर हो चुके हैं। अब पता चल रहा है कि यह दावा कितना खोखला था। आज अगर  हमारे पास बेचने वाली इतनी चीज़ें न होती तो हम क्या बेचते और कैसे पेट पालते . . .

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