बैरी हवा
नवल किशोर कुमारपश्चिम से चली हवा,
वातावरण में उदासी लाती है,
लहलहाते गेहूँ की बालियों में,
दाने रह-रह कर दम तोड़ते हैं,
खेत की पगडंडी पर ठूँठे पेड़ तले बैठा,
हताश किसान हवा को कोसता है।
मन की पीड़ाग्नि क्षुधाग्नि को,
धीरे-धीरे शह देती है,
चेहरे पर पछिया के थपेड़े,
जीना मुश्किल कर देती हैं,
वातानूकुलित कमरे से अनजान,
वह बेजान ठठरी का आदमजाद,
जो विज्ञान के शब्दकोषों से अनिभिज्ञ है,
अपने बच्चों के तन पर,
स्पष्ट दिखती हड्डियों को देख,
वह बैरी हवा को कोसता है।
वह अन्नपूर्णा उसकी अपनी धरती माँ,
उसे अपने धानी आँचल में,
आश्रय देना चाहती है,
पछिया के तेज बयार को सोख,
अपना संपूर्ण ममत्व उड़ेलना चाहती है,
लेकिन,
नित दिन असहाय होता,
उसका अपना अस्तित्व,
उसे आत्मबलिदान करने से रोकता है,
वह किसान बैरी हवा को कोसता है।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- अब नहीं देखता ख़्वाब मैं रातों को
- अब भी मेरे हो तुम
- एक नया जोश जगायें हम
- कोशिश (नवल किशोर)
- खंडहर हो चुके अपने अतीत के पिछवाड़े से
- गरीबों का नया साल
- चुनौती
- चूहे
- जीवन का यथार्थ (नवल किशोर)
- जीवन मेरा सजीव है प्रिये
- नसों में जब बहती है
- नागफनी
- बारिश (नवल किशोर कुमार)
- बीती रात के सपने
- बैरी हवा
- मानव (नवल किशोर)
- मैं लेखक हूँ
- मोक्ष का रहस्य
- ये कौन दे रहा है यूँ दस्तक
- रोटी, कपड़ा और मकान
- वक़्त को रोक लो तुम
- शून्यता के राह पर
- सुनहरी धूप (नवल किशोर)
- सूखे पत्ते
- स्वर्ग की तलाश
- हे धर्मराज, मेरी गुहार सुनो
- क़िस्मत (नवल किशोर)
- ख़्वाहिशें (नवल किशोर)
- ललित निबन्ध
- सामाजिक आलेख
- विडियो
-
- ऑडियो
-