एक बंदा रश्क़-ए-ख़ुदा

01-10-2022

एक बंदा रश्क़-ए-ख़ुदा

डॉ. कुसुम खेमानी (अंक: 214, अक्टूबर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

“अरुण! क्या ही लड़की है, यह अनन्या। जब से उससे मिली हूँ, बस उसी का चेहरा आँखों के सामने घूम रहा है। पता नहीं क्यों उसके लिए मन में एक खिंचाव-सा हो रहा है। लगता है, मैंने इससे मिलते-जुलते किसी चेहरे को ख़ूब देखा है, पर कुछ याद नहीं आ रहा है, और मन है कि किसी भूल-भुलैया के चक्कर काटे जा रहा है।”

“मंजुल! कल से देख रहा हूँ कि तुम बार-बार उसी लड़की का ज़िक्र कर रही हो। तुम इतनी बड़ी कम्पनी की एम.डी. हो और इसी शहर की निर्मिति होने के कारण तुम्हारा परिचय संसार भी बहुत बड़ा है। हो सकता है, उसी भीड़ में तुम उससे भी कभी टकराई हो।”

मेरे चेहरे की उलझन कम न होती देख कर अरुण ने सुझाव दिया. “मंजुल, भगवान ने जब तुम्हें फोटो-मेमरी से समृद्ध कर रखा है, तो तुम उसका दरवाज़ा क्यों नहीं खटखटातीं?” 

अरुण का कहना था कि मेरे सामने सिनेमा की तरह रील-पर-रील खुलने लगी, और समय ने अपना अग्रगामी रुख़ अतीत की ओर मोड़ कर मुझे पाँच दशक पहले की उस गली में पहुँचा दिया, जहाँ चाँपाकल (गंगाजल का चहबच्चा) की उलटी ओर स्थित, पँचतलिया मकान के पचास परिवारों में से ही एक नख़राला परिवार हमारा भी था। 

हरियाणवी, बीकानेरी, मेवाड़ी, शेखावाटी, हीरवाटी आदि राजस्थानी उपभाषाओं के लोगों से सजा-बजा यह मकान सर्वदा चहचहाता रहता था। इसके रहवासी साधारण आकांक्षाओं वाले मध्यवित्त गृहस्थ थे, और अपने सादेपन और सहजता में मगन रहते थे। यदि कोई परिवार अपने बरामदे में ऊपर टँकी चढ़ाकर स्वतंत्र स्नानागार की सृष्टि कर ले, या कोई सेकंड हैंड गाड़ी, फ्रिज़ या फ़ोन ले आए, तो किसी को ईर्ष्या नहीं होती थी। सब अपने-अपने तरीक़ों में ख़ुश थे, और सबके बीच सौहार्द था। 

रोज़ ढलती दोपहर को वहाँ की सारी गृहिणियाँ साड़ी के पल्लू से सिर ढँके आँगन में झाँकते गोल गलियारे में निकल आतीं और सारी बोलियों के मिश्रण से बनी राजस्थानी ‘क्रियोल’ (खिचड़ी भाषा) में गप्पें लगाने लगतीं। लेकिन मध्य दिसम्बर की एक दोपहर को इसमें एक ज़बर्दस्त व्यतिक्रम हुआ। उस दिन बच्चों और पतियों को स्कूल-ऑफ़िस भेजकर, जब वे सद्गृहिणियाँ अपनी कमर सीधी कर ही रही थीं कि सब की ‘सेनापतनी बोथरा मासी’ के ‘हेलो’ से पूरा मकान गूँजने लगा। ‘ओ जिठाणी जी! ऐ संतोषरी माँ! ऐ बिजयरी माँ! ऐ श्यामै री बींदणी!”, और इसी तरह अमुक की माँ और फलाँ की बींदणी की पुकार के प्रत्युत्तर में वह बरामदानुमा गलियारा मिनटों में ही पचहत्तर प्रतिशत भर गया। वैसे इनमें से अधिकांश चेहरों पर उत्सुकता कम और आराम में ख़लल पड़ने की झुँझलाहट ज़्यादा थी। कनपुरिया भालोटिया चाची ने तो नख़रे से नकियाते हुए कह भी दिया, “यँह मँकानँ हैं याँ सँब्ज़ीमंडी। मँजुल की माँ, आँखिर बाँत क्याँ हैं?” पर उनका प्रश्‍न अधर में ही लटकता रह गया, क्योंकि यह महिला दल ‘सेनापतनी जी’ से भयभीत भक्त दल था। 

औरतों का इतना बड़ा झुरमुट इकट्ठा हो और कोई झकझक न हो, यह कैसे सम्भव है? और आज तो ये सारी महिलाएँ सुबह से ही अपने ‘छुट्टे’ नौकरों को फ़ुसफ़ुसाते हुए सुन रही थीं: “अरे भाई! का बतावैं! घोर कलजुग आय गवा है, जानै केकरा पाप का पोटला, बीच रास्ते में खुल्ला पड़ा है!” उन लोगों ने नौकरों की यह बात उस वक़्त तो कान तले मार दी थी, पर अब वही बात वहाँ अतिरिक्त मिर्च-मसाले के साथ दुहराई जा रही थी। 
यदि पचास सिर हिलहिल कर एक साथ ज़ोरों से बात करें तो उसका ‘डेसीबल’ (ध्वनि-माप) कितना ऊँचा पहुँच जाएगा, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। इस बकबक को आसमान छूते देखकर, ‘बोथरा मासी’ की त्योरियाँ खिंच गयीं। उन्होंने जिस ‘तूफ़ान-सावधान’ वाली ‘हुंकार’ से सबका आह्वान किया था, वह महाभारत की तरह ही मूलकथा से ज़्यादा उपकथाओं के जंजाल में फँसने लगी थी। अपना प्रयास अकारथ जाते देख, उन्होंने अपने माथे पर दोहत्थड़ मार कर कहा, “माथो ख़राब हो म्हारो! जो था लोग्गाँ नै हेल्लो मार्‌यो (मेरा दिमाग़ ख़राब था जो तुमलोगों को आवाज़ दी)।” पर सारे मुँहों को एक साथ ‘माफ़ी-माफ़ी’ बोलते देख, उन्होंने क्षमा-मुद्रा में कहा: “ठीक है, तो चालो सब एक तल्ले रै बरंडा मा।”

मिनटों में ही फ़र्र-फ़र्र करती वह महिला-बरात वहाँ जा मौजूद हुई और ‘सेनापतनी जी’ द्वारा इंगित कोने को देख! ‘हैंऽऽऽऽ’ शब्द को मंद्र से तारसप्तक तक खींचती हुई, चमक कर पीछे हट गईं, लेकिन उस मकान की सबसे शरारती और ढीठ बच्ची मैं! . . . चुटकियों में दस-दस सीढ़ियाँ कूद, आँगन पार करती हुई उस कूड़े के ढेर के पास जा पहुँची, जहाँ काले चिथड़े पर शरद पूर्णिमा का चाँद अपनी सोलह कलाओं के साथ खिला हुआ था। 

श्रीकृष्ण को बालचंद्र मिला कि नहीं, यह तो वे जानें! या मेरी माँ की कहानी! पर अगले ही क्षण वह ‘छोटा-सा चाँद’ मेरी गोद में यों हुमक रहा था, मानो सदियों से मुझे जानता हो, और दूसरों को हर व़क़्त हड़काने वाली उसकी गूँगी माँ, जिसे सब ‘पगली’ कह कर पुकारते थे, मुझे ‘दुर-दुर’ करने की जगह प्यार भरी आँखों से देखे जा रही थी। मेरे लेखे उस वक़्त चारों ओर आनन्द का साम्राज्य छाया हुआ था, लेकिन इसके ठीक विपरीत ऊपर हाहाकार मचा हुआ था। 

मेरी सारी चाची, ताई, दादी, मौसी आदि एक स्वर में मेरी माँ की भर्त्सना कर रही थीं, जिसका सार कनपुरिया चाची की बोली में यों था: “मंजुँल कीं माँ! बच्चें कों सिंर पर चँढ़ाने कीं भीं एँक हँद होतीं हैं। देंख लींजिए आँपकी बेइन्तिहाँ छूँट काँ नतीजाँ! आँपकी लाँडली कैंसे, उँस पाँप की पोंटली कों सिंर पर धँरे नाँच रही है। बँस! अब चुँम्मा-चाँटी हीं बाँक़ी हैं और तो सब ‘सम्पँटपांट’ हों ही चुँका है!”

इतने में ही नीचे उस सारी क्रिया-प्रतिक्रिया से अनजान इस सात साला लड़की ने उस ‘पगली’ से मिन्नतें कर वह हीरा अपने हाथों में उठाया और उसे ज़ोर से चूम लिया। पूरा-सा याद नहीं है कि अभी मेरे होंठ उसके माथे पर ही थे कि बाहर! कि तभी एक झन्नाटेदार थप्पड़ मेरे गाल पर पड़ा। मैं हैरान! जिस माँ ने आज तक मुझे फूल की छड़ी से भी नहीं छुआ था, उसकी पाँचों अंगुलियों का उभार मेरे गालों पर? . . . जो हर वक़्त मेरी मेधा और कर्मठता की प्रशंसा करते नहीं अघाती थी, उस माँ ने! ऐसा किया? 

मैं पत्थर-सी स्तब्ध! एकटक माँ को देखे जा रही थी कि वे मेरे दाएँ हाथ को ज़ोरों से खींच कर, मुझे घसीटती-सी मकान में घुसी, और मुझे कपड़ों समेत ठण्डे पानी के फ़व्वारे के नीचे खड़ा कर दिया। 

ख़ैर . . . कुरुक्षेत्र की युद्धोपरान्त शान्ति जैसे दो-तीन दिन गुज़रने के बाद ही मैं ‘वही घोड़े, वही मैदान’ कहावत को सिद्ध करती हुई! मकान की छत पर हिरणी सी कुलाँचे भरती हुई, मोहल्ले भर के लड़कों की ‘गुड्डियों’ को ‘वो काटा’, ‘वो मारा’ करती हुई पेंच लड़ाती दिखी। दरअसल मैं लड़की नहीं! . . . बिजली का एक पुंज थी, जिसके शरीर को शरारत की विद्युत-तरंगें हर वक़्त तरंगित करती रहती थीं। बड़े लड़कों की बात-बेबात ‘कुटाई-पिटाई’ करना जिसका व्यसन था। 

बाबू जी को लड़कों से ज़्यादा आस्था लड़कियों में थी, और मेरे बढ़िया परीक्षा-फलों के कारण वे मुझे कुछ ज़्यादा ही प्यार करते थे। वे मेरी शरारतों के ख़िलाफ़ दायर की गई सारी याचिकाओं को अपने तर्कों से तुरन्त ख़ारिज़ कर देते थे, और मैं फिर से शेरनी बन कर, अनेकानेक बहानों से बड़े लड़कों की ठुकाई शुरू कर देती थी। माँ मुझे हर वक़्त सुनाती रहती: “राम जाने! यह लड़की ससुराल जा कर मुझे कितनी बदनामी दिलाएगी।” और इसके प्रत्युत्तर में मेरा शाश्‍वत जवाब होता, “माँ! बेफ़िक्र रहो, मैं विवाह ही नहीं करूँगी।”

उस ‘पगली’ की बच्ची के ‘बाप’ को लेकर हमारे मकान की सारी औरतें ढेरों क़यास लगाती रहतीं। कोई आश्चर्य नहीं कि वे रात के समय अपने सोते पतियों के चेहरे से उस बच्ची का मिलान भी करती रहीं हों। उनकी दोपहर-मंडली में रोज़ एक न एक नया नाम उभरता, जैसे दवा की दुकान का कम्पाउन्डर, होम्योपैथिक डॉक्टर, पनवाड़ी, धोबी और ख़ासकर चौबाइन के उस गोरे पति का! जिसने पगली को अपनी दुकान के गंदे नाले के पास रात भर सोने की इजाज़त दे रखी थी! पर पक्का कुछ न हो पाता और मजलिस अगले दिन के लिए टल जाती। 

इधर वह लड़की! . . . तौबा! तौबा! भादों की अमावसी काली रात में जादूगरनी के जादू से पूरे चाँद के उगने की परीकथा को सत्य सिद्ध करती हुई, अपनी ख़ूबसूरती से आकाश-पाताल एक करने लगी, और सुन्दरता के सारे प्रतिमानों को तोड़ती वह तीन वर्षीया लड़की गली-मोहल्ले की माँओं के दिलों पर साँप-सी लोटने लगी। 

भगवान जाने! वह ‘पगली’ अपनी बेटी को कब क्या खिलाती-पिलाती थी! पर उसकी बेटी की गठन इकहरी होते हुए भी भरी-पूरी थी। उसके नाक-नक्श और लावण्य लिए गोरा रंग उसे एक ऐसी सुनहरी आभा से मंडित किए रहते थे कि उसके सामने ‘टस्कनी’ और कश्मीरी औरतों का सौन्दर्य भी मात खा जाए! ऊपर से! हँसते समय उसके गालों में पड़ते गड्ढे तो हम सब बच्चों को नाचने के लिए बाध्य कर देते थे। शुरू-शुरू में मुझे बिगड़ैल मानकर धिक्कारती ‘माँएँ’ भी अब मुझसे ही नहीं, अपने बच्चों से भी उस बच्ची की ख़ोज-ख़बर लेने लगी थीं, और अपनी ‘पड़ोसन-मजलिस’ से छिपा कर बच्चों की उतरनें, पुरानी साड़ियाँ, चादरें आदि पगली को देने लगी थीं। 

उस मकान के तीस-चालीस छोटे–बड़े बच्चों ने ख़ूब सोच-समझ कर उसका नाम रखा—‘मोहिनी’ और सब के सब उस पर नारद की तरह आसक्त हो गए। सुबह स्कूल जाते वक़्त हम उसे ‘मचका-मचकू’ कर दूर तक ‘टाटा-बाय-बाय’ करते और स्कूल से लौटते ही, सीधे उसे अपनी पीठ पर लटका कर छत पर ले जाते। वह बंदी भी अब ख़ूब होशियार हो गई थी; जब अपनी जीत पर हम यह कहते कि ‘मोहिनी! ताली बजा’ तो वह काला धागा बँधी अपनी गोरी कलाइयों और हथेलियों से तालियाँ बजा-बजा कर हम सबका मन मोह लेती थी। 
पर ऊपर बैठा वह नाट्यकार यदि धरती पर ही स्वर्ग उतार दे, तो फिर उसे कौन याद करे? 

जाड़े की अँधेरी आधी रात के बाद का समय ठहर कर! . . . उस गूँगी की मूक चीख़ों से ऐसा भरा मानो सारी क़ायनात दर्द से कराह उठी हो। बंद कंठ से फूटती चीत्कारें! बेबस गूँगी की वह घों-घों आवाज़! जब तक बंद दरवाज़ों को पार कर वहाँ के लोगों तक पहुँचती! उसके पहले ही वह वहशी दरिंदा वहाँ से भाग छूटा था। आदमी के भीतर छिपी उसकी आदमख़ोर कामुक प्रवृत्ति आज उस नन्ही बच्ची को अपना ग्रास बनाने ही वाली थी कि रक्ताक्त होने के बावजूद पगली के सशक्त प्रतिरोध और खटाखट खुलते दरवाज़ों ने उस नरपिशाच से मोहिनी को बचा लिया था। आज भी जब उस नृशंस घटना की स्मृति-मात्र तन-मन को सिहरा देती है, तब सहज ही कल्पना की जा सकती है कि उस समय हम बच्चों का क्या हाल हुआ होगा? इस कांड के बाद जब हलवाइन ने पगली को अपनी दुकान के कोने में सोने की जगह दे दी, तब जाकर हमारी बच्चा टोली की रातों की नींद और ख़ुशियाँ लौटीं, और हमारे रात-दिन फिर से मोहिनी रूपी सूर्य के चारों ओर घूमने लगे। 

तभी मेरे पिता जी ने दूर मुहल्ले में बिना आँगन वाले मकान में एक फ़्लैट ले लिया। उसका साफ़-सुथरापन मुझे उस गंदे मुहल्ले के विनिमय में बिल्कुल भी नहीं सुहाया, लेकिन बड़ों की दुनिया में हम बच्चों की संवेदनशीलता को समझने का अवकाश किसे होता है? 

मैं रोज़ स्कूल की टिफ़िन छुट्टी में, उस मकान के दोस्तों से मोहिनी के हालचाल पूछ कर, अपने कल्पना-लोक में ही मोहिनी के साथ खेल लेती थी कि मेरी माँ की महत्त्वाकांक्षा ने मुझे एक क्लास ऊपर ‘कुदाने’ के चक्कर में, एक नए स्कूल में भर्ती कर दिया। अब मेरे पास मोहिनी की खोज़-ख़बर का कोई ज़रिया नहीं बचा था। 

मोहिनी से सम्बन्धित सूचना-तंत्र को छिन्न-भिन्न हुए एक अर्सा हो चुका था कि अचानक माँ ने मुझे एक ख़बर सुनाई: “ऐ मंजुल! तेरी उस पगली की बेटी के तो भाग्य ही खुल गए। एक ऊँचे ख़ानदान के संतानहीन जज ने उसे गोद ले लिया है।” 

“माँ! उसकी माँ कैसी है?” 

“अरे भई! अफ़वाह तो यह है कि बेटी का जाना सुनकर ही उसने खाना-पीना छोड़ दिया था, पर ये सब मनगढ़न्त क़िस्से ही होंगे! उस पगली में इतनी बुद्धि थोड़े ही थी कि उसे अपनी बेटी का ऐसा विरह व्यापता?” 

माँ के यह कहते ही मेरे मुँह से यकायक निकल गया: “माँ! तुम कैसी हो? तुम्हें एक ग़रीब माँ का दु:ख भी, दु:ख नहीं लगता! पर सच बताओ, क्या तुम मेरे जाने के दु:ख में मर सकती हो?”

यह सुनते ही मेरी माँ का मुँह! खुला का खुला रह गया। उन्होंने मुझे ज़ोरों का एक थप्पड़ मारते हुए कहा: “बहुत कतरनी-सी ज़बान चलने लगी है। तुम्हें होश भी है कि क्या बक रही हो?”

शायद माँ की बात सही ही रही होगी, पर उस समय मेरे मन में जो हाहाकार मचा हुआ था, क्या उसे मापने का कोई भी मीटर किसी के पास था? मुझे ऐसा लग रहा था मानो मेरे सपनों के देश की परी को कोई राक्षस उठाकर ले गया और उसकी दीन-हीन माँ उसे बचा नहीं पाई! मैं मन ही मन अपने माँ-बाप को भी कोस रही थी, जिनके कारण मेरा सोने-सा संसार टूट-फूट गया था। 

बच्चों की दुनिया का खेल ऐसा ही होता है, जिसमें एक मिट्टी के खिलौने की क़ीमत! हीरे-ज़वाहरात के भण्डार से कहीं ज़्यादा होती है। 

समय की नदी अभी एकाध वर्ष ही आगे बही होगी कि मेरी स्कूल बस! एक नई जगह पर रुकी और प्रथम कक्षा की एक अत्यधिक ख़ूूबसूरत लड़की उसमें चढ़ी। बस की सारी लड़कियाँ सम्मोहित-सी उसे एकटक देखे जा रही थीं और वह बच्ची भी अपने पूरे चेहरे को ‘मनहरती’ मुस्कान-से भरे, बस के कोने में बैठकर, सबको टुकुर-टुकुर देख रही थी। थोड़ी ही देर में, पौन बस की लड़कियाँ उसे घेरे हुए, खड़ी-बैठी थीं और ड्राइवर चिल्लाए जा रहा था: “अरे! बस का भार गड़बड़ा रहा है! जाओ, सब चुपचाप अपनी-अपनी जगह पर बैठो।” पर लड़कियाँ थीं कि बहरी-सी उसकी चिल्लाहट को अनसुनी करते हुए उस अपरूप सौंदर्य को घेरे हुए निहारे जा रही थीं। 

उस प्राइमरी की बस की सबसे वरिष्ठ छात्रा मैं थी, इसलिए रौबीली आवाज़ में बोली: “चलो! बैठो सब अपनी-अपनी जगह।” और ‘धच्च’ से उसके पास बैठती हुई बोली, “तोमार नाम?” 

“तृषा!” यह सुनते ही मेरी स्थिति ऐसी हो गई, जैसे भरी दोपहर में मेरा ख़ज़ाना लुट गया हो। 

घर लौटते ही जब मैंने अपने से आठ वर्ष बड़े भाई को यह बात बताई, तो वे बोले, “अरे मूर्खाधिराज! जिन्होंने उसे गोद लिया है, उन्होंने ही उसका यह नया नामकरण किया होगा। तुम कल उसके पिता जी का नाम और काम पूछ कर आना, फिर देखेंगेे।” 

इस पूरी दुनिया में एकमात्र मेरे ये भाई ही ऐसे थे, जो हम बच्चों की सारी बातों को पूरे मनोयोग से सुनकर, हमें रास्ता सुझाया करते थे। बाक़ी के बड़े? . . . वे! पूरी कहानी तो दूर, एक शब्द सुनते ही! ‘भागो यहाँ से और जाकर पढ़ो’ ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर हमें दफ़ा कर दिया करते थे। ख़ैर, भाई की बातों से आशान्वित होकर, मैं गहरी नींद में सो गई। 

सारी रात सुनहरे सपने देखने के बाद, जब मैं सुबह उठी, तो चहकता मन, चिड़िया की तरह ऊँचे आकाश में उड़कर अपने गंतव्य तक पहुँचना चाहता था। उस दिन जीवन में पहली बार मैंने ख़ुद को समय से पहले स्कूल बस के अड्डे पर खड़ा पाया। ड्राइवर मुझे आश्‍चर्य से घूरे जा रहा था कि दसियों हॉर्न मारने के बाद भी, दौड़ती-भागती-सी आनेवाली यह मंजुल! आज यहाँ अभी से कैसे? 

बहरहाल बस जब यथास्थान पहुँच कर तृषा के लिए रुकी, तो मेरे हाथों के रोम ‘सिर्र-सिर्र’ करने लगे। पर यह क्या? वहाँ तृषा जी नदारद थीं। उस समय मेरी बदहाली उस किसान जैसी थी जिसकी भरी फ़सल को पाला मार गया हो। दूसरे दिन ड्राइवर जी की मिन्नत करने पर उन्होंने बताया, “तृषा के पिता किसी बड़े पद पर दिल्ली चले गए हैं।” यह सुनते ही मैं ऊपर बैठे उस दुष्ट भगवान को यह उलाहना देते हुए धुआँधार कोसने लगी कि “क्या तुम उन्हें एक दिन बाद बाहर नहीं भेज सकते थे?”

पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती जा रही थी! उत्तरायण-दक्षिणायन घट रहे थे! सूरज, चाँद भी उग-डूब रहे थे! ऋतुएँ भी आ-जा रही थीं! पर मेरे जीवन में मोहिनी उर्फ़ तृषा रूपी चाँद को शाश्‍वत ग्रहण लग गया था। क्रमश: इस होनी को स्वीकार कर मैंने भी उसे अपने स्मृति-आकाश से विदा कर दिया। 

एक लम्बे अर्से के बाद मैं एक दिन बी.ए. का परीक्षा प्रवेश पत्र लाने के लिए उसी बस से कॉलेज जा रही थी कि बारहवीं कक्षा की एक नई लड़की बस में घुसी। बारहवीं कक्षा में प्रवेश पाना तो असम्भव-सा है, सोच कर मैं उस लड़की को ग़ौर से देखने लगी। न जाने क्यों मुझे लगा कि हो न हो यह ‘वही लड़की’ है! पर तभी कॉलेज आ गया और समयाभाव एवं परीक्षा के तनाव के कारण मैंने न तो उससे कोई बात की और न ही किसी से कोई पूछताछ की। 

परीक्षा के बाद तहक़ीकात करने पर पता चला कि वह बोर्ड परीक्षा की तैयारी में ज़ोरों से जुटी हुई है, इसलिए विशेष कक्षाओं में भी नहीं आती। परिचय का धागा फिर से पतला होकर टूटने ही वाला था कि मैंने बतौर अन्तिम चेष्टा अपने ड्राइवर जी की शरण ली। चूँकि मैं बचपन से ही उनको जानती थी, इसलिए अपनी उतावली छिपाए बिना ही मैंने उनसे साफ़-साफ़ पूछ लिया: “रामचन्दर जी! क्या यह लड़की पहले भी इस स्कूल में आई थी?”

“अरे हाँ बचवा! ए ऊही जज साहब वाली बिटिया है। बड़ा ही भला बच्चा है। जब बोलत है तो लागत है, जानो कोयलिया कूकत है।”

इतने-से मालुमात से मेरे सारे मोहरे अपने खाँचों में फ़िट बैठ रहे थे, पर उनकी पुष्टि का कोई उपाय नज़र नहीं आ रहा था। अंत में मैंने अपनी उत्सुकता को भविष्य के हवाले कर स्वयं को समझा लिया था कि मेरी इतनी बड़ी दुनिया में इस लड़की की ऐसी क्या वक़त है, जो मैं हर वक़्त उसकी याद से आविष्ट रहती हूँ? 

धीरे-धीरे समय की थपकियों से अपने अन्तर्मन को समझा-धमका कर, मैंने स्वयं को उसके सम्मोहन से पूरी तरह मुक्त कर लिया था कि लगभग तीन दशक बाद वही स्थिति फिर आँखों के सामने आ खड़ी हुई, और भविष्य की ताक़ में रखा हुआ जिज्ञासाओं का पिटारा ‘खुलूँ-खुलूँ’ करने लगा। लेकिन समय की नज़ाकत और अनन्या के स्वाभिमान की रक्षा करते हुए मैंने सबसे पहले उसके फ़ॉर्म को ठीक से पढ़ा। उस फ़ॉर्म पर पिता का नाम श्री तरुण कांति घोष और संरक्षक का नाम श्री श्यामल सेन लिखा हुआ था। मन हुआ कि पूछूँ: “क्या ये भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश श्यामल सेन हैं?” पर मारे संकोच के जीभ जो अटकी, सो अटकी ही रही। परिचय पत्र में माँ का नाम पूछा नहीं जाता! तो अब? हालाँकि ‘ढाक के वही तीन पात’ कहावत मेरे चरित्र के बिल्कुल विपरीत है, पर अपनी उम्र और प्रतिष्ठा के कारण मैं अपनी इस विकलता को ज़ाहिर भी नहीं कर सकती थी। इसलिए देखते हैं! सोच कर, महाज़िद्दी मैं! गहराई से उससे सम्बन्धित सारे तथ्यों को बटोरने में लग गई। 

सर्वप्रथम मैंने अपने तथ्य-शोध को एक ख़ूबसूरत-सा अन्दाज़ देते हुए, अनन्या से कहा, “अनन्या, तुम्हारा कुलीन व्यवहार, विनम्रता, शीलमय तेज, अप्रतिम मेधा आदि को देखकर लगता है कि तुम्हारी माँ अत्यन्त ही गुणवती और संस्कारशीला महिला होगी?”

“मैम! इस प्रशंसा के लिए धन्यवाद। पर मेरे जन्म से आज तक मेरी देख-रेख ही नहीं, मेरी हर साँस की निगरानी तक मेरे नाना जी ने ही की है, इसीलिए मैं उन्हें नाना नहीं ‘बाबा’ कह कर बुलाती हूँ। पता नहीं मैं अपने जीवन में कुछ बन पाऊँगी या नहीं, पर यदि मुझमें रंचमात्र भी अच्छाई है, तो उसका सारा श्रेय उन्हीं को है।” 

“और तुम्हारे पिता? वे कौन-से काम में इतने व्यस्त रहते हैं, जो उन्हें तुम जैसी प्यारी बेटी के लिए भी समय नहीं रहता?”

“मैम, पापा बहुत ही भले और मेहनती वकील हैं। मुझे पूरा तो नहीं पता, पर सुना है कि वे कम उम्र से ही बाबा को अपना ‘फ्रेंड, फ़िलॉसफ़र एण्ड गाइड’ मानते हैं। बाबा ने माँ का विवाह उनसे करने के बाद, उन दोनों को ही अपना वारिस घोषित कर दिया है।”

अनन्या के इन जवाबों ने मेरी चिर अतृप्त जिज्ञासा, मेरी उद्विग्नता, मेरी उत्सुकता; सबमें ज्वार ला दिया और एक प्रश्‍न बार-बार मेरे कंठ में आ कर अटकने लगा, “अनन्या! तुम्हारी माँ का नाम क्या है? क्या वे तुम्हारे नाना की दत्तक पुत्री हैं?” 

हालाँकि यह कोई बुरा प्रश्‍न नहीं था, न ही इसमें किसी लांछन की गन्ध थी! पर भरोसा मुझे अपने ही ईमान पर नहीं था। इस बिना हाड़ की जीभ का क्या ठिकाना! यदि यह कभी किसी कमज़ोर क्षण में अनन्या को उसके अंधकार भरे अतीत का परिचय दे बैठी, तो क्या यह दीपशिखा-सी सौम्य जीवात्मा आहत होकर बुझ नहीं जाएगी? इसलिए मैंने उसी क्षण दृढ़ता से यह संकल्प लिया कि मैं कभी भी इस ‘सौभाग्यशाली अभागी’ लड़की अनन्या से उसके अतीत के बारे में कुछ नहीं पूछूँगी। 
“मैम, आप क्या सोच रही हैं? सच मानिए! आपके ये व्यक्तिगत प्रश्‍न मुझे बहुत ही अच्छे लग रहे हैं, क्योंकि आज के युग में किसी के भी पास, किसी और के लिए, थोड़ा-सा भी समय कहाँ है? और आप तो! इस ऑफ़िस की उच्चस्थ! . . . ” मैंने प्रार्थना मुद्रा में अनन्या की ओर देखते हुए, वाक्य पूरा करने से पहले ही उसे हाथ के इशारे से रोक दिया। पर मेरा रोकना उसके भावों को कैसे रोकता! अब तक तो वह बंगाली परम्परा के अनुसार मेरे दोनों पैरों को अपने दोनों हाथों से छूकर उनकी धूल अपने सिर पर लगा चुकी थी। आदतन उसे ‘शुखी थेको!” (सुखी रहो) का आशीर्वाद देते हुए, मैंने अपने अन्तर्यामी से याचना की: ‘हे प्रभु! तुम सर्वदा इस बच्ची पर अपनी कृपा बनाए रखना। हे परमपिता! तुम पर इस लड़की के अतीत के असीम दु:खों का ऋण है, जिसे चुकाना तुम्हारी नियति है, क्योंकि तुम्हीं ने हम धरती-पुत्रों को असंख्य उदाहरण देकर यह समझाया है कि तुम किसी का भी ऋण बाक़ी नहीं रखते। चाहे उसके लिए तुम्हें ‘बहेलिया’ का बाण ही क्यों ना खाना पड़े।’

यह तो भगवान ही जाने कि उसने मेरी अर्ज़ी मंज़ूर की या नहीं! पर अनन्या ने एक दिन अत्यन्त संकोच से, मुझे अपने यहाँ चाय पर आमंत्रित किया। किसी भी दफ़्तरी निमंत्रण के लिए मेरी ‘ना’ सर्वविदित थी, पर इस घड़ी के लिए सदियों से प्रतीक्षारत मैं अनायास प्राप्त इस ‘सौभाग्य’ को कैसे ठुकरा सकती थी ? . . .

मख़मली हरियाली से घिरे एक बड़े बँगले के बाहर जब मैंने अनन्या को! बड़ी बहन-सी लगती उसकी हू-ब-हू कार्बन कॉपी माँ के साथ मेरा इन्तज़ार करते देखा तो प्रेम और श्रद्धा का ऐसा अनकहा इज़हार देख कर मन गद्‌गद्‌ हो गया। आश्‍चर्यजनक है यह तथ्य कि मैं उसकी माँ को देख कर बिलकुल नहीं चौंकी, बल्कि अपने अन्देशे को सही होते देख, विशेष आह्लाद और ममता से भर गई। 

अन्दर प्रवेश करते ही एक बड़े-से ख़ानदानी बैठक-कमरे में सर्वप्रथम मेरा ध्यान हार चढ़ी हुई एक बड़ी-सी तस्वीर की ओर गया, जिसे देख कर मैं स्तब्ध रह गयी! ख़ूब जाना-पहचाना चेहरा! लेकिन उस पर शालीन सभ्यता की ऐसी पॉलिश कि अपनी याददाश्त को अकुंठित माननेवाली, ‘मैं घमंडी’ पहली बार उस पर से अपना भरोसा खो बैठी। 

इतने में ही, मेरी स्थिर अटकी नज़रें देखकर अनन्या बोल पड़ी, “मैम! ये मेरी सगी नानी जी हैं। बाबा ने जब माँ को गोद लिया था, उसी वक़्त उन्होंने नानी जी को भी कुछ दिनों के लिए एक मानसिक चिकित्सालय में भर्ती करवा दिया था। मुझे तो याद नहीं है, परन्तु माँ बताती है कि मैं उन्हें बहुत प्रिय थी। मेरा दुर्भाग्य है कि मेरे जन्म के दो वर्ष बाद ही उनका निधन हो गया। बाबा आज भी उनकी पुण्यतिथि पर बड़ा दान करते हैं।” 

एक ‘असम्भव’ को ‘सम्भव’ होता देख मैं भौैंचक और निर्वाक थी! . . . कि तभी मुझे बड़े प्रवेश-द्वार के बीचों-बीच बुद्ध की करुणा अपने में समेटे हुए, ईसा मसीह की एक दिव्य और भव्य आकृति खड़ी दिखी। वह मूर्ति न केवल सुदर्शन व्यक्तित्व की धनी थी, वरन्‌ उसमें से सज्जनता और शिष्टता का सागर भी उमड़ा पड़ रहा था। 

आर्ष सूक्ति है कि हम अतीत को सुधार नहीं सकते, लेकिन इस मृत्तिका से बने मुज़स्समे ने न केवल अनन्या का अतीत सुधारा था, बल्कि उस पर लगे लांछन के दागों को भी चन्दन के टीकों में बदल दिया था। साथ ही उन्होंने अपने कृतित्व से अनन्या जैसी सुसांस्कृतिक और चरित्रवान लड़की गढ़ कर सबको यह पूर्वाभास भी करवा दिया था कि वे भविष्य में पृथ्वी पर आने वाली उसकी सन्तानों के लिए भी प्रतिश्रुत हैं। 

उनके अलौकिक नूर ने वहाँ के सम्पूर्ण वातावरण को पवित्रता से भर दिया था और उनकी स्नेहिल स्मित मुस्कान से मंत्रमुग्ध इस काया को यह भान तक न हुआ कि भगवान सहित किन्हीं भी चरणों में झुकने में अक्षम मैं! कब सम्मोहित-सी, अजाने ही उन पैरों पर झुक गयी थी; उस स्थिर क्षण में मुझमें ऐसा स्फुरण हुआ मानो साक्षात्‌ भगवान भी उस मनुष्य-देहधारी व्यक्ति का स्थान ग्रहण करने के लिए तरस रहे हैं!!

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