अनुगूँज ज़िन्दगी की

01-08-2022

अनुगूँज ज़िन्दगी की

डॉ. कुसुम खेमानी (अंक: 210, अगस्त प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

‘रुम्पा भाग गई!’ यह वाक्य पूरे ब्रह्माण्ड में गूँज रहा था और सुचित्रा का निढाल हाथ पकड़े सावित्री देवी सोच रही थीं कि कल की-सी तो बात है, जब वे और सुचित्रा . . . 

पल भर में ही वे स्मृतियों के आकाश में उड़ चलीं और घटनाओं के सिलसिलेवार चित्र किसी जादुई डिब्बे से बाहर निकलकर, उनके सामने तैरने लगे। 

“शुचित्रा, तोमारा लेड़की रुम्पा को देखने से हमको अयसा लोगता है, मानो बेला-जूही के फूलों से भोरा डाल लचक रहा हो! आहा कितना प्यारा! कितना सुन्दर है रुम्पा!”

“सावित्री, तुमसे सौओं बार कहा है कि तुम मुझसे साफ़ हिन्दी में बात किया करो, क्योंकि मैं लखनऊ की बंगाली हूँ, पर तुम्हें याद ही नहीं रहता। तुम्हें सही बाँग्ला तो आती नहीं, इसलिए तुम हिन्दी को बिगाड़ कर उसे बाँग्ला का चोग़ा पहना देती हो, जिससे मेरी हिन्दी भी बिगड़ जाती है। ओ हो सॉरी! तुम्हें बीच में ही टोक दिया। हाँ, तो कहो। तुम रुम्पा के बारे में क्या कह रही थी?”

“बस कुछ ख़ास नहीं, इतना ही कि तुम्हारी रुम्पा लाखों में एक है। गोरी-चिट्टी न सही, पर उसके गेहुँए रंग में जो नमकीन लुनाई है, वह अद्भुत है। उसके नाक-नक्श भी बहुत ही सुघड़ हैं, पर पता नहीं क्यों इन सबको तीखे कहने का मन नहीं करता। शायद इसकी वजह रुम्पा की खड़ी नाक, बड़ी-बड़ी खिंची हुई आँखें, वह रेशम-सी कोमलता है कि जिसके लिए ‘तीखे’ की उपमा भी देना बहुत तीखा लगता है। सच सुचित्रा! रुम्पा इतनी प्यारी बच्ची है कि मुझे सदा उसके नज़र लगने का डर लगा रहता है। हे भगवान! उसकी रक्षा करना,” हरियाणवी सावित्री देवी ने यह बात पूरी आँखों से आकाश को देखते हुए ऐसे कही, मानो वे भगवान को उसकी ज़िम्मेदारी सँभलवा रही हों। 

सुचित्रा और सावित्री देवी न केवल तीस वर्षों से पड़ोसन थीं, बल्कि सगी बहनों से भी ज़्यादा एक-दूसरे पर जान देती थीं। इन दोनों की यह असम्भव-सी दोस्ती पूरे मुहल्ले में ही नहीं, दोनों ओर के रिश्तेदारों तक में ख्यात थी। दोनों परिवारों के रहन-सहन का स्तर बहुत हद तक यकसाँ था और दोनों ही परिवार किसी भी प्रकार की तड़क-भड़क और आडम्बर के सख़्त ख़िलाफ़ थे, फिर वे चाहे धर्म के नाम पर किए जाने वाले कर्मकाण्ड ही क्यों न हों! इन परिवारों की दोनों ‘धिरानियों’ की तरह ही इनके घरों में देवी सरस्वती और देवी लक्ष्मी दो विपरीत पालों में नहीं, बल्कि एक-दूसरी की सहधर्मिणी बनी हुई वास करती थीं अर्थात्‌ इनके यहाँ समृद्धि के साथ-साथ विद्या, संस्कृति और साहित्य भी श्रेष्ठ स्थिति में विद्यमान थे। 

ये दोनों परिवार एकदम समदृश्य जुड़वाँ भाई-बहनों-से थे। आम तौर पर बहिरंग का साम्य तो फिर भी सम्भव हो जाता है, पर आश्‍चर्यजनक ढंग से इन लोगों का अन्तरंग भी एक-सी विचारणा से रचा-बुना हुआ था। इनके दैनन्दिन क्रियाकलाप में दर्शन की आधुनिक परिभाषाओं का व्यावहारिक प्रयोग चौंकाने वाला था। कोई भी गहन-गम्भीर चर्चा होने पर अक़्सर पाया जाता था कि ये लोग एक-सी बोली बोल रहे हैं और एक-सा सोच रहे हैं। मसलन, ये परिवार आधुनिकता को उच्छृंखलता नहीं, परिपक्व स्वच्छन्दता मानते थे, और ज़मीन-जायदाद में ही नहीं, व्यापार में भी बेटे-बेटियों को बराबरी का हिस्सा देते थे। पढ़ाई-लिखाई, घरेलू कामकाज आदि में भी इनके यहाँ लड़के-लड़कियों की समान भागीदारी होती थी। यहाँ तक कि यदि लड़की खाना पकाएगी, तो उसके भाई को भी उसका साथ देना होगा। इस जैसी कई मान्यताएँ इन लोगों की दैनिक दिनचर्या में शामिल थीं। 

रुम्पा और मैं अर्थात्‌ अलका इन्हीं परिवारों की लड़कियाँ थीं। रुम्पा अकेली थी, और मेरे ऊपर एक बहन और नीचे एक भाई था। कहना बेकार है कि मेरा भाई और दीदी उसकी दीदी और भाई ज़्यादा थे, मेरे कम। हमारे घर में भी चौबीसों घंटे रुम्पा-जाप चलता रहता और उस घर में मेरी भी थोड़ी-बहुत बड़ाई होती रहती थी। मैं और रुम्पा दो दिन की ‘छोट-बड़’ थीं, इसलिए हमारी माँओं ने हमारी परवरिश भी जुड़वाँ बहनों की तरह ही की थी। यदि कोई ख़ुर्दबीन लेकर भी खोजता, तो उसे इन परिवारों में एक भी चीज़ ऐसी न मिलती, जो अकेली हो। यहाँ तक कि उपहार देने वाले भी इनके यहाँ जुड़वाँ चीज़ें ही देते थे, अन्यथा वे जानते थे कि उनका उपहार किसी और को दे दिया जाएगा। जैसा कि आम तौर पर इन हरक़तों का नतीजा होता है, मैं और रुम्पा भी माँ और सुचित्रा मासी का आधुनिक संस्करणी इतिहास दोहराते हुए एक-दूसरे पर जान छिड़कने लगे थे। 

अनवधान में ही पता नहीं कब हम कक्षा पहली-दूसरी से कूदते हुए एम.ए. की कक्षाओं में बैठने लगे थे। लोकोक्ति है कि ‘जवानी में तो गधी भी परी लगती है’, यहाँ तो परी-सी रुम्पा थी उसका यौवन किसी भी रम्भा, उर्वशी और मेनका को मात क्यों न देता? 

माँ ने तो जनमते ही उसका नाम ‘फूलों की डाल’ रख दिया था। अब जब, कामदेव की प्रिय ऋतु वसन्त उस फूलों भरी डाल के सारे फूलों को खिलाकर, यौवन के भार से उसे लचका रहा हो, तो यूनिवर्सिटी के ढेरों-ढेर लड़के उस पर भ्रमर की तरह क्यों न मँडराते? पर बचपने की सादगी से भरी बिंदास रुम्पा इन सारे लटके-झटकों से बेपरवाह अपनी नागिन-सी लम्बी चोटी को ऐसे झटक कर चलती मानो यह इंगित कर रही हो कि यदि कोई उसके पास आने की ज़ुर्रत करेगा, तो वह उसे तुरन्त डँस लेगी। 

सर्वगुण सम्पन्न! अद्वितीय सुन्दरी! अच्छे घर-घराने की ऐसी अद्भुत लड़की को भला कौन अपने परिवार की लक्ष्मी बनाना नहीं चाहेगा? धनाढ्य बंगाली ख़ानदान ही नहीं, यू.पी. और मारवाड़ी परिवार भी अक़्सर चर्चा में मुब्तिला रहते कि ‘आख़िर है तो ख़ानदानी ब्राह्मण परिवार की, और ऊपर से हिन्दी एम.ए. में फ़र्स्ट क्लास। इससे साफ़ ज़ाहिर है कि उसकी मानसिकता हम लोगों जैसी ही है। फिर वैसे भी आजकल बंगाली, मारवाड़ी और ‘यूपीआइट’ में भेद ही कहाँ रहा है।’ आदि प्रश्‍नोत्तर के साथ वे स्वयं ही इस बहस का समापन कर देते। 
यह तथ्य विस्मित कर देने वाला था कि कई एक महापुरातनपन्थी परिवार भी रुम्पा के लिए सारे समझौते करने को तैयार थे और फिर उन्हें ग़लत कैसे कहा जाए? आख़िर रुम्पा ऐसी ही अतुलनीय थी, जिसकी तुलना केवल उसी से हो सकती थी। 

अचानक एक दिन रुम्पा ने कहा: “अलका, मैंने निर्णय कर लिया है कि मैं पीएच.डी. का फ़ालतू बोझ नहीं ढोऊँगी! और फ़ैशन डिज़ाइनिंग का कोर्स करूँगी।” रुम्पा की इस बात से मुझे ख़ास आश्‍चर्य नहीं हुआ, क्योंकि इन दिनों रुम्पा में एक विचित्र तरह का परिवर्तन दिखाई दे रहा था। जैसे उचाट और बेस्वाद मन को परिभाषित नहीं किया जा सकता, वैसे ही रुम्पा के व्यवहार को कोई सटीक नाम देना सम्भव नहीं था। वह अनमनी-सी, न कटु, न मीठी, एकदम निस्संग इधर से उधर घूमती रहती। उसके रंग-ढंग देखकर मुझे बहुत ही शिद्दत से महसूस हो रहा था कि मुझसे अपनी हर साँस तक का साझा करने वाली रुम्पा आजकल मुझसे जो औपचारिक बातें कर रही है, ज़रूर उनके पीछे कोई राज़ छिपा हुआ है। 

अन्त में मुझसे रहा नहीं गया और एक दिन अकेले में मैंने उसकी कलाई ज़ोर से पकड़ कर, उसकी आँखों में झाँकते हुए बहुत ही अपनापन से पूछ बैठी: “रुम्पा! सच बताओ, आख़िर माजरा क्या है?” तो क्षण भर भी चुप न रहने वाली रुम्पा सहम कर एकदम मौन हो गई और जो कुछ बोली उसे सुनते ही एक चीख़ के साथ ये शब्द मेरे मुँह से निकले: “हे भगवान! रुम्पा मत मारी गई है तुम्हारी जो तुमने उस कुंजड़े के लड़के प्रदीप को चुना? ठीक सही कि अपन लोग जात-पाँत नहीं मानते और वह तुम्हें हमेशा से ही ललचाई आँखों से देखता रहता है, पर ऐसे तो सैकड़ों ‘फिज्जुले’ तुम्हारे इर्द-गिर्द चक्कर काटते ही रहते हैं, तो क्या तुम्हारा इरादा सबको वरमाला पहनाने का है? रुम्पा, मुझे पक्का यक़ीन है कि उसने हिन्दी एम.ए. में भी, तुम्हें फाँसने के लिए ही प्रवेश लिया था, ताकि तुम्हारे इर्द-गिर्द बना रह कर तुम सरीखी इन्टेलिजेन्ट, पर सरल-शरीफ़ लड़की को अपने जाल में फाँस ले। 

“तुम्हें याद नहीं, हमारे सबसे प्रिय शिक्षक शास्त्री सर कहा करते थे कि यहाँ लड़के पढ़ने नहीं, मस्ती करने के लिए आते हैं। इतनी कम फ़ीस में किसी क्लब का सदस्य बन पाना तो नामुमकिन है, इसलिए ये लोग यहाँ कम पैसों में उपलब्ध चाय-समोसा खाते हुए, अपना सारा दिन लफंदरपना करते हुए गुज़ार देते हैं। सरकारी नियम के तहत फ़ेल करने की मुमानियत होने से ये लड़के जैसे-तैसे डिग्री ले ही लेते हैं। 

“रुम्पा! शास्त्री सर की बात से पूरी तरह सहमत होने के साथ-साथ मैं उसमें यह भी जोड़ना चाहूँगी कि यदि इन लोगों के सौभाग्य से कोई बेवकूफ़ गुणवती मछली इनकी बंसी में फँस जाए, तो इनके तो पौ बारह हो जाते हैं। 

“रुम्पा! हो सकता है इस डिग्री से मौसा जी और सुचित्रा मासी के सामने इसके कम पढ़े-लिखे होने की बात ख़त्म हो जाए, पर कुछ तो सोचो, कहाँ अपन लोग और कहाँ वे लोग! तुम्हें दूर-दराज़ तक भी कोई मेल नज़र आता है? किसी को जीवन साथी चुनने में बात केवल रुपए-पैसे तक ही सीमित नहीं होती, क्योंकि किसी भी व्यक्ति के चरित्र की बुनावट में परिवेश और परवरिश की उसके धन से भी ज़्यादा अहम भूमिका होती है। रुम्पा! तुम्हारी बात सुनकर मेरा तो सिर घूम रहा है। और मैं अकेले इस राज़ को सह पाने में असमर्थ हूँ, इसलिए मैं अभी जाकर मौसा जी और मासी माँ को सारा क़िस्सा बताती हूँ।”

यह सुनते ही रुम्पा हिलक-हिलक कर रोती हुई मुझसे ऐसी चिपकी कि उससे जान छुड़ाना मुश्किल हो गया। उसका काया-फोड़ कलप कर रोना देख मेरा कठोर मन भी द्रवित होकर, आँखों से बड़े-बड़े आँसू टपकाने लगा और उसकी पीठ पर अपना सांत्वना भरा हाथ फेरती हुई मैं कहने लगी: “ठीक है, कोई बात नहीं। पर वादा करो कि तुम उस प्रदीप नाम के पंछी को कभी भी अपने आस-पास पर नहीं मारने दोगी, मंज़ूर है?”

मेरी बात के समर्थन में तेज़ी से अपनी गरदन को हामी में ऊपर-नीचे करती हुई रुम्पा जल्दी से मेरे और ख़ुद के आँसुओं को सुबकती हुई अपने दुपट्टे से पोंछने लगी। 

लगा कि रुम्पा अपने वचन पर क़ायम है; क्योंकि उन दिनों उसने अपनी चौबीसों घंटों वाली मुस्कुराहट का विनिमय उदासी और गंभीरता से कर लिया था। उसके ये रंग-ढंग देखकर भी मैंने न तो उसकी कोई मान-मनौवल की और न ही मनुहार भरे लाड़-प्यार से उसे पुचकारा, जिसके कारण अजाने ही हम दोनों के बीच, अनावधान की एक ‘अदृश्य दीवार’ खड़ी हो गई। 

सुचित्रा मासी और माँ ने हमें संदिग्ध नज़रों से देखते हुए कई तरह से घुमा-फिरा कर हमारा भेद लेने की कोशिश भी की, पर वे दोनों ही इसमें पूरी तरह नाकाम रहीं। 

इन दिनों रुम्पा के चारों ओर मैंने अपनी कड़ी निगरानी का अलक्षित वृत्त खींच रखा था। अब उसके क्रिया-कलाप से क्रमशः मुझे विश्‍वास हो चला था कि रुम्पा ने ग़लत की जगह सही रास्ता चुन लिया है। आजकल वह कभी-कभार मुस्कुराती हुई भी देखी जाने लगी थी और अपनी कक्षाओं में भी बिना ग़ैरहाज़िरी के नियमपूर्वक उपस्थित होती थी। इन सब कारणों के प्रतिफलनस्वरूप अनायास ही हमारे संबंधों के बीच की सख़्त बर्फ़ पिघलने लगी और दूरी की उस अदृश्य दीवार का वुजूद भी बिला गया। 

रुम्पा ने जब फ़ैशन डिज़ाइनिंग में टॉप किया, तब तो मुझे पक्का विश्‍वास हो गया कि हो न हो वह पूरी तरह सुधर गई है। 

पर कच्ची उम्र का तक़ाज़ा और कपटी पुरुष का छल-इसकी थाह कहाँ? सो एक दिन अपने प्रेम को शाश्‍वतता का दर्जा देते हुए, वह भोली और भावुक रुम्पा प्रदीप-रूपी ‘आग का दरिया’ में आँखें मूँद कर कूद गई। 

न स्टेशन पर, न एयरपोर्ट पर, न रिश्तेदारों के यहाँ, न प्रदीप की चाल में। उसका कहीं भी, कोई भी अता-पता न था। पुलिस ने प्रदीप के माँ-बाप को काफ़ी डराया-धमकाया भी। पर वे ऐसे चुप रहे मानो उन्हें साँप सूँघ गया हो। 

उस दिन रात भर रोना-धोना चलता रहा और मित्रों, रिश्तेदारों से भरे हॉल में तरह-तरह के क़यासों के बीच जब यह प्रश्‍न पूछा जाने लगा कि परीक्षा में प्रथम आने के बावजूद रुम्पा ने आत्महत्या क्यों की, तो मुझसे रहा नहीं गया और ग्लानि-बोध के दबाव में मैंने उसकी प्रेम कहानी का पर्दाफ़ाश कर दिया। 

इस ख़बर से वहाँ भूचाल तो आया, पर किसी को भी, किसी एक को भी मेरी बात की सत्यता पर विश्‍वास नहीं हुआ। यहाँ तक कि भावातिरेक में भास्कर मौसा जी ने मुझे यह उलाहना दे दिया कि यदि ऐसी ही बात थी, तो वे रुम्पा की मर्ज़ी के मद्देनज़र प्रदीप को सहर्ष अपना जँवाई स्वीकार कर लेते। 

ऐसे ग़मगीन माहौल में खाना-पीना तो दूर, शायद किसी ने पानी तक नहीं पिया था कि सुबह के दस बजते न बजते डाकिए ने एक रजिस्टर्ड लिफ़ाफ़ा लाकर भास्कर मौसा जी के हाथ में रख दिया, जिसमें रुम्पा की रजिस्टर्ड मैरिज का सर्टिफ़िकेट था। 

उस भयानक सदमे ने सुचित्रा मौसी के हाई ब्लड प्रेशर को उनके दिमाग़ में पहुँचा दिया, जिसके फलस्वरूप वे खड़ी की खड़ी ऐसी गिरीं कि फिर कभी न उठीं और ढेरों आपातकालीन इलाज के बावजूद उनकी आँखें आकाश में ही टँकी रह गईं। 

मैंने प्रदीप के घर जाकर उसके माँ-बाप के पैरों पर अपना सिर रख कर उन्हें पूरी घटना बताने के बाद कहा: “मौसा जी ने कहलाया है कि वे लोग प्रदीप-रुम्पा को पूरी तरह स्वीकार करने को तैयार हैं। कृपया आप लोग उनसे जल्द से जल्द मरणासन्न मौसी जी के पास पहुँचने को कहिए।”

“माँ! माँ गो!” का स्वर जैसे ही हवा में गूँजा, सुचित्रा मौसी की आँखों ने आकाश से नीचे उतर कर दरवाज़े पर खड़ी रुम्पा को आँख-भर देखा और तत्क्षण ही उनकी गर्दन एक ओर लुढ़क गई। उनसे सट कर उनकी हथेली पकड़े बैठी सावित्री माँ ने एक बार तो मारे ग़ुस्से के, पलंग की ओर आती हुई रुम्पा को परे झटक दिया, पर दूसरे ही क्षण वे उसे ख़ुद से चिपका कर ऐसा फूट-फूट कर रोईं कि सारे उपस्थित लोगबाग अपने आँसू और ताज़ा ग़मी को भूलकर उन्हें ही समझाने में लग गए। 

रुम्पा की स्थिति तो कौन कहे! एक तो फूल की छड़ी भी न छुआने वाली माँ का बिछोह, दूसरे उसकी मृत्यु के कारण, उपजा ग्लानि-बोध उसे न जीने दे रहा था, न मरने। पर भास्कर मौसा जी की शंकर भगवान जैसी औढर दानशीलता और विष्णु-सी क्षमाशील भलमनसाहत ने न केवल उसे क्षमा कर गले से लगा लिया, बल्कि प्रदीप को भी सादर अपने घर में रहने का न्यौता दे दिया। 

कुछ दिनों बाद भास्कर मौसा जी ने अपनी तीन-चार बढ़िया दुकानें ख़ाली करवा कर रुम्पा के लिए एक आलीशान डिज़ायनर शोरूम खुलवा दिया। कम समय में ही प्रतिभा सम्पन्न रुम्पा ने ऐसा नाम कमाया कि दिल्ली, बम्बई तो क्या, मिलान और पेरिस भी उसे अपने फ़ैशन शो में ख़ास तरज़ीह देने लगे। उसकी प्रसिद्धि से जहाँ एक पुरुष-उसके पिता-अत्यन्त प्रसन्न थे, तो दूसरा पुरुष-उसका पति, अत्यन्त दुःखी था। उसे करने-धरने को तो कुछ था नहीं; न ही कोई नौकरी और न ही कोई पैतृक व्यवसाय। सो वह बैठे-ठाले सिवा इसके कि चौबीसों घंटे रुम्पा में ऐब-जोई कर मीनमेख निकालता रहे, भला अपना समय कैसे बिताता? रुम्पा की लाख कोशिशों के बावजूद वह उसके स्टोर में बैठने को तैयार नहीं था। रुम्पा उससे कहती भी: “प्रदीप! तुम तो मालिक हो। देखो, मैंने तुम्हारे लिए कितनी शानदार कुर्सी बनवाई है, प्लीज़! यहाँ रहा करो। तुम्हारी मौजूदगी से मुझे बहुत सहारा रहेगा। मैं हिसाब के मामले में कच्ची हूँ, इसलिए तुम रुपया-पैसा भी अच्छी तरह सँभाल लोगे। प्लीज़ प्रदीप, तुम अपने नाम के इस ए.सी. चेम्बर को अपनी उपस्थिति से सुशोभित करो ना प्लीज़!”। पर उसका हिमालय-सा अहंकार! उसे किसी भी हालत में इस स्थिति को स्वीकार करना तो दूर, रुम्पा की चिरौरी से और भी बड़ा हो जाता था। 

अब ख़ाली बैठा एक स्वस्थ जवान आदमी, सिवा बदगुमानियों के और कर भी क्या सकता? पहले तो उसने रुम्पा को फ़ैशन शो के लिए विदेश जाने से मना कर दिया और बेवकूफ़ रुम्पा ने इसे भी उसके लगाव के खाते में डाल कर स्वीकार कर लिया। फिर उसने उस पर यह लांछन लगाकर कि वह अपने बड़े ग्राहकों से ग़लत सम्बन्ध रखती है, उसे मारना-पीटना शुरू कर दिया। शराब के नशे में धुत्त वह सारी रात, असुर बना हुआ विचित्र प्रकार के कांड करता रहता और सुबह उठकर देवताओं की तरह रुम्पा के पैर पकड़ कर इस-इस तरह से माफ़ी माँगता कि रामायण-महाभारत सरीखे महाकाव्य भी फीके पड़ जाएँ। आश्‍चर्यजनक ढंग से प्रेम में अंधी रुम्पा की आँखें अभी भी बन्द ही थीं, और वह उसकी इन सारी बदतमीज़ियों को उसके लालन-पालन का दोष मानकर, उसे पूरी तरह माफ़ करती रहती थी। 

एक बार मैंने रुम्पा से हम लोगों से एक साल सीनियर माधुरी का हवाला देकर कहा भी: “मुझे तो तुम्हारा पूरा क़िस्सा उसी का पुन: प्रदर्शन (रिप्ले) लगता है, फ़र्क़ इतना ही है कि प्रदीप ने अभी तक तुम्हें जलाकर मारा नहीं है।” यह उद्गार सुनते ही, उसने हमारी सदियों पुरानी दोस्ती को तिलांजलि देकर मुझसे अबोला कर लिया, पर सम्बन्ध क्या कच्चा धागा होते हैं, जो सहज ही टूट जाएँ? इसलिए मुँह सिले होने के बावजूद हम दोनों भीतर ही भीतर एक-दूसरे की पूरी खोज-ख़बर रखते थे। 

यथासमय मैंने एक बेटी और रुम्पा ने एक बेटे को जन्म दिया। रुम्पा का बेटा क्या था, बस सोलह कलाओं से पूर्ण चन्द्र और कामदेव का प्रतिरूप था। भास्कर मौसा जी ने उसके रूप के अनुरूप ही उसका नाम रखा कार्तिकेय और रुम्पा के विवाह द्वारा क्षत-विक्षत हुए उनके हृदय को उसकी नन्ही मुस्कुराहट के ‘चेप’ ने एकदम मज़बूती से भर दिया। 

पर प्रदीप अब भी कोई न कोई नया शिगूफ़ा छोड़ने से बाज़ न आता। एक बार वह इस ज़िद पर अड़ गया कि वह घर जमाई की तरह नहीं रहेगा, इसलिए यह मकान उसके नाम होना चाहिए। भास्कर मौसा जी के यह बताने पर कि यह मकान उनकी पत्नी सुचित्रा अपने नाती-नातिनों के नाम कर गई है, वह क्रोध से आग बबूला हो गया और उसने रुम्पा को इतने शातिरपन से मारना-पीटना शुरू किया कि खोजने पर किसी को कोई निशान न मिले। रुम्पा को क्रूरतम तरीक़े से सताने के लिए उसने रुम्पा के घर से सटी हुई एक कोठरी किराए पर ले ली, और आधी रात को रुम्पा के पास से बच्चे को ज़बर्दस्ती छीन कर अपनी कोठरी में उठा ले जाता। इस पुरुष-प्रदत्त भितरघात के दर्द से रुम्पा छटपटाती रहे, इसलिए वह ऐसी जगह पर चोट करता था कि रुम्पा मारे शर्म के किसी को कुछ नहीं बताती, नतीजन उसका ‘हियाव’ बढ़ता जाता। तलाक़ की असंभव शर्तों पर रुम्पा हमेशा कच्ची पड़ जाती। भयभीत रुम्पा की सारी दिनचर्या शतरंजी बिसात के पील चक्कर-सी प्रदीप के चारों ओर घूमती रहती और प्रदीप जी लाट साहब की तरह मेज़ पर पैर धरे सिगरेट फूँकते हुए विलायती शराब पीते रहते। बेटे की ब्लैक मेलिंग के एवज़ में वे नरश्रेष्ठ रुम्पा से अनाप-शनाप रुपए ऐंठते ही रहते थे। 

एक बार प्रदीप ने बहुत ही चालाकी से रुम्पा को जलाने की कोशिश की, पर पुराने नौकरों की सतर्कता ने उसे बचा लिया। इस घटना के बाद सावित्री माँ ने उसे बहुत समझाया कि वह अपने कमरों में सीसीटीवी कैमरे लगवा ले, और जब प्रदीप मारे-पीटे, तो उसे थोड़ा-सा उकसा कर उसके अत्याचारों की रिकॉर्डिंग हो जानेे दे। पर वह युधिष्ठिर की औलाद और पुराने ज़माने की लैला ऐसा करने को तैयार नहीं हुई। 

तभी अचानक एक दिन . . . पूरे मुहल्ले ने देखा कि पुलिस प्रदीप को हथकड़ी डाले घसीटते हुए अपनी गाड़ी में ठूँस कर ले जा रही है। ख़बर पाते ही जब रुम्पा दौड़ती-सी वहाँ आई, तब तक उसकी हरियाणवी मासी ने वहाँ आकर प्रदीप को एक ऐसा झन्नाटेदार थप्पड़ जड़ा कि उसका सिर एक ओर घूम गया। साथ ही उसे अपनी ठेठ घरेलू गालियों की बारिश से नहलाने के बाद वे रुम्पा को वहाँ से खींचती हुई अपने घर ले गईं। 

घर में घुसते ही, उन्होंने अपने कड़कदार लहज़े में रुम्पा को ‘दक्कालते’ हुए कहा: “रुम्पा! हमेशा याद रखना, तुम्हारी माँ सुचित्रा मरी नहीं है। वह आज भी मुझमें जीवित है। मैं कई दिनों से देख रही थी कि ‘मैं चुप रहूँगी क्योंकि पापा की इज़्ज़त का सवाल है’ आदि बेकार की बातों को आतिशी शीशे में बढ़ा-चढ़ा कर देखती हुई तुम सारे दुःखों को सहती जा रही थी। अरे बेवकूफ़! तुमने ज़रा-सा यह नहीं सोचा कि यदि तुम मर जातीं, तो तुम्हारे पापा की इज़्ज़त का क्या होता? अच्छा यह बता, क्या तूने एक बार भी अपने बेटे सोनू के भविष्य के बारे में सोचा है? रुम्पा! सच कहूँ, तुम्हें बेटी कहकर बुलाने में तो मुझे शर्म आती है। तुझ-सी पढ़ी-लिखी से तो मैं गँवार भली जो न केवल अपने घोंसले और बच्चों के अधिकारों के लिए सदा लड़ी, बल्कि और भी कइयों को सँभाल कर उन्हें अन्यायियों से बचाया। सच रुम्पा, मैं समझ नहीं पा रही हूँ कि आख़िर तुम लोग इतनी भीरु क्यों हो! क्यों तुम लोगों को ख़ुद पर ज़रा-सा भी भरोसा नहीं है! अरे डूब मरो, तुम लोग जो ज़िन्दगी से मुँह मोड़ कर आत्महत्या करने की सोचती हो!” कहकर सावित्री माँ ने एक लम्बा निःश्‍वास छोड़ा और उनकी आँखों में पानी तिर आया। 

किसी तरह ख़ुद को सँभालकर उन्होंने मद्धम स्वर में कहा: “बेटा! लजा दिया आज तुमने हमारे दूध को! हमने तो तुम लोगों को जीवन का अमृत-पान कराया था, पर पता नहीं, तुम लोगों ने कहाँ से मृत्यु का विष चख लिया!” इतना कहते न कहते वे कठोर, रूखी, सख़्त सावित्री माँ मुँह पर पल्ला डाल कर सुबकती हुई हिचकियों में बँध ऐसी रोईं कि रुम्पा, मैं, पापा, मौसा जी, दीदी आदि सब के सब उनसे चिपक कर उन्हें समझाने में लग गए। लेकिन उनके आँसुओं की उस नदी का बाँध टूट चुका था, जो सुचित्रा मौसी की मृत्यु के बाद से ही अपनी ज़दों को सँभाल नहीं पा रही थी। 

खोज-ख़बर लेने पर पता चला कि सावित्री माँ ने रुम्पा तक को बताए बिना, दो सीसीटीवी कैमरों को रुम्पा और प्रदीप के कमरों में छिपा कर फ़िट करवा दिया था और मास्टर स्क्रीन अपने कमरे में लगा लिया था। वे रोज़ की घटनाओं की एक सीडी अपने वकील भतीजे को और एक अपने ख़ास मित्र असिस्टेंट पुलिस कमिश्नर प्रेमेन्द्र मित्रा को भेज देती थीं। मोटी चादर ओढ़ाकर गला घोंटने की कोशिश करना . . . दीवार से सिर भिड़ाना . . . लंबे बालों को झटके मार-मार तोड़ना . . . गुप्तांगों पर प्रहार करना आदि अनेक नृशंस कारनामे उन कैमरों में क़ैद होते जाते थे, जिनके अनुसार कमिश्‍नर साहब दफ़ाएँ और भतीजा प्रद्युम्न केस के बिन्दु तैयार करता जाता था। 

सावित्री माँ ने इसे दुःखान्त नाटक होने से बचाने और इसका पटाक्षेप करने के लिए सही समय पर भास्कर मौसा जी और मुझसे दुरभिसंधि करके, एक दिन उन लोगों से सोनू को चुरवा लिया। 

घर लौटते ही सोनू को ढूँढ़ती हुई रुम्पा जब हमेशा की तरह प्रदीप के यहाँ पहुँची, तो प्रदीप ने एक रूटीन की तरह उसे मारना-पीटना शुरू कर दिया। रोज़-रोज़ की कलह से थकी और सोनू के खोने से घबराई हुई कमज़ोर रुम्पा ने जब उसे धमकाया कि वह आत्महत्या कर लेगी, तो उसका मख़ौल उड़ाते हुए वह नीच कहने लगा: “अरे तुम्हें आत्महत्या कहाँ करनी है? तुम तो बस यूँ ही गीदड़ भभकी देती रहती हो। मरने की गोलियाँ भी तुम जान-बूझ कर कम खाती हो। लगी हुई आग भी बुझवा लेती हो। रुम्पा, तुम्हें सिर्फ़ गरजना आता है, बरसना नहीं। अरे हटो परे! यदि तुम्हें मरना ही है, तो फाँसी लगाकर क्यों नहीं मर जाती? चलो, मैं तुम्हारी सहायता करता हूँ, देखो यह फँदा!” जब रुम्पा उसकी इस उक्ति को सुनकर विस्फारित आँखों से उसे घूरने लगी, तब वह सांत्वना भरे स्वर में बोला: “अरे! झूठ-मूठ ही सही! ज़रा एक बार इसे गले में डाल कर तो दिखाओ!” कहते हुए उसने वह रस्सी का फँदा पंखे से झुला दिया और कुर्सी को खींचकर उसके नीचे लाकर बोला: “हिम्मत है! तो चढ़ो इस पर!” आश्‍चर्यजनक ढंग से उसके भड़काने पर पागलों की-सी भंगिमा में रुम्पा उस कुर्सी पर जा खड़ी हुई। रुम्पा का कुर्सी पर खड़ा होना था कि नाटक के उस वीभत्स अंक में प्रद्युम्न (वकील) और प्रेमेन्द्र मित्रा (पुलिस कमिश्‍नर) ने एंट्री ले ली। 

चतुर-चालाक प्रदीप ने हकलाते हुए अपने बचाव में कुछ बकने की चेष्टा की, पर सिवा आँय-बाँय-साँय के उसके हलक़ से एक अक्षर भी न निकला। 

सावित्री माँ ने आज प्रदीप को ही नहीं, रुम्पा को भी एक करारा तमाचा जड़ते हुए कहा: “रुम्पा! भला नाम डुबोया तैंने मेरा। अरे बेटा, ऐसे कसाइयों को तो तड़पा-तड़पा कर मारना चाहिए, न कि इन क़मीनों के लिए अपनी जान दे देनी चाहिए? रुम्पा बेटा! इस शरीर को सँभाल कर रख, इसे अपनी और दूसरों की भलाई में लगा। आज से सोच लो कि तेरा वह पुराना चोला छूट गया है और अब इस नए चोले से तुझे अपना ही नहीं, पूरी दुनिया का कल्याण करना है। 

“बेटा! तुम लोगों के पास तो समय है, लक्ष्मी है, सरस्वती है और है प्रेम! बाँटो इन्हें उनमें जो दीन-हीन और अभागे हैं और जिन्हें इन सबकी बहुत ज़्यादा ज़रूरत है। आँखें खोलकर अपने चारों ओर देखो-कितनी बड़ी दुनिया तुम लोगों के स्नेह-कणों के लिए तरस रही है। बेटा! अपने अणु-अणु को विलीन कर दो दूसरों में और अनगिनत आत्माओं का उद्धार करो। 

“आओ उठो। नया सूर्य तुम लोगों को प्रकाशमय रास्ता दिखा रहा है। स्नान करके, नए वस्त्र धारण करो और सर्वव्रती हो जाओ। 

“अलका-रुम्पा! चलो दौड़ो और सदा याद रखो कि गति ही जीवन का मूल मंत्र है। आधि-व्याधि से डरना मत। चूँकि हम जीवित हैं, इसीलिए व्याधि है! क्या मृतक चाह कर भी बीमार पड़ सकते हैं? इसलिए हर घड़ी, हर पल स्वयं को स्वस्थ, नीरोग और तमाम सम्पदाओं से पूर्ण मानना। क्षण मात्र भी मन में यह कमज़ोरी मत लाना कि तुम कमज़ोर हो। 

“जीवन के शेर को नाथ कर दुर्गा की तरह उसकी सवारी करना और प्रदीप सरीखे असंख्य महिषासुरों का वध करती रहना। याद रखना, मैं और सुचित्रा सदा तुम लोगों के साथ हैं। तुम लोगों में समाहित हैं। सर्वदा सत्पथ पर रहना, क्योंकि तुम लोगों पर हमेशा हमारी निगहदारी रहेगी।”

सावित्री देवी के भावोद्गार देर तक रुम्पा के मन के पहाड़ों से टकराते रहे—‘कोई आवाज़ पहले गूँज बनती है, फिर अनुगूँज और हृदय की घाटियों में जा कर अमर हो जाती है।’

रुम्पा ख़ाली घर में आदमक़द आईने के सामने आ कर खड़ी हो गई। कितनी धूल जम गई थी काँच पर। उसने आँचल से उसे साफ़ किया। अपना चेहरा जैसे उसने आज पहली बार देखा। 
आज हवा में हर तरफ़ उसके ज़िन्दा रहने की गूँज है।!

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