ज़िन्दगी से मुलाक़ात
प्रीति चौधरी ‘मनोरमा’
“विशाखा अब तो तुम्हारी सगाई हो गई है। उस मिहिर के चक्कर में अब हमें तो भूल ही जाओगी।”
“ओह! गुंजन तुम हमेशा ऐसे मत कहा करो। मिहिर मेरा होने वाला पति है, तो तुम मेरी पक्की सहेली, तुम्हें कैसे भूल जाऊँगी?”
“देखेंगे . . .”
“देख लेना!”
गुंजन और विशाखा बचपन से ही साथ पढ़ी हैं। दोनों में गाढ़ी मित्रता है वे एक-दूसरे की राज़दार रही हैं। विशाखा के पिताजी रेलवे में स्टेशन मास्टर हैं और गुंजन के पिता टैक्सी ड्राइवर। दोनों की आर्थिक स्थिति में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ होते हुए भी दोनों में मित्रता है। वैसे भी मित्रता धन-वैभव और जाति-पाति नहीं देखती। पढ़ाई पूरी करने के बाद विशाखा निजी विद्यालय में अध्यापन कार्य करने लगी है। वहीं गुंजन एक लोकप्रिय चैनल की पत्रकार बन गई। बेबाकी से सच कहना गुंजन का स्वभाव है। विशाखा अंतर्मुखी प्रकृति की है वह सही बात को भी सही बमुश्किल कह पाती है।
“सुनो गुंजन आज मिहिर ने मुझे मॉल में मिलने के लिए बुलाया है।”
“हाँ, हाँ ज़रूर जाओ। शौक़ से जाओ। चाय कॉफ़ी पी कर आओ।”
“मुझे बड़ा डर लग रहा है।”
“डर किस बात का?”
“बस पता नहीं क्यों . . . मिहिर कहीं कुछ ऐसी वैसी हरकत न करने लगे।”
“ऐसी वैसी हरकत से मतलब?”
“कोई ऐसी इच्छा जो मैं विवाह से पूर्व पूरी न कर सकूँ।”
“करे तो एक झापड़ रसीद कर देना।”
“अरे कैसी बात करती है . . .? वह मेरा होने वाला पति है।”
“पति है तो क्या हुआ . . . होने वाला है ना . . . अभी हुआ तो नहीं।”
अगले दिन विशाखा के चेहरे पर एक उदासी की बदली छाई हुई थी जो गुंजन से छुप न सकी।
“क्या हुआ मुँह पर बारह क्यों बजे हुए हैं?”
“कुछ नहीं।”
“अच्छा मुझे नहीं बताना है, तो रहने दे।”
“किसी से कहेगी तो नहीं . . .?”
“आज तक कहा है . . .?”
“मुझे तुझ पर यक़ीन है।”
“तो बोल दे सारी मन की बातें।”
“पता है कल मिहिर मिला था।”
“हाँ फिर क्या हुआ . . .?”
“कहने लगा मैंने यहीं पास में एक होटल में कमरा बुक किया है। थोड़ी देर वहाँ समय गुज़ारते हैं। जब मैंने कहा कि कॉफ़ी शॉप पर भी समय गुज़ारा जा सकता है, तो जैसे उसने ज़िद ही पकड़ ली और कहने लगा
‘मैं तुम्हारा होने वाला पति हूँ इतनी सी बात भी नहीं मानती।’ मैं काफ़ी समय तक आश्चर्यचकित-सी उसे देखती रही। फिर मैंने उसकी आँखों में कुछ ऐसा देखा जो मैं देखना नहीं चाहती थी। एक अधिकार . . . मालिकाना हक़ . . . स्वयं की प्रभुता सिद्ध करने की ललक . . . उसने कॉफ़ी शॉप में मेरा हाथ ज़ोर से पकड़ते हुए कहा ‘चलती है या नहीं . . .?’ पता नहीं क्यों मुझे उसका इस प्रकार बोलना अच्छा नहीं लगा और मैंने हाथ झटक दिया। इतना करना था कि वह मुझ पर चिल्लाने लगा—तू मेरी होने वाली बीवी है जैसा मैं कहूँगा, तुझे करना ही पड़ेगा।”
“फिर क्या हुआ . . .?”
“होना क्या था . . . कॉफ़ी शॉप में बैठे सभी व्यक्ति मेरी ओर देखने लगे, उन नज़रों में मेरे लिए सहानुभूति थी, दया थी और मुझे शर्मिंदगी का अनुभव हो रहा था। मैंने उससे धीरे बोलने की रिक्वेस्ट की तो उसने अपनी आवाज़ को और बुलंद कर लिया। फिर तेरी कही बात याद आ गई और एक झापड़ रसीद कर दिया उसे।”
“ठीक किया . . . वेलडन!”
“रात को ही पापा के पास मिहिर के पिता का फोन आ गया उन्होंने मेरी शिकायत की कि तुम्हारी बेटी ग़ुस्से की बहुत तेज़ है। आजकल के लड़के-लड़कियाँ तो विवाह से पूर्व मिल ही लेते हैं। इसमें बुरा ही क्या है? वैसे भी हमारा बेटा एक अच्छा इंसान है। मैंने माँ को कॉफ़ी शॉप में हुई घटना अक्षर-अक्षर घर आकर बता दी थी, तो माँ ने भी मिहिर के पापा को बोल दिया आपका बेटा अच्छा है तो हमारी बेटी भी बुरी नहीं है, और वैसे भी कोई भी रिश्ता आपसी तालमेल और समझ पर ही चलता है। यदि मिहिर विशाखा की भावनाओं को समझेगा ही नहीं, तो फिर इनके गृहस्थ जीवन की गाड़ी कैसे चलेगी? उसकी गरिमा . . . उसकी सेल्फ़ रिस्पेक्ट . . . मिहिर नहीं रखेगा तो इस विवाह का क्या औचित्य है?”
“फिर क्या हुआ?”
“होना क्या था मिहिर के पिताजी ने शर्त रखी है कि यदि विशाखा माफ़ी माँग ले तो वह विवाह करने के लिए तैयार हैं, अन्यथा की स्थिति में रिश्ता तोड़ा जा सकता है।”
“तो तू इसीलिए उदास है कि मिहिर का रिश्ता हाथ से निकल गया या तुझे माफ़ी माँगनी पड़ेगी?”
“नहीं मैं इसलिए उदास हूँ कि मैं क्यों नहीं कॉफ़ी शॉप में ही उससे सारे रिश्ते तोड़ नहीं आई? क्यों माँ बाबूजी के निर्णय की प्रतीक्षा की? उस जैसे ज़िद्दी सनकी और डोमिनेटिंग नेचर के व्यक्ति के साथ मैं जीवन गुज़ार ही नहीं सकती।”
“आज तुझ पर मेरी संगत का असर आ गया है। वरना मुझे हमेशा यही लगता रहा कि तू ग़लत बात का विरोध नहीं करती। तेरी सहनशक्ति देखकर मुझे फ्रस्ट्रेशन होती थी आज ख़ुशी मिल रही है कि तू अपने निर्णय स्वयं ले पा रही है।”
“रात को पिताजी ने जब मुझसे पूछा कि मिहिर के विषय में तुमने क्या निर्णय लिया है, तो मैंने बिना देर लगाये कह दिया पापा मैं उस व्यक्ति के साथ विवाह नहीं कर सकती। सरकारी नौकरी होना, बैंक बैलेंस होना, महानगर में मकान का होना काफ़ी नहीं। गुज़ारा इन सब से नहीं होता। जब तक जीवनसाथी के विचार हमसे ना मिलते हों। यह सब चीज़ प्राथमिक नहीं, प्राथमिक तो उस इंसान का स्वभाव है, जिसके साथ पूरा जीवन गुज़ारना है।”
“फिर अब मुँह क्यों लटका रखा है . . .? सब कुछ तो सॉल्व हो गया।”
“बस यही सोच कर कि दुनिया वाले क्या कहेंगे . . .? रिश्ता क्यों टूट गया . . .? अवश्य ही मुझे दोष देंगे।”
गुंजन ने अपने माथे पर हाथ मारते हुए कहा, “उफ़ ढाक के वही तीन पात . . . अब दुनिया के विषय में क्यों सोचने लगी? यदि तू मिहिर से विवाह कर लेती और विवाहोपरांत मिहिर अत्याचार करता और फिर तू चुपचाप सहन करती, तब क्या दुनिया वाले आकर तेरा बचाव करते? चल अब इतना मत सोच . . . कल मिहिर से मुलाक़ात की थी, आज ज़िन्दगी से मुलाक़ात करते हैं। पूरा दिन हँसते-खेलते हुए बिताते हैं।”
इतना सुनकर विशाखा के चेहरे से विषाद की रेखाएँ ग़ायब हो गईं।