ज़ज़्बा एक ज़र्रे का

15-11-2022

ज़ज़्बा एक ज़र्रे का

डॉ. कुसुम खेमानी (अंक: 217, नवम्बर द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

“जीजी! क्या मैं अन्दर आ सकती हूँ? मुझे मंजुबाई ने भेजा है—कहा है कि कलकत्ते से एक दीदी आई हैं; जाकर उनकी कुछ सेवा-टहल कर दो।”

हवा में तैरते ये शब्द जब कानों तक आए, तो बजने लगे। लगा कि टूटी-फूटी भाषा के ‘घटाटोप’ को चंद्रमा की किरण ने भेदकर सुमधुर संगीत की सृष्टि कर दी है। ‘मैं’ और ‘मुझ’ का प्रयोग इस जयंतिया, गारो और ख़ासी भाषाओं की इस पहाड़ी वादी में जहाँ खिचड़ी भाषा को छोड़ किसी भी भाषा की गति नहीं है; वहाँ ऐसा उत्तरप्रदेशी उच्चारण? . . . आँखें झटका देकर तुरन्त पलटीं और दरवाज़े के अधखुले ‘किवाड़ों’ को साँवले हाथ से थामे सीधे पल्ले की साड़ी में खड़ी एक कृशकाय महिला की आधी आकृति पर जाकर ठहर गईं। मेरे मुड़कर देखते ही दरवाज़ा थोड़ा और खुला और वहाँ पाँच फुट की एक शालीन सी स्त्री बाएँ हाथ में तेल की शीशी लिए खड़ी दिखाई दी। 

गौहाटी के ‘कामाख्या’ सिद्घपीठ से लौटकर थकान का रोना रोते और अपने हाथ-पैर सहलाते हुए हम भगवान से बस यही वर माँग रहे थे कि कहीं से कोई फ़रिश्ता आकर इन दुखते पैरोें पर गर्म तेल मल दे; कि मधुर घंटियों सा यह अमृत भरा वाक्य सुनाई पड़ा। 

सारी थकान और रोने-झींकने को भूल कर अचरज-भरी आँखों से मैंने उससे जो प्रश्‍न पूछे वे ये थे कि “तुम्हारा नाम क्या है? . . . तुम कहाँ की हो? और इस असमिया जंगल में ऐसी परिष्कृत हिन्दी कैसे बोल रही हो?” 

मेरे मुखारबिंद से यह उवाच सुनते ही साथ आई अंतरा बनर्जी ने मुझसे अँग्रेज़ी में झुँझलाकर कहा कि “छोड़ो! अपनी इस हिन्दी-रिसर्च को। इससे पूछो कि क्या इसे मालिश करनी आती है? बड़ी आई ‘फ़ोनेटिक्स’ (भाषा विज्ञान) की जानकार! जब देखो तब इसकी यह बेसिर-पैर की बकवास शुरू हो जाती है।”

हाथों और आँखों से उसे बरजते हुए; पर मीठी बोली से मनुहार सी करते हुए मैंने उससे कहा, “बस एक मिनट! और प्लीज़!!”

“ओ.के., कैरी ऑन!!” कहती ‘बोर’ सी होती हुई अंतरा वहाँ से चल दी। उस औपचारिकता के बोझ के हटते ही वातावरण खुल कर उन्मुक्त हो गया। मैंने हाथ के इशारे से उस महिला को पास बैठाकर जो जाना; वह यों था—छब्बीस वर्षीया विधवा लक्ष्मी, आज़मगढ़ की रहने वाली और तीन लड़कियों की माँ थी। 

“हे भगवान! कहाँ आज़मगढ़ और कहाँ असम! तुम यहाँ आई कैसे?” पूछने पर पता चला कि चौदह वर्ष की उम्र में ब्याही लक्ष्मी एक लड़की की अंगुली पकड़े; दूसरी को कंधे से चिपकाए और तीसरी को पेट में लिए पति के साथ यहाँ आई थी। पति चाय बाग़ान में क्लर्क था। दिन ठीक-ठाक कट रहे थे कि अचानक एक दिन पाँव फिसला और पति की मृत देह वादी के नीचे पाई गई। तीन छोटी बच्चियों की माँ लक्ष्मी अब किसी तरह टीन की एक छोटी-सी कोठरी में रह रही है और दो चार घरों में झाड़-पोंछ, चौका बर्तन और तेल मालिश आदि करके किसी तरह अपना और बच्चियों का पेट पाल रही है। उस टीन की कुटिया का किराया भी लगता है; लेकिन फिर भी दो दिन में एक बार वे माँ-बेटियाँ खाना खा ही लेते हैं। कपड़ों के नाम पर उसके पास बस यही एक साफ़ सुथरी साड़ी है, जो बड़े घरों मेें मजूरी करने के लिए पहननी पड़ती है। 

“लक्ष्मी! तुम आज़मगढ़ क्यों नहीं लौट जाती?” पूछने पर लक्ष्मी ने बताया कि उसकी ससुराल में न तो खेत और ज़मीन है; न ही घर में कोई अपना बचा है। जो हैं, वे ऐसे हैं कि रात तो क्या (?) दिन-दहाड़े उसके शरीर को नोचने की फ़िराक़ में रहते थे। उसकी छोटी-सी बच्ची को भी वे व्याघ्र-दृष्टि से ऐसे देखते थे मानों उसे समूची ही निगल जाएँगे। ग़रीब की ज़ोरू . . . वाली कहावत हम सब जानते हैं; पर जवान ग़रीब विधवा का राखनहार तो आदमज़ाद है ही नहीं। वे सब कर्ता और भर्ता न होकर केवल भोक्ता थे; उनकी आँखें मात्र उसके यौवन पर लगी थीं, उनके पेटों से उनका कोई लेना-देना नहीं था। अतः यहाँ रहना उसकी बाध्यता है। कम से कम वे यहाँ कुछ कमा-खा तो लेती है, वहाँ तो इसका भी ‘जुगाड़’ नहीं था . . .”

जैसा कि स्वाभाविक था उसकी ‘बेटियाँ’ कंकाल का ढाँचा लगती थीं; . . . पढ़ाई-लिखाई तो दूर; सवाल रोटी और तन ढाँकने के कपड़े का था! क्या किया जाए? बहुत मग़्ज़-पच्ची करने के बाद पता चला कि शिलाँग के रास्ते में रामकृष्ण मिशन का एक नि:शुल्क छात्रावास है; अतः हमारी सवारी उस छात्रावास में जा धमकी। दुर्भाग्य से लक्ष्मी की बच्चियाँ उसके नियमों में सटीक नहीं बैठती थीं; इसलिए मुँह उतारे हम सब शिलाँग के ‘होलीडे होम’ में आ कर ठहर गए। 

‘चेरापूँजी’ की झिर्रमिर्र-झिर्रमिर्र बूंँदेें और ‘हिमलुंबी’ (स्टैलस्टाइट एवं स्टैलग्माइट) गुफाएँ हमारा आह्वान कर रही थीं। उनके रस भरे आमंत्रण से आकृष्ट होकर ही हम इस मानसूनी मौसम में यहाँ आए थे। मन रह-रहकर ‘प्रिय’ की ओर खिंच रहा था; पर ‘श्रेय’ का तक़ाज़ा था कि पहले लक्ष्मी के कार्य को निष्पन्न करना चाहिए। लेकिन करें तो क्या करें (?) . . . 

अंधी गली के मोड़ पर खड़ा हमारा मन, मस्तिष्क और शरीर ‘भोथरा’ हो रहा था; सिर की मटमैली सफ़ेद धुँध किसी भी तरह छँट नहीं रही थी, कि ‘देवदूत’-सा ‘अल्फ़्रेड’ (हमारा ड्राइवर) बोला, “मेम साब! ऐनी हेल्प फ़्रॉम अस . . .? कैन आई?” उसकी टूटी-फूटी अँग्रेज़ी ने मुझे जो संदेश दिया उससे मेरे होंठों से बेसाख़्ता फूटा—“यस्स, यस्स! अल्फ़्रेड!! ऑफ़ कोर्स यू कैन हेल्प मी। प्लीज़ टेल मी ह्वाट कुड बी डन फ़ॉर पूअर लक्ष्मी एण्ड हर लिटल गर्ल्स।” अपने सिर का कुछ बोझ उसके गोल-मटोल नाटे शरीर में विराजित ‘भले हृदय’ पर डाल कर मैं बार-बार दोहराने लगी—“अल्फ़्रेड! प्लीज़ . . . टेल मी! . . . प्लीज़ हेल्प दिस पूअर लेडी!!”

हमने रास्ते भर अल्फ़्रेड का ख़ूब मग़्ज़ खाया था, और लक्ष्मी की दुर्दशा का रोना रो-रो कर हमने उसे भी हमारा शरीक-ए-ग़म बना लिया था। शिलाँग में ७०-८० प्रतिशत लोग ईसाई हैं और उनके वार्तालाप का माध्यम उनकी अपनी भाषाएँ—गारो, ख़ासी, जयन्तिया और थोड़ी बहुत अँग्रेज़ी ही हैं। 

छात्रावास से ठुकराए जाने पर अल्फ़्रेड हमारा रोना-पीटना, झींकना सब देख-सुन रहा था। वह भी लक्ष्मी के दुख से प्रभावित था, इसलिए जब उसने बताया कि उसकी दो बेटियाँ और एक बेटा शिलाँग से कुछ दूर एक ‘कान्वेंट’ में ‘फ़्री’ रहते और पढ़ते हैं, तो सहसा विश्वास नहीं हुआ! 

“फ़्री!! फ़्री?? . . . सच! अल्फ़्रेड??” 

अल्फ़्रेड ने अपनी भारी गरदन गरिमा से ऊपर-नीचे करते हुए कहा, “यस्स मैडम! हन्ड्रेड परसेन्ट फ़्री! लेकिन!! . . .”

लेकिन . . . लेकिन पर ध्यान देने की फ़ुर्सत किसे थी। देखते ही देखते हमने सबके हाथ से चाय के कुल्हड़ छीन कर ज़मीन पर पटके और गाड़ी में ठुँस कर शोर मचाने लगे, “चलो! चलो! कॉन्वेंंट चलो।” 

ऋग्वेद के ‘शान्ति मंत्र’-सी ही ‘शान्ति रेव शान्ति’ का साम्राज्य उस सघन दरख़्तों की पाँतों से घिरे पीताभ पत्थरों की बजरिया के ऊपर खड़े चर्च के चतुर्दिक फैला हुआ था। ऐसा मौन!! . . . ऐसा सन्नाटा! वहाँ व्याप्त था कि हमारी साँसों की आवाज़ भी साफ़ सुनाई दे रही थी। हमारे उत्साह की उद्दाम लहरों पर उस शान्ति ने ऐसा पाला मारा कि हमने एक-दूसरे का मुँह देखते हुए, धीमे हाथों से गाड़ी का दरवाज़ा खोला और हल्के क़दम बजरिया पर धरते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़े। ऑफ़िस का बोर्ड देखकर हम ठिठके और मैंने अर्थ-भरी नज़रों से लक्ष्मी की ओर देखा! इस देखने में ऐसे ढेरों प्रश्‍न छिपे थे जिनका उत्तर सिर्फ़ उसी के पास था। 

कॉन्वेंट की दूरी तय करते समय अल्फ़्रेड ने हमें खुल्लम-खुल्ला कह दिया था कि यहाँ केवल और केवल क्रिश्‍चियन ही भर्ती हो सकते हैं। उत्साह के अतिरेक में लक्ष्मी ने समर्थन भी कर दिया था; पर क्या यह बात इतनी सरल थी? आख़िर इसके पीछे हमारे सारे संस्कार! जीने-मरने तक के कर्मकांड! अर्थात् एक आदमी का पूरा इतिहास; उसका लोक और परलोक सब कुछ निहित था। यदि आज मैं क्रिश्‍चियन बन जाऊँ, तो मेरी पहचान? उसका क्या होगा? आख़िर धर्म बदलना गंभीर बात है; इसे मात्र सुविधा के लिए कैसे स्वीकारा जा सकता है? ऐसे ढेरों-ढेर प्रश्‍न मुझे धमका रहे थे और मैं बौखलाई-सी सोच रही थी कि जब एक साधन सम्पन्न शिक्षित व्यक्ति की यह स्थिति है, तो इस बेचारी दीन-हीन लक्ष्मी की तो बुरी गत हो रही होगी? मन के किसी कोने में यह भी लग रहा था कि जैसे मुझसे कोई बड़ा पाप हो रहा है . . . आख़िर ये लोग जैसे-तैसे जी ही रही थीं! क्यों मैंने उस शांत जल में आकांक्षा और उद्विग्नता की लहरें पैदा कर दीं? कटघरे में खड़े अपने मुजस्समे पर ख़ुद ही पत्थर मारने का मन कर रहा था। पर अब तीर कमान से छूट चुका था और इस स्थिति की सारी बागडोर लक्ष्मी के हाथों में थी। मैंने दयनीय दृष्टि से लक्ष्मी की ओर देखा . . . और यह देखकर स्तब्ध रह गई कि उस अपढ़ ने मेरी सारी दुविधाएँ, विचलन और ग्लानिबोध पूरी तरह पढ़ लिये थे; बिना सुनाए ही उसने अपनी सहजता से मेरी सारी गीता समझ ली थी। उसने अपना आत्मविश्वास-भरा हाथ बढ़ाकर मेरा हाथ थामा और कहने लगी, “जीजी! आपको किस बात का इतना विचार हो रहा है? क्या मैं वेश्या बनने जा रही हूँ जो आप पर इस तरह मुर्दनी छाई हुई है? चलिए आगे बढ़िए और मुझे जीवन सुधारने का एक मौक़ा दीजिए।”

मैं अवाक्! न मेरे पैर उठे और न ही बोल फूटे। चुपचाप उसके सहारे से एक क़दम उठाया, पर फिर धप्प से वहीं सीढ़ी पर माथे को दोनों हाथों से पकड़कर बैठ गई। 

तभी शान्ति और धैर्य की साकार मूर्ति बनी लक्ष्मी आकर मेरे बग़ल में सट कर बैठ गई और मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर बोली, “जीजी! बिल्कुल चिंता मत कीजिए! मैं जो भी करने जा रही हूँ उसके लिए आप बिल्कुल भी ज़िम्मेवार नहीं हैं!”

उसकी यह बात सुनकर मैंने अपनी बंद आँखें खोलीं और उन्हें उसके चहरे पर जमा कर कहा, “फ़ालतू बातें मत करो, इन सबके लिए एकमात्र मैं ही ज़िम्मेदार हूँ। तुम्हें क्या सपना आया था कि यह सब करो? यहाँ आओ और धर्म परिवर्तन करो?” 

लेकिन मैं चकित रह गई जब उसके ये शब्द मेरे कानों में पड़े, “जीजी! धर्म परिवर्तन!! कौन से धर्म का परिवर्तन?? यह शरीर जब जन्मा था, तो मुझे पता नहीं, यह क्या था? पति मरा, तो भी पता नहीं? मेरा धर्म क्या था? और आज जब मैं और मेरी बेटियाँ जीना चाहती हैं, तो आप धर्म की बात कर रही हैं? इस चोले का क्या? कभी भी छूट जाएगा; पर यदि मैं इसे आज ही नहीं रख पाई! तो क्या कोई भी धर्म इसे बचा पाएगा? जीजी! धर्म तो मन मेें होता है। तन का उससे क्या सम्बन्ध है? आप जी छोटा मत कीजिए, आप तो निमित्त मात्र हैं; मेरे भाग्य में यह शुभ दिन लिखा था जो आप संयोग से मुझे मिल गई!! . . . जीजी मैं आपके पैर पड़ती हूँ, कि यदि आज आपने रास्ता दिखाने में मेरी मदद की है, तो अब बीच मँझधार में छोड़कर मुझे इस पहाड़ी से कूदने को तो मत कहिए! उठिए! मन में हिम्मत लाइए!”

मुझे लगा कि प्रार्थना सभा में सुनी विवेकानन्द की आवाज़ गूँज रही है “उत्तिष्ठो भवः” मैं सन्न-सी और न देखती आँखें उसे देखती हुई बिना पलक झपकाए घूर रही थीं; न सुनते कानों से सुनती हुई और वह मेरे सामाजिक सिद्घांतों के पोटले को; दुनिया भर के तर्कों को; झूठी विद्वता के घमंड से गढ़े गए बडे़-बड़े शिलाखंडों को; यथार्थ के धरातल पर बड़ी सहजता से पटक-पटक कर चूर करती जा रही थी। पर उसमें न तो उसमें विजेता का घमंड था और न ही मुझमें पराजित होने की शर्म। बस हम दोनों कलकल बहती निश्छल नदी के जल की तरह बहने लगे थे। उन विचारों में अहंकार का लेशमात्र भी नहीं था। उसकी समझ में कहीं कोई कमी नहीं थी। जीवन के सच की कसौटी पर उसके शब्द सवा सोलह आने खरे उतर रहे थे। 

मैं विस्मित थी कि यह सीधी-सादी, दुख की मारी ग्रामीण औरत!! कैसे सारे दर्शन-शास्त्र का सार अपने आप में समेटे बैठी है? कितनी सहज सरलता से इसने मुझे धर्म, काम और मोक्ष का अर्थ समझा दिया है। श्रीकृष्ण को भी अर्जुन जैसे महापात्र के लिए अठारह अध्याय गीता के कहने पड़े थे; पर इसने तो मुझ मूर्खा की हथेली पर ही इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त ज्ञान का अर्क रख दिया है। हालाँकि उसने ये बातें बहुत ही साधारण शब्दों में कही थी; पर मुझे उनकी संश्‍लिष्टता और जटिलता को सुलझाने और समझने में ख़ासा समय लग रहा था। मैं मारे अविश्वास के उसके चेहरे को अपनी आँखों से टटोले जा रही थी। दो-चार क्षणों का यह मौन सदियों के सन्नाटे पर भारी पड़ रहा था; हवा दब रही थी; और ऊहापोह के बादलों ने चारों ओर से घेर कर एक दमघोंटू वातावरण उपस्थित कर दिया था, . . . अब ऐसी घड़ी आ गई थी कि या तो अभी लम्बा श्वाँस-प्रश्वाँस खींचा जाए, . . . वरना दम ही निकल जाएगा। मैंने एक बार फिर प्रश्‍न भरी गंभीर दृष्टि से लक्ष्मी की ओर देखा!! और वहाँ दृढ़ निश्चय के संकल्प से उपजे तेज को प्रकाशित देख मैंने हाथ पर ज़ोर देकर उठते हुए कहा, “तो लक्ष्मी चलें अंदर? देखें शायद मदर सुपीरियर तुम्हारी अर्ज़ी सुन लें!” लक्ष्मी की वह सफलता-भरी मुस्कुराहट आज भी ज्यों की त्यों मेरे मानस-पटल पर छवि-सी चित्रित है। 

ऐसा ही एक असमंजस भरा प्रसंग आज की घटना के संदर्भ में अचानक याद आया, जिसके सघन कुहासे को डॉ. कर्णसिंह सरीखे धार्मिक विद्वान ने अपने तर्कों से छिन्न-भिन्न किया था। यह सोचकर कि डॉ. साहब का घराना मंदिरों के जीर्णोद्घार के लिए सुख्यात है एवं स्वयं डॉ. साहब भी महाधार्मिक हैं, मैंने उनके सामने अपनी एक दुविधा रखी जिसके तल में ‘मदर टेरेसा’ के कार्यों के बारे में छोटा-सा प्रश्‍न-चिन्ह-सा भी था। मैंने कहा, “डॉ. साहब! ‘मदर टेरेसा’ से मेरा परिचय और सम्पर्क जब वे ‘निर्मल हृदय’ में सिस्टर टैरेसा थीं तभी से है। उनके काम की गहराई, व्यापकता, ईमानदारी, समर्पण आदि के बारे में तो मैं आश्वस्त हूँ, पर उनकी एक बात मुझे अखरती है कि वे बच्चा उठाते ही सबसे पहले उसे ईसाई बनाती हैं। जब मैंने उन्हें टोका, तो उन्होंने कहा कि ‘इन्हें कोई पहचान तो देनी ही होगी।’ पर डॉ. साहब? . . .” डॉ. साहब जैसे गंभीर व्यक्ति ने मुझे अधूरे वाक्य के बीच में ही रोककर उत्तर दिया, “मैं समझ गया; आपको दर्द है ना (?) कि वे उन्हें हिन्दू क्यों नहीं बनातीं? जबकि ज़्यादा गुंजाइश इस बात की है कि वे बच्चे हिन्दू ही होंगे . . . तो आपसे मेरा एक प्रति प्रश्‍न है, ‘चलिए मान लेते हैं कि बच्चे हिन्दू ही हैं, तो आपको या किसी निर्मला, विमला, सरला या कर्णसिंह को मदर टेरेसा बनने से कौन रोक रहा है? आप भी आदमी को जीवनदान और धर्मदान दीजिए—पर पहले ‘माँ’ तो बनिए?’” उनकी यह बात इतनी मार्मिक और सही थी कि सीधे जाकर मर्म पर लगी और दुविधा के धुँधलेपन की जगह वहाँ अच्छाई का नीलाकाश छा गया था। 

जब हमने मदर सुपीरियर के कमरे में क़दम रखा, तो लक्ष्मी की गझिन समझदारी ने मुझे एक बार फिर विस्मित कर दिया। 

उसने आगे बढ़कर ‘मदर’ के पैर पकड़ लिए और कहने लगी, “माँ मुझे बचपन से ही ईसा की दया बहुत लुभाती रही है। अब उसकी इच्छा और कृपा से मैं यहाँ आ पहुँची हूँ और चाहती हूँ कि आप मुझे उनकी सेवा करने का मौक़ा दें। मैं चर्च की सारी साफ़-सफ़ाई के अलावा खाना पकाने का काम भी करूँगी। मैं दिन में अठारह-बीस घंटे काम कर सकती हूँ। आप मुझे एक अवसर दीजिए; मैं ग़रीबनी और दुखियारी हूँ; मेरी रक्षा कीजिए। अगर आपको ज़रूरत हो तो ये जीजी मेरी ‘गारंटी’ ले लेंगी।”

मेरी क्या मजाल जो मैं ज़ोर से ‘हाँ’ में सिर न हिलाती। 

मैंने गहरी नज़रों से लक्ष्मी को घूरा; जिनमें यह भाव छिपा था कि “बच्चियों का क्या होगा?” उसने मेरी उस ‘देखी’ को अनदेखी कर मेरा हाथ इस तरह दबाया कि उसने उसके सारे मनोभाव कह दिए—यथा; “थोड़ा सब्र रखिए; देखती जाइए, क्रमश: ये सारे मोहरे खानों में बैठ जाएँगे। अभी आप शान्ति रखिए और कोई लोभ मत दिखाइए।”

शायद मेरा चेहरा लक्ष्मी की इस उपलब्धि और चतुराई भरी समझ से चमक रहा था; इसलिए जब मैं गाड़ी के पास लौटी, तो सारे साथी मुस्कुराते हुए हल्के हाथों से ताली बजाने लगे। कुछ क्षणों के बाद भीतर रुकी लक्ष्मी भी लौट आई और बोली, “मैंने माँ से कह दिया है कि कल मैं अपना सामान लेकर आ जाऊँगी।”

कुछ दिनों बाद लक्ष्मी का फोन आया कि वे सब ख़ूब आनंद से हैं और उसे गले की डोर में क्रॉस के साथ हनुमान जी की मूर्त्ति लटकाने की अनुमति भी मिल गई है। उसके बाद उसने जो कहा वह बेहद चौंकाने वाला था। 

“दीदी! सच मानिए, इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है कि मैं क्रॉस पहनूँ या हनुमानजी? क्या अपने-अपने गोरखधंधों में फँसे हम (?) कभी भी? किसी भी क्षण? सही मन से भगवान को याद करते हैं? . . . क्या सिवाय विवाद के हमारे जीवन में भगवान की कोई पूछ है? मुझसे कोई बर्तन टूट जाता है, तो मैं कह बैठती हूँ; हे भगवान! बचाना मुझे! . . . जैसे कि भगवान कोई कुम्हार है (?), जो इसे जोड़ देगा (?) क्या हम सब उसको सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने मतलब के लिए ही नहीं पुकारते?? ऐसे में क्या अर्थ है इस बात का कि “मैं लक्ष्मी शर्मा हूँ या लक्ष्मी ब्रिगेंज़ा, या कि लक्ष्मी परेरा? या कि मैं ब्राह्मण हूँ या ईसाई?? 

“मुझे जीवन जीना है; आगे बढ़ना है; और इन बेटियों को भी आगे बढ़ाना है। इस यात्रा में धर्म, समाज और संस्कार आदि शब्द मेरे लिए रास्ते के पत्थर मात्र हैं; जिन्हें जब जिसका मन होता है, हाथ में उठा कर मेरे सिर पर दे मारता है। आख़िर इन मान्यताओं और इन तथाकथित संस्कारों ने मुझे दिया क्या है? . . . भूख; लाचारी; बेबसी और दर्द!! जीजी! बच्चों को भूख से तड़पते देखने का दर्द कैसा होता है, यह आप नहीं समझेंगी—और मैं बयान भी नहीं करूँगी क्योंकि उसका सुनना मात्र ही आप जैसे भले आदमी को अधमरा कर देगा। 

“जीजी! मेरी नास्तिकता को माफ़ी दे दीजिएगा; क्योंकि युग के साथ मनुष्य ही नहीं, धर्म और भगवान भी बदलते हैं; और इस बदलाव को स्वीकार करते हुए ही मुझे आगे जाना है। पगडंडी आपने पकड़ा दी है, अब राजमार्ग मैं ख़ुद ढूँढ़ लूँगी। और यक़ीन मानिए मेरा कि मेरे भविष्य में मुझसे मिल कर आप शर्मिन्दगी नहीं फ़ख़्र महसूस करेंगी। आशीर्वाद दीजिए कि मैं अपनी दृढ़ता और संकल्प-निष्ठा पर अटल रहूँ; कभी कोई विचलन मुझे भटका नहीं पाए; और मैं अपने सही मार्ग पर आगे बढ़ती रहूँ! आशीष दीजिए जीजी; आशीष दीजिए!! . . .”

मेरे कंठ में उसी क्षण से ये शब्द घूम रहे हैं:

“लक्ष्मी तुम सारे आशीषों से ऊपर हो . . . 
“ये शब्द तो तुममें अपना अर्थ खोजेंगे; क्योंकि तुम इनकी स्रष्टा हो; अब तुम्हें आगे बढ़ने से कौन रोक सकता है?? यशस्वी भवः!!” 

पुनश्चः आज सालों बाद सुघड़ लिखाई में एक पत्र आया है। नाम देखकर यक़ीन नहीं हुआ कि ये लक्ष्मी के हुरुफ़ हैं। वैसे उसने फोन पर संक्षेप में बताया था कि अब वह कॉन्वेन्ट में पक्की नौकरी कर रही है। और लड़कियाँ भी ख़ूब अच्छी तरह बड़ी हो रही हैं। उसका ख़त यूँ है:

पू. जीजी, 

सादर प्रणाम! 

देखते-ही-देखते पत्थर-से भारी दिन पंख लगाकर उड़ने लगे और सालों में बदल गए। आपकी ॠणी हूँ आदि; कहकर आपके योगदान को छोटा नहीं करूँगी। उसे शब्दहीन ही रहने दूँगी। दीदी! आपको जानकर अच्छा लगेगा कि अंजली ने १२वीं की परीक्षा बहुत ही ऊँचे नम्बरों में पास कर ली है और साथ ही उसने ‘सैट’ में इतने बेहतरीन मार्क्स पाए हैं कि विदेश की एक यूनिवर्सिटी; उसे पूरी छात्रवृत्ति देकर अपने ख़र्च पर बुलाने को तैयार है। हालाँकि उसकी इच्छा यहीं रहकर डाक्टरी पढ़ने की है, पर उसने यह भी सोच रखा है कि यहाँ ख़र्च का इंतज़ाम न होने पर वह वहाँ चली जाएगी। मँझली बेटी अन्तरा–दसवीं में अत्यधिक अच्छे नम्बर लाई है, और एक बड़ी कम्पनी उसकी आगे की पढ़ाई का पूरा ख़र्चा देने को तैयार है। सबसे छोटी; अपूर्वा! कभी दूसरे नम्बर पर नहीं आती और इस वर्ष वह ९वीं में आ गई है। 

कॉन्वेन्ट की मदर और सिस्टर्स इन तीनों को अत्यधिक प्यार करती हैं, लेकिन १२वीं के बाद यहाँ पढ़ाई का इंतज़ाम नहीं है। वैसे उन लोगों ने भरोसा दिया है कि यदि इनकी पढ़ाई कहीं भी अटकेगी, तो वे सब अपने सम्पर्कों से यथासम्भव सहायता दिलवाएँगी। वैसे शायद प्रभु कृपा से यह नौबत नहीं आए। 

शेष शुभ . . . आप अपना ख़्याल रखिएगा! 
आपकी ही
लक्ष्मी

मेरा जवाब था:

‘प्रिय लक्ष्मी ॠर्द्धि-सिर्द्धि सरस्वतीसः श्रीः’

‘श्री’ में अर्थात् लक्ष्मी में ॠद्धि-सिद्धि-सरस्वती सब समाहित हैं—ऐसा हम वैष्णवों का मानना है। जिसे तुमने आज सिद्ध करके दिखा दिया। 

धन्य हो तुम! और धन्य है यह धरती जहाँ तुम-सी बेटियाँ जन्म लेती हैं और निरन्तर संघर्ष करते हुए बिना हार माने सर्वोच्च शिखर पर अपने परिश्रम का झण्डा फहराती हैं। जो मात्र सपना ही नहीं देखतीं उसे सच्चाई और यथार्थ में परिणत करने का माद्दा रखती हुईं अपने नाम को सार्थक करती हैं। 
सदा सुखी रहो
तुम्हारी दीदी
सुमन
 

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