दर्शन
प्रीति चौधरी ‘मनोरमा’विष्णु पद छंद गीत 16/10
सृजन शब्द: दर्शन
लाल लहू बन तुम ही बहते, मेरे इस तन में।
होते हैं तेरे ही दर्शन, मन के उपवन में॥
पीर विरह की सह लूँ कैसे, हर क्षण हूँ गिनती।
साथ सदा तुम मेरे रहना, तुमसे है विनती॥
बन संगीत लगे हो बसने, तुम हर धड़कन में।
होते हैं तेरे ही दर्शन, मन के उपवन में॥
तुम मेरी आँखों में रहते, बनकर के सपना।
तुम बिन इस दुनिया में साजन, मीत नहीं अपना॥
तुमने बाँध लिया है मुझको, कैसे बंधन में।
होते हैं तेरे ही दर्शन, मन के उपवन में॥
प्रीति अनोखी तुम पर अर्पित, देव तुम्हीं लगते।
जब जब तुमको आँखें देखें, भाव नए जगते॥
मीत तुम्हारे जैसा कोई, कब आता मन में।
होते हैं तेरे ही दर्शन, मन के उपवन में॥