ईर्ष्या तू न गयी मेरे मन से

15-05-2023

ईर्ष्या तू न गयी मेरे मन से

प्रीति चौधरी ‘मनोरमा’ (अंक: 229, मई द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

 

मेरा नाम सौम्या है किन्तु नाम के अनुरूप मेरा स्वभाव सौम्य और सरल नहीं है। मैं अपने माता-पिता की इकलौती संतान हूँ। सभी मुझे प्रेम से “सुंदरी” कह कर संबोधित करते हैं। इसका कारण है मेरा गौर वर्ण . . . हिरनी जैसी आँखें . . . और सुंदर छरहरी काया। इसीलिए थोड़ा सा अहंकार मेरे हृदय में प्रवेश कर गया। बचपन से ही मुझे स्वयं को दर्पण में निहारना अत्यधिक रास आता था। मुझे ऐसा लगता था जैसे मुझसे सुंदर और आकर्षक इस दुनिया में कोई है ही नहीं। अपने माता-पिता की इकलौती संतान होने के कारण अपनी चीज़ें मैं किसी से भी साझा नहीं करती थी, चाहे वह मेरे खिलौने हों अथवा मेरे कपड़े। मैं पूरे घर पर बस अपना ही अधिकार रखना चाहती थी। मेरे बाद माँ को कोई संतान नहीं हुई, शायद उन्हें कोई स्वास्थ्यगत समस्या थी, जिसके चलते घर में मेरे बाद और कोई नन्हा मेहमान नहीं आया था। किन्तु मेरे लिए यह अत्यंत प्रसन्नता का विषय था क्योंकि मैं अपना प्रेम किसी भी भाई-बहन के साथ बाँटने की इच्छुक भी नहीं थी। 

ऐसे ही दिन बीतते जा रहे थे। मेरी शिक्षा-दीक्षा अच्छी चल रही थी। धीरे-धीरे मैं युवावस्था की दहलीज़ तक पहुँच गई। मेरे पिताजी ने मेरा विवाह एक सुशिक्षित और संभ्रांत परिवार के रजनीश नामक युवक के साथ कर दिया। रजनीश के परिवार में उसके भैया-भाभी, माता-पिता सभी थे अब मैं क्योंकि एकाकी परिवार से गई थी, तो मुझे इतना शोरगुल रास नहीं आता था। इतनी भीड़ पसंद नहीं आती थी। मैं ससुराल में भी एकांत खोजती रहती थी। मेरी जेठानी मृदुला के विवाह को लगभग आठ वर्ष बीत चुके थे किन्तु घर में कोई बच्चा नहीं था। जब मेरा विवाह हुआ तो मेरे सास-ससुर और जेठ-जेठानी मुझसे संतान प्राप्ति की आस रखने लगे। मुझे उन सब की आशाओं को पूर्ण करने का इंतज़ार था। इसलिए नहीं कि मैं उन सब से प्रेम करती थी, या उन्हें ख़ुश देखना चाहती थी, बल्कि इसलिए कि वह सब मेरे मोहताज थे, मैं ही उन्हें संतान सुख दे सकती थी, और फिर ईश्वर ने मेरी सुन ली और मैं गर्भवती हो गई। परिवार में मानो ख़ुशी का उत्सव मनाया जाने लगा। जेठ-जेठानी, पति, सास-ससुर, सब मेरा बहुत ख़्याल रखते थे। मुझे यह सब आनंदित कर जाता था। कभी सासू माँ मेरे खाने के लिए लड्डू बनाया करतीं . . . तो कभी जेठानी तीखे व्यंजन मेरे लिए बनाकर लेकर आतीं और बड़े प्रेम से कहतीं, “छोटी . . . ले ऐसे समय में कुछ खट्टा खाने का जी करता है . . . ले तेरे लिए आज दही बड़े बनाए हैं।”

मेरे ससुर जी प्रतिदिन बाज़ार से मेरे लिए ताज़ा फल लेकर आते थे। 

मैं उन सब के लाड़-प्यार को उनका स्वार्थ ही समझती रही और सोचा कि मैं इन्हें इनके घर का वारिस देने वाली हूँ इसीलिए यह सब मेरे आगे-पीछे घूम रहे हैं। अपनी-अपनी सोच होती है। मैंने तो कभी भाई-बहन का प्रेम भी नहीं देखा था, जो जान सकती कि यह सभी मुझसे कितना पवित्र प्रेम करते हैं। 

समय व्यतीत होता रहा और फिर नौ माह बाद मैंने एक सुंदर-सी बेटी को जन्म दिया। परिवार में हर्ष और उल्लास का माहौल हो गया। सभी रिश्तेदार बुलाए गए। पास-पड़ोस में लड्डू बँटवाए गए। मेरे ससुर जी ने धूमधाम से बेटी का जन्मदिन मनाया। मुझे अपने आप पर घमंड-सा हो चला था कि आख़िर इस परिवार को ख़ुशियाँ मैंने ही तो दी हैं। मैं अपने आप को ही सब कुछ समझने लगी। मेरी जेठानी पूरे दिन रसोई में कार्य करती रहतीं किन्तु मैं भूलकर भी रसोई में क़दम नहीं रखती थी। सोचती थी मैंने तो बेटी को जन्म दिया है, इन सब पर एहसान किया है, आख़िर क्यों रसोई का काम करूँ? 

धीरे-धीरे समय चक्र चलता रहा और फिर दो वर्ष बाद मैं पुनः माँ बनने वाली थी। इस बार भी मैंने एक बेटी को जन्म दिया और मेरे ससुराल वालों ने मेरी दूसरी बेटी को भी ख़ूब लाड़-प्यार और अपनत्व दिया, यह सब बालकों के लिए तरसे हुए थे, दो-दो बेटियाँ पाकर बहुत पुलकित हुए। जब मैं तीसरी बार माँ बनने वाली थी तो मैंने लिंग जाँच कराई। मेरा इरादा था कि यदि फिर से बेटी होगी तो गर्भपात करा लूँगी। किन्तु तीसरी बेटी को जन्म नहीं दूँगी। आख़िर तीन-तीन बेटियों को कौन पालेगा। लिंग जाँच से पता चला कि मुझे तीसरी भी बेटी है। किन्तु मेरी जिठानी ने मुझे समझाया और कहा, “सौम्या क्या तू पागल हो गई है . . .? कोई माँ कैसे अपने आप अपनी बेटी की पेट में ही हत्या कर सकती है . . .? तुझे मेरी क़सम है जो तूने कुछ भी उल्टा-सीधा क़दम उठाया तो . . . इस बेटी को पैदा कर ले . . . और फिर इसे मैं गोद ले लूँगी। अपनी बेटी बनाकर रखूँगी . . . तुझे इसका कुछ भी काम नहीं करना पड़ेगा . . . इसका विवाह मैं करूँगी . . . इसके खान-पान और सारी देख-भाल की ज़िम्मेदारी मेरी होगी। बस तू यह भ्रूण हत्या मत कर।”

उनकी बात सुनकर या कहूँ कि उन पर तरस खाकर मैंने उस तीसरी बेटी को पैदा कर लिया। और अपने वचन के मुताबिक़ मेरी जेठानी ने उस बेटी को अपनी बेटी की तरह पालन-पोषण देना शुरू कर दिया। उन्होंने लिखित रूप में उस बेटी को अपनी बेटी बना लिया। मैं तो दो बेटियों से ही ख़ुश थी, यह सोचकर भी मुतमईन थी कि चलो पीछा छूटा वरना बहुत सारी ज़िम्मेदारी सँभालनी पड़ती, बच्चे ऐसे ही थोड़े ही पाले जाते हैं। जेठानी रात-रात भर जाग कर मेरी बेटी को दूध पिलातीं . . . कई-कई बार उसके पेशाब के कपड़े बदलतीं . . . उसका पूरा ध्यान रखतीं। और फिर कुछ ऐसा चमत्कार हुआ की अपने विवाह के 12 वर्ष बाद मेरी जेठानी ने गर्भधारण किया। जब परिवार को यह ख़बर पता चली तो परिवार में ख़ुशी की लहर दौड़ गई। मेरी जेठानी माँ बनने वाली थी। सभी ख़ुश थे किन्तु मैं परेशान थी, परेशानी का कारण यही था कि जो स्थान, जो देखभाल, मुझे मिल रही थी, अब वह मेरी जेठानी को मिलने लगी। धीरे-धीरे मैं उनसे चिढ़ने लगी। मेरा ईर्ष्या भाव इतना बढ़ गया कि मैं यह सोचने लगी कि काश! इन्हें लड़की हो जाए या इनका बच्चा गर्भ में ही ख़त्म हो जाये। और फिर 9 माह बाद मेरी जेठानी ने एक फूल से बेटे को जन्म दिया। परिवार को जैसे बरसों की प्रतीक्षा का फल मिल गया था। मेरी बेटियाँ भी भैया के जन्म पर अत्यधिक ख़ुश थीं। मेरे ससुर जी ने पूरे गाँव को निमंत्रित करके एक विशाल प्रीतिभोज का आयोजन किया। सभी ख़ुश थे किन्तु मैं अंदर ही अंदर ईर्ष्या भाव से जली जा रही थी। मुझे यह ख़ुशियाँ बिल्कुल भी नहीं सुहा रही थीं। अब मुझे यह लगने लगा कि मेरा स्थान परिवार में निम्न हो जाएगा। अब तो जेठानी का स्थान ही ऊँचा रहेगा, सब उन्हें ही प्रेम करेंगे उन्होंने बेटे को जन्म जो दिया है। पता नहीं कहाँ से मन में इतनी ईर्ष्या पैदा हो गई कि मैं उस लड़के से नफ़रत करने लगी। बच्चा तो भगवान का रूप होता है पर पता नहीं क्यों उसे देखकर मेरे अंदर उसे मारने की प्रवृत्ति प्रबल होने लगी। धीरे-धीरे वह बालक बड़ा होने लगा, दादा-दादी और मेरे जेठ-जेठानी सभी उसके आगे-पीछे घूमते, उसकी सारी इच्छाएँ पूरी करते। मेरी बेटियाँ भी अब स्कूल जाने लगी थीं। और जो बेटी जेठानी ने गोद ली थी वह छोटी होने के कारण प्ले स्कूल में पढ़ती थी। एक दिन पूरा परिवार किसी समारोह में शामिल होने के लिए घर से बाहर गए गया हुआ था। मैं और जेठानी का बेटा घर पर अकेले थे। दोपहर का समय था वह छत पर खेल रहा था। उसे अकेले देख कर पता नहीं कैसे मेरे मन में उसे मारने की इच्छा बलवती हो उठी . . . मुझे लगा यदि यह बड़ा हो जाएगा तो सारी सम्पत्ति इसी की हो जाएगी। मेरी दोनों बेटियाँ तो विवाह होकर दूसरे के घर चली जाएँगी, मुझे यह बात क़तई गवारा नहीं थी। 

मैं तो मायके में भी अकेली ही रही थी। किसी से कभी अपना खाना भी मैंने साझा नहीं किया था, तो आख़िर अपनी सम्पत्ति कैसे साझा कर लेती . . .? और उसी क्षण में मैंने उस बच्चे को मारने का प्रण कर लिया। वह खेलता हुआ छत की मुँडेर तक आ गया। वह मुझे देख रहा था जैसे कह रहा हो आओ मुझे छू लो। मैं तेज़ी से उसके पास गई और मैंने उसे धक्का दे दिया। एक तेज़ चीख के साथ वह बालक छत से नीचे जा गिरा। बालक में जान ही कितनी होती है। उसके सिर पर चोट लगी और वह हमेशा-हमेशा के लिए शांत हो गया। अब मुझे यह भय सताने लगा कि कहीं मेरा यह कृत्य सबके सामने आ गया तो . . .? सब मुझसे नफ़रत करने लगेंगे, इसीलिए मैं भी छत से कूद गई। यह सोचते हुए कि कह दूँगी कि बच्चा गिर रहा था, तो मैं इसे बचाने के लिए कूदी। मुझे ज़्यादा चोट नहीं आई, क्योंकि मैंने कच्ची मिट्टी पर कूदने का उपक्रम किया था। उसे पक्के फ़र्श पर फेंका था जिससे उसका सिर फट गया था। मुझे हल्की-फुल्की खरोंच ही आईं थीं, किन्तु गाँव वालों और अपने परिवारजनों की नज़रों में मैं बिल्कुल निर्दोष थी। सभी मेरी ममता और दया की तारीफ़ करते रहते,  “कितनी अच्छी औरत है, यह तो चाची होकर भी बच्चे को बचाने के लिए ख़ुद की जान की परवाह किए बिना छत से कूद गई।” किसी को भी यह नहीं पता था कि उस छोटे से बच्चे की जान मैंने ही ली है। किन्तु बुरे कर्मों का नतीजा सबको ही भुगतना पड़ता है। मेरे बुरे कर्म मेरे मन में अपराध बोध का भाव जगा रहे थे। मुझे रात को नींद नहीं आती थी। उस लड़के की अंतिम चीख मेरे कानों में गूँजती थी, जैसे मुझसे पूछ रहा हो कि “छोटी माँ तुमने मुझे छत से क्यों गिरा दिया . . .?” 

मैं रातों को करवट बदल-बदल कर सोने का प्रयास किया करती। लेकिन नींद तो मुझसे जैसे रूठ ही गई थी। किसी से अपने मन का यह संताप कहकर कम भी नहीं कर सकती थी। किसी से बता भी नहीं सकती थी कि उस बालक को मैंने ही मारा है . . . कभी-कभी इच्छा होती कि ज़ोर से चीख कर कहूँ और पूरी दुनिया को बता दूँ कि हाँ मैं ही वह औरत हूँ जिसने उस फूल से बच्चे को छत से गिरा दिया। मेरी जेठानी अपने पुत्र का वियोग सह ना सकीं और 3 माह बाद ही ईश्वर को प्यारी हो गयीं। उनकी मृत्यु के बाद मुझे ऐसा लगने लगा जैसे मैंने ही अपनी जेठानी को मार दिया है। ना मैं उनके बेटे की जान लेती, ना वह पुत्र वियोग में यूँ तड़प-तड़प कर मरतीं। फिर 1 वर्ष पश्चात मेरे सास-ससुर भी इस दुनिया से अलविदा कह गए। इतना दुख इतना अपराधबोध मुझे हुआ कि मुझे लगा जैसे मैंने हँसते-खेलते परिवार को आग लगा दी हो। अभी मैं इस दुख से उबर भी नहीं पाई थी कि एक दिन मेरी तीनों बच्चियाँ जो एक निजी विद्यालय में बस से पढ़ने के लिए जाती थीं, वह बस के दुर्घटनाग्रस्त होने के कारण मुझे छोड़कर चली गयीं। आज मैं बाँझ हो चुकी थी। मुझे डॉक्टर ने और बच्चा करने के लिए मना कर दिया था। हँसता-खेलता परिवार कुछ ही वर्षों में टूट कर बिखर गया। मैं इतना दुख सहन नहीं कर पा रही थी। मेरी आत्मा पर बोझ रखा हुआ था। एक दिन मैंने अपने पति से रात को सोते समय उस दिन की सारी घटना सच-सच बता दी, जब मैंने उस छोटे से बालक को मारने के इरादे से छत से नीचे फेंक दिया था। प्रारम्भ में उन्हें मेरी इस बात पर यक़ीन ही नहीं हुआ। किन्तु मैंने उन्हें उस दिन का सारा वृत्तांत बताया और बताया कि कैसे मैं उस बच्चे से चिढ़ती थी . . . कैसे उसे अपना दुश्मन मानने लगी थी . . . अब मेरे पति क्रोधित होते हुए बोले कि “तुम आज अभी इसी वक़्त इस घर से चली जाओ। तुमने इस हँसते-खेलते घर में दुख की आग लगा दी। तुम औरत नहीं . . . हत्यारिन हो और मैं एक हत्यारिन के साथ एक क्षण भी नहीं रह सकता।”

उन्होंने मेरे मायके में रात को ही फोन कर दिया। जब मेरा अपराध मेरे परिवार जनों के सामने आया तो उन्होंने भी मुझे अपनाने से मना कर दिया। मैं अच्छे घर में पली-बढ़ी, अच्छे ससुराल में ब्याही गई, आज इस भरे संसार में बिल्कुल अकेली थी। सड़क पर इधर-उधर घूम रही थी। मन से इतना कमज़ोर हो चुकी थी कि एक बार आत्महत्या करने का ख़्याल मन में आया, किन्तु अपराध का इतना बोझ लेकर मर भी न सकी। फिर चलते-चलते न जाने क्या सोचकर एक मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ गई। इतना थक चुकी थी कि वहीं मुझे नींद आ गई। सुबह उठकर देखा तो किसी ने मुझे माँगने वाली भिखारिन समझकर दो पूरी और थोड़ा सा अचार खाने के लिए दे दिया। बस इसी तरह सात वर्ष तक मैं नारकीय जीवन जीती रही। उसी एक साड़ी में लिपटी हुई, जिसमें पति का घर छोड़ा था। 7 वर्ष तक उसी मंदिर की चौखट पर सो जाती। जो कुछ रूखा-सूखा मिलता खा लेती थी। किसी से कुछ माँगती भी नहीं थी, क्योंकि मुझे माँगने की आदत भी नहीं थी। मैं एक अच्छे परिवार से सम्बन्ध रखती थी, किन्तु यहाँ सभी ने मुझे भी भिखारिन समझ लिया था। मैं तो स्वयं भी अपने आप को भूल चुकी थी। मेरा नाम सौम्या किन्तु मैं कितना क्रूर कृत्य कर चुकी थी, शायद मेरे इस कृत्य के लिए ईश्वर भी मुझे माफ़ न करें। 

फिर ऐसे ही मंदिर में एक बार सत्संग का आयोजन हुआ। सत्संग करने वाली महिला ने मुझे पीछे वाली पंक्ति में उदास और निराश बैठे हुए देखा तो उन्होंने मुझे मंच पर बुला लिया और मेरे हाथ में माइक देकर बोलीं, “ हे माई तुम्हारा जो भी दुख है . . . जो तुम्हारी आँखों में दिखाई दे रहा है, उस सारे दुख . . . सारी पीड़ा को शब्दों में पिरो कर इस मंदिर में सब भक्तों के सामने रख दो। हो सकता है तुम्हारी पीड़ा कम हो जाए।”

पता नहीं कितने वर्षों से मैं जो बुत बनी हुई थी . . . एक शब्द भी नहीं बोली थी . . . आज वह मौन का ताला टूट गया और मैंने उस मंदिर में ईश्वर की प्रतिमा के समक्ष अपने सभी अपराधों को स्वीकार कर लिया। स्वीकार कर लिया कि कैसे मैंने उस अबोध बालक की हत्या की। यह भी स्वीकार कर लिया कि मेरे मन में अपनी बड़ी बहन जैसी जेठानी के प्रति कितना ईर्ष्या भाव था। आज सारी आत्मग्लानि . . . सारा पश्चाताप . . . सारी वेदना . . . मैंने कह डाली। जिसने भी मुझे सुना सबकी आँखों में आश्चर्य और दुख मिश्रित भाव थे। पता नहीं उस रात मैं मंदिर की चौखट पर सत्संग के समापन के बाद ऐसी सोई की फिर सुबह आँख ही नहीं खुली। शायद यह अपने अपराधों को भगवान के सामने स्वीकार कर लेने का परिणाम था। पश्चाताप की आग में जो मैं पिछले 8 वर्षों से जलती हुई आ रही थी, आज मेरी देह हिमगिरी के जल की तरह ठंडी हो चुकी थी। सुबह धीरे-धीरे लोगों के बुदगुदाने की आवाज़ें आ रही थीं, “अरे यह दुखियारी शायद मर चुकी है।”

किसी ने मेरा शरीर छुआ, तो शायद उसने कहा, “अरे नब्ज़ नहीं चल रही है। किसी डॉक्टर के पास ले कर चलें।”

बस इतना ही मुझे याद था। उसके बाद लगा जैसे आत्मा परमात्मा में विलीन हो चुकी है। जैसे किसी अँधेरे कुएँ में जा रही हूँ . . . जैसे सारे अपराधों से मुक्त हो चुकी हूँ . . . हाँ शायद इसी को मृत्यु कहते हैं। 

इसके पश्चात मेरा मृत शरीर एक लावारिस लाश समझकर मंदिर के पुजारियों द्वारा अंतिम गति को ले जाया जाने लगा, और दूर कहीं खड़ी मेरी आत्मा इस पापी शरीर की अंतिम प्रक्रिया को देख रही थी यही विचार आत्मा से प्रस्फुटित हो रहा था कि काश यह ईर्ष्या का भाव मन से चला जाता तो आज यह दिन न देखना पड़ता। 

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