वे लड़कियाँ

01-03-2023

वे लड़कियाँ

डॉ. कुसुम खेमानी (अंक: 224, मार्च प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

मैं कल्याणी से रोज़ सुबह लोकल ट्रेन पकड़ती थी, जिसमें काँचरापाड़ा, हालीशहर, इच्छापुर, नैहाटी, कृष्णानगर, टीटागढ़ आदि पन्द्रह-सोलह स्टेशनों से लेकर अंतिम स्टेशन सियालदह तक के कई-एक छोटे-मोटे स्टेशनों से ‘वेे लड़कियाँ’ एक-एक कर चढ़ती रहती थीं। एक-दूसरे को चूँटी काटती; पास खड़ी के पेट में कोहनी घुसाती ‘वे लड़कियाँ’ ही-ही, ठीं-ठीं करते हुए, ट्रेन के लेडीज़ डिब्बे की दो पंगतों में एक-दूसरे पर गिरती-पड़ती बैठ जातीं और उनके आते ही पूरा डिब्बा गुलज़ार हो उठता। 

अपने सस्ते फूलदार सलवार-सूट और नक़ली श़िफ़ोनी दुपट्टे में सजीं-धजी वे इतनी सुन्दर और रौबीली लगती मानो वे साधारण-सी ‘बारहटिया’ नौकरानी नहीं, बल्कि पुश्तैनी मेम साहब हों। वैसे उनका नख़रा ग़लत भी नहीं था। कारण कि उनके सस्ते कपड़ों और नक़ली गहनों के अधिकतर डिज़ायन मालकिनों के असली गहनों-कपड़ों की हूबहू कॉपी होते थे। वे अपनी मालकिन के लाखों के हीरे के बुंदों का नक़ली अवतरण दस-पन्द्रह रुपए में और हज़ारों की सोने की पाज़ेब दस रुपए में ख़रीद लेतीं। हाथ के कंगन, अँगूठी, पर्स, नेल पालिश और बिंदी का भी कमोबेश यही हाल था। पर उनमें एक बात क़ाबिले-ग़ौर थी कि चाहे उनका पहनावा सस्ता हो, पर उनके अदब-क़ायदे में हमेशा एक ख़ानदानी पुट रहता था। मेरे अनुमान से चूँकि उनके परिवार देश के विभाजन के समय यहाँ आए थे, इसलिए धन खो जाने के बावजूद भी उनका तौर-तरीक़ा नहीं खोया था। 

उन्हें हर वक़्त ‘मुंडी में मुंडी’ मिलाए, सरगोशियाँ करते हुए देखना किसी भी दर्शक को बचपन के स्वप्निल संसार में ढकेल देने की क़ाबिलियत रखता था। उनकी उपस्थिति मात्र से रोमांचित मैं कभी अनियारी तो कभी सीधी आँखों से, उन्हें पहलू बदल-बदल कर देखती रहती थी। उनमें मेरी ख़ास रुचि का कारण मेरा लेखन भी था, जिसके लिए मुझे उनमें अपरिमित सम्भावनाएँ नज़र आती थीं। मैं मन ही मन कई कहानियाँ उनके इर्द-गिर्द बुनती रहती थी, और इस फ़िराक़ में रहती थी कि किसी तरह उनके व्यूह में घुस कर मैं अपने रिसालों के लिए दो-चार मौजूँ घटनाएँ ढूँढ़ लाऊँ। मैं बहुत शिद्दत से उन इन्द्रधनुषी तितलियों पर कुछ लिख लेना चाहती थी, जिसकी एक ख़ास वजह थी, कि साहित्य में रुचि होने के बावजूद मुझे पारिवारिक ज़रूरतों के कारण ‘नर्स’ की नौकरी करनी पड़ रही थी, जहाँ कथावस्तु मिलने की कोई गुंज़ाइश नहीं थी। ऊपरवाले की मेहरबानी से मुझे पहले दिन से ही एक बुज़ुर्ग महिला का मनोनुकूल काम मिल गया था। वे पढ़ी-लिखी, संभ्रान्त, विनम्र, उदार आदि अनेकानेक गुणों से विभूषित थीं। उन्हें अकेलापन महसूस न हो, इसलिए उनके बेटे-बहू ने उन पर सुबह-शाम की, दो पढ़ी-लिखी नर्सें रख दी थीं, जिनका काम उनका मन लगाना मात्र था। जब मैं सुबह उन्हें अख़बार पढ़कर सुनाती, तो वे मुझसे वर्तमान परिदृश्य पर गम्भीरता से चर्चा करतीं, जिसमें बाज़ारीकरण, भूमण्डलीकरण, नारी विमर्श, लड़की भ्रूण हत्या, मूल्यों का विघटन आदि सभी मुद्दे शामिल होते थे। वे अपने ज़माने की बी.ए. पास और अत्यधिक स्वाध्यायी थीं। हक़ीक़त तो यह है कि ‘दादी माँ’ से बहस-मुबाहिसा करने के कारण मेरे सोच का भी काफ़ी विस्तार हुआ था। उनके प्रोत्साहन से ही मैंने दो-एक कहानियाँ भी स्थानीय अख़बारों में छपवाई थीं। 

उन लड़कियों के दल को देखते ही मेरे मन में ऐसी ललक जगती जैसी धन दिखने पर लालची को और सुन्दर स्त्री दिखने पर कामुक पुरुष को होती है। मैं हर वक़्त सोचती रहती कि कैसे इनसे कुछ नई जानकारियाँ हासिल कर लूँ और उनके चारों ओर कहानी का इन्द्रजाल बुन कर, कुछ रोमांचकारी और दिलचस्प क़िस्से लिख डालूँ, पर मुझे क्या पता था कि मेरे उस साधारण-से सात्विक आदिम लोभ का ऐसा नतीजा होगा कि ‘वे लड़कियाँ’ स्वयं ही प्रथम नायिका के पद पर विराजित हो जाएँगी? ख़ैर, वह क़िस्सा बाद में, फ़िलहाल तो . . . 
हमारी यह ‘कल्याणी लोकल’ तक़रीबन सोलह-सत्तरह स्टेशनों पर रुकती-पड़ती, हमें सियालदह स्टेशन पहुँचाकर वापस कल्याणी की ओर मुड़ जाती है और हम हज़ारों मुसाफ़िर दौड़ते-भागते, अपने कलकत्ते के गंतव्य स्थलों की ट्राम, बस और ऑटो को पकड़ने में व्यस्त हो जाते हैं। औरों की तरह ही ‘वे लड़कियाँ’ भी बिना पीछे देखे, तेज़ी से अपना हाथ हिलाकर ‘टा-टा’ करती हुई, उड़ती-सी ग़ायब हो जातीं। 

तक़रीबन दो साल से इसी ट्रेन से मुसाफ़िरी करती इन ‘लड़कियों’ के झुरमुट को देखकर मैं आह्लादित स्वर में अपनी मित्र नीरजा से कहती, “नीरजा, मुझे इनकी ये पाँतें उन बगुलों-सी लगती हैं, जो अक़्सर आकाश में अंग्रेज़ी के ‘व्ही’ अक्षराकार में उड़ती हुई दिखती हैं, प्रत्येक स्वयं में स्वतंत्र, पर एक लय में छंदबद्ध, इनकी यह ‘सिम्फ़नी’ क़ाबिले-तारीफ़ है। ज़रा कल्पना करो कि ये सोलह-सत्तरह साल की युवा किशोरियाँ रोज़ न जाने कितनी तरह के सपने रचती होंगी! अपनी कमाई के पैसे माँ को देते वक़्त क्या इनमें से हरेक मन ही मन यह नहीं सोचती होगी कि एक दिन सफ़ेद घोड़े पर सवार एक राजकुमार आएगा और ‘बापू’ से उसका हाथ माँग कर, उसे घोड़े पर बैठा कर ले जाएगा?” 

यह दिवा-स्वप्न देखते हुए मैंने आकाश पर बैठे उस ‘अनन्त-असीम’ को याद किया और उन कुँवारी कामनाओं की अर्ज़ी उस अगोचर के दर पर रख दी। एक बार जब स्टेशन आने वाला था और मैं उतरने की तैयारी कर रही थी, तभी उन लड़कियों की सेनापति सीमा ने अपना मोबाइल मेरी ओर बढ़ाते हुए अति विनम्रता से कहा, “दीदी! क्या आप हम सबका फोटो खींच देंगी?”

तेरह लड़कियों को तीन फोटो में क़ैद करने के बाद जब मैं अपने लिए भी उन सबके फोटो उतारने लगी, तो वे ऐसी निहाल हुईं, मानो उन्हें स्वर्ग ही मिल गया हो। उनके उद्दाम उत्साह से छलछलाता यह वाक्य, “दीदी हमारा फोटो रखेंगी! दीदी हमारा फोटो रखेंगी!” वहाँ के शोरगुल पर भारी पड़ने लगा। उनमें से कई लड़कियों ने मेरे फोन पर अपने ‘मिस्ड-कॉल’ देकर, अपने नाम भी भरवा दिए और उनके प्रफुल्लित स्वरों ने उस पूरे डिब्बे में एक मीठी गुंजार-सी भर दी। उनकी इस बेइन्तहा ख़ुशी को देखकर मैं दंग थी और सोच रही थी कि हम कितने कंजूस हैं, जो मु़फ़्त में मिलती ख़ुशी को भी ले नहीं पाते। 

अचानक एक दिन उन लड़कियों का पूरा का पूरा समूह ग़ैरहाज़िर था। यह एक रिकार्ड-भंग घटना थी, क्योंकि इन दो सालों में आँधी हो या तूफ़ान, ऐसा कभी भी नहीं घटा था कि उनका पूरा दल न आए। मुझे बार-बार यही चिन्ता सता रही थी कि आख़िर ऐसा क्या हुआ जो वे सबकी सब नहीं आईं। तरह-तरह के अच्छे-बुरे विचार मन में उठ रहे थे। सांत्वना के लिए अपने उद्विग्न मन को वहमी क़रार देते हुए मैंने ख़ुद को इस बहाने से बहला लिया कि उनमें से किसी एक की मँगनी हो गई होगी, इसलिए वे सब की सब छुट्टी मना रही हैं। बेशक कल ही वे सब खिल-खिल करती हुईं, हाथ में मिठाई का डिब्बा लिए, ट्रेन में हम सबका मुँह मीठा कराती नज़र आएँगी। 

पर या ख़ुदा यह क्या! वह पूरा का पूरा जत्था दूसरे दिन भी ग़ायब था। मैंने पटापट उनके सारे नम्बरों को दबाया, पर एक बार छोटी-सी ‘नो रिप्लाई’ होने के बाद सिवा सूँऽऽऽ सूँऽऽऽ के उधर से कोई आवाज़ नहीं आई। इन दो सालों में उन लड़कियों ने पराई होते हुए भी मेरे मन में अपने लिए एक ऐसी जगह बना ली थी, जैसी किसी सगे के लिए भी नहीं होती। ख़ुद मुझे भी यह अन्दाज़ा नहीं था कि वे सब मेरे अंतर के किसी गहरे कोने में घुस कर बैठ गई हैं। आज रह-रह कर मुझे अपने गुरु जी की एक बात याद आ रही थी, “बहुत ही प्रेम-पागल है, हे भगवान! इसकी रक्षा करना।”

उन्हीं आशीर्वाद के रक्षा-कवच में पनपती मेरी संवेदना ने शायद आज भी मुझमें थोड़ी-बहुत मनुष्यता बचा रखी थी, जिसकी वजह से मैं थोड़ा-बहुत दूसरों के कष्ट का अनुमान कर लेती थी। 

पुराने लोग शायद सही कहते हैं कि अंत, प्रज्ञा नाम की जो एक चीज़ है, वह कोरी बकवास नहीं है, क्योंकि दो दिन, चार-दिन, और फिर पूरा सप्ताह बीत गया, लेकिन उस लेडीज़ डिब्बे के उजड़े चमन में बहार न लौटी। उनके सारे फोन नम्बर नाकारा-से ख़ामोश पड़े रहे और उस अँधेरी घाटी से कोई जवाब नहीं आया। सारी बेचैनी के बावजूद मेरी औक़ात कुछ ठोस कर पाने की तो थी नहीं, इसलिए मैं एक दिशा-हारा की तरह किंकर्तव्यविमूढ़-सी माथे पर हाथ धरे बैठी थी कि नीरजा ने मुझे सुझाया, “प्रतिभा! तुम्हारी वे ‘दीदी माँ’ (मरीज़) तो काफ़ी रसूख़वाली हैं। ज़रा उनसे कह कर तो देखो।”

सच, “दीया तले अँधेरा” ही होता है, क्योंकि माँ जी ने न केवल मुझसे सारा विगत पूरे ध्यान से सुना, बल्कि बीच में ही अपनी पुत्रवधू को आवाज़ देकर कहा, “बोउ माँ! यहाँ आओ।”

उनकी पुत्रवधू सुजाता शहर की प्रसिद्ध सोशल वर्कर थीं। उनकी संस्था पूर्णत, ग़ैरसरकारी थी और विभिन्न प्रकार के सामाजिक कार्य अपने बल-बूते पर ही करती थी। उनके साथ अन्य कई महिला उद्धार संस्थाएँ भी जुड़ी हुई थीं। माँ जी की इच्छानुसार सुजाता जी ने तत्क्षण हमारे मुफ़स्सिलों की ‘लाइन’ में क्रियाशील संस्थाओं की प्रमुखों की एक मीटिंग बुला ली। देखते ही देखते फ़िरदौस, आयशा और रूबी मैम वहाँ आ गईं और उन लोगों ने आनन-फ़ानन में मोबाइल कम्पनी से उन लड़कियों के पते-ठिकाने निकलवा लिए। 

फ़िरदौस मैम पुलिस को साथ लेकर सबसे पहले झुनू के घर गईं। उसके घर में जवान मौत सरीखा ‘स्यापा’ मँडा हुआ था। झुनू के माँ-बाप ने बताया कि वे लोग कई बार थाने गए थे, पर सिवा डंडों और धक्कों के उन्हें वहाँ कुछ नहीं मिला। थानेदार ने न केवल उनकी एफ़.आई.आर. दर्ज करने से मना कर दिया, बल्कि उन्हें ही अपराधी ठहराते हुए कहा, “ज़्यादा बको मत। पहले तो जवान बेटी को बेच खाया, अब चले हो शिकायत दर्ज कराने। तुरन्त दफ़ा हो जाओ यहाँ से, वरना तुम सबको जघन्य अपराधियों की श्रेणी में रखकर ऐसी दफ़ा लगा दी जाएगी कि भगवान भी तुम्हें नहीं छुड़ा पाएँगे।” इतना ही नहीं, उन्होंने उन ग़रीब बूढ़ा-बूढ़ी को ऐसी-ऐसी गन्दी बातें सुनाना शुरू कर दिया कि झुनू की माँ अपनी छोटी बेटी के कंधे पर हाथ धरकर वहाँ से भाग कर वापस घर आ गई। 

एक तो ग़रीब का घर, ऊपर से ग़म का आलम! उस पूरे वातावरण में ऐसा ‘श्मशानी माहौल’ छाया हुआ था, मानो वहाँ अभी ही गिद्ध-सियार बोलने लगेंगे। 

फ़िरदौस मैम ने झुनू के पिता को पुचकारते हुए, उनसे झुनू की एजेन्सी का फोन नम्बर लिया और तुरन्त ही वह नम्बर मिलाया। उधर से झिड़कियों भरा टका-सा जवाब पाकर भी वे विचलित नहीं हुईं, और अपने पूरे ताम-झाम के साथ सीधे उस पते पर जा पहुँचीं। वहाँ पहुँच कर उन्होंने मिसरी घुले स्वर में आवाज़ दी, “हाल्दार! ओ मिस्टर हाल्दार! ज़रा बाहर आइए प्लीज़।”

उनकी बड़ी गाड़ी के नीचे दबा हाल्दार ‘यस्स मैम! यस्स मैम’ करता उनके सामने यों थरथराने लगा, मानो उन लड़कियों के ग़ायब होने की वजह वही हो। उसके ख़ुशामदी लहजे और घिघियाने को दरक़िनार करते हुए फ़िरदौस मैम ने कड़कदार आवाज़ में कहा, “झुनू को पहचानते हो?” आदतन और घबराहट में उसके मुँह से निकल गया, “नो मैम! नो मैम!” 

उस उत्तर के प्रत्युत्तर में जब छहफुटिया फ़िरदौस मैम की लम्बी-चौड़ी हथेली का करारा चाँटा उसके गाल पर अपना गहरा दाग़ डालते हुए पड़ा, तो वह हकला कर “यस्स मैम! यस्स मैम!” करता हुआ तेज़ी से उठा और पलक झपकते ही, उसने उन तेरहों लड़कियों के घरवालों और कामवालों के नाम-पते मय उनके फोटो के हमारे सामने रख दिए। 

इस अँधेरी दुनिया की सच्चाई से गहराई तक वाक़िफ़ फ़िरदौस मैम ने तुरन्त ही सुजाता मैम को फोन करके कहा, “मुझे यह क़िस्सा ‘गर्ल ट्रेफ़िकिंग’ (लड़कियों की तस्करी) से जुड़ा लगता है, इसलिए तुम तुरन्त आपातकालीन मीटिंग की व्यवस्था करो।”

बड़े लोगों के बड़प्पन की क्या कहूँ। मुझे ऐसा लगा मानो आकाश की तरह उसका भी कोई ओर-छोर नहीं होता। मैं उनकी तत्परता और तत्क्षण लिए गए निर्णयों के आगे कृतज्ञता से नतशिर थी कि मुझे अचरज से भरती हुईं वे मेरे कंधे पर अपना स्नेहभरा हाथ रख कर बोलीं, “प्रतिभा! तुमने बहुत पुण्य का काम किया है, वर्ना आज की दुनिया में कोई भी सिवा अपने किसी दूसरे के बारे में सोचता ही कहाँ है? अब बस तुम भगवान से यही प्रार्थना करो कि ‘वे लड़कियाँ’ किसी तरह बच जाएँ! मेरा पक्का विश्‍वास है कि तुम जैसी पुण्यात्मा की अरदास भगवान तक ज़रूर पहुँचेगी।”

उनकी इन स्नेह-पूरित बातों से मुझे लगा जैसे मेरा शरीर हवा से भी हल्का होकर उड़ रहा है और मैं भी ‘युधिष्ठिर’ की तरह धरती से चार अंगुल ऊपर उठ गई हूँ। 

दूसरे दिन सुबह से ही ‘माँ जी’ के पूरे घर में ग़हमाग़हमी मची हुई थी। यह फ़ुटेज़! वह फ़ुटेज़! उस ट्रेन का उस दिन वाला कंडक्टर। उसी रातवाला कंडक्टर। यहाँ तक कि उस रास्ते के सभी ‘प्लेटफ़ार्मों’ के ‘गार्ड’ से लेकर, बाबू लोगों में से भी किसी को नहीं बख़्शा गया था। फ़िरदौस मैम के पिता विधान सभा के ‘स्पीकर’ थे, इसलिए उनके इस शुभ काम में सरकारी मदद भी गंगा की तरह ही प्रवहमान थी। पुलिस के ‘कॉम्बिंग ऑपरेशन’ की तरह ही पूरी सक्रियता से सरकारी मशीनरी चौतरफ़ा मार कर रही थी। 

“स्वयं”, “अपने आप”, “जबाला” आदि संस्थाओं की स्वयंसेविकाएँ लाल बत्ती इलाक़े में घुसकर कोठरी, बरामदे, चौबच्चे अर्थात्‌ वहाँ के चप्पे-चप्पे में एक सूई की तरह उन लड़कियों की खोज कर रही थीं, पर वे सब की सब ऐसी ग़ायब थीं जैसे उन्हें यह धरती खा गई हो। 

पुलिस ने शहर के सारे सीमांत सील कर दिए थे, पर उन लड़कियों का कहीं कोई अता-पता नहीं था। तभी अचानक निराशा के उस घटाटोप में लाल बत्ती इलाक़े के एक दलाल ने धीमे से ‘स्वयं’ की रुचिरा जी से कहा, “मुझे पक्का तो नहीं मालूम। पर कल कल्लू शराब के नशे में बड़बड़ा रहा था कि लड़कियों को नेपाल बॉर्डर से बाहर भेजने की योजना है। वह यह भी कह रहा था कि आज तो वह जमकर विलायती अंगूरी पिएगा, क्योंकि कुछ नख़रेवाली लड़कियों के चक्कर में उसे ढेरों पैसे मिलेे हैं।”

जैसा कि खोजी दस्ते को अंदेशा था, हवा की तरह वहाँ पहुँचने पर भी ‘कल्लू’ की छाया तक का अता-पता नहीं था। 

वैज्ञानिक सुविधाओं के कारण पुलिस ने उसके घर पर टँगी हुई उसकी एक फोटो को तुरंत ही सारे नाकों पर भेज दिया और उन अभागी लड़कियों के सौभाग्य से कल्लू बिहार के सीमांत हाइवे से नेपाल की ओर जाती वॉल्वो बस की सीट के नीचे छिपकर यात्रा करता हुआ पकड़ा गया। 

क़िस्सा कोताह यह कि पुलिस की भयंकर मार के बाद कल्लू ने अपना अपराध स्वीकार करते हुए सारा भेद उगल दिया। उसने बताया कि वह झुनू को ख़ुद के लिए फाँसना चाहता था। पर जब झुनू ने उसे, लोगों से भरे हुए स्टेशन पर, अपनी चप्पल से पीटना शुरू किया और उसकी आठ-दस साथिनों ने भी उसके साथ मिल कर उसकी ऐसी धुनाई की कि आज तक उसका पूरा शरीर कराह रहा है, तभी उसने उस सौंदर्य-पुंज से बदला लेने के लिए; नैहाटी के एक गंदे इलाक़े नन्दोपुर बस्ती के काणे को उन लड़कियों का ब्योरा दिया, तो काणे की बाँछें खिल गईं। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि यों बैठे-बिठाए उसके हाथ इतना बड़ा ख़ज़ाना लग जाएगा। पके हुए शातिर गुंडे काणे ने कुछ दिनों बाद ही, इस ख़बर के एवज़ में उसे पचास हज़ार रुपए देकर वहाँ से फ़रार हो जाने का हुक़्म दिया था और इसीलिए वह भारत से नेपाल भाग रहा था। 

उसकी दास्तान सुनते ही रूबी मैम ने कहा, “काणे ही क्या! अब तक तो वह पूरा अड्डा ही उजड़ गया होगा। फिर भी चलो देखते हैं।”

इतने में मेरे फोन पर एक धीमी-सी फ़ुसफ़ुसाहट आई, “इसे ट्रैक कीजिए!” और उसके साथ ही किसी की ज़ोरों से चीख़ने और फोन को ज़मीन पर पटकने की तड़ाक भी सुनाई पड़ी। 

अन्तराष्ट्रीय गिरोह का सुराग़ ढूँढ़ना कठिन तो होता ही है, इसलिए उच्चस्तरीय पुलिस फ़ोर्स को भी उस फोन का अता-पता ढूँढ़ने में दस घंटे लग गए। बतौर एहतियात सुजाता मैम ने पुलिस फ़ोर्स में मेरे फोन का नम्बर ‘विशेष कोटि’ (सेंसिटीव कैटगरी) में रजिस्टर्ड करवा दिया था, इसलिए उस फोन के टूट जाने के बाद भी उनका दल उस सूत्र के सहारे नेपाल जा पहुँचा। 

ख़ैर, लड़कियाँ तो वहाँ से भी ग़ायब थीं, पर उन लोगों को अब यह सारा माजरा अपनी ज़द में लग रहा था। ऊँची पहुँच के कारण, उन लोगों ने तुरंत ही स्थानीय सरकारी मदद से वहाँ के एयरपोर्ट, रेल, बस, गाड़ी आदि के बाहरी रास्तों को सीलबन्द करवा दिया। 

एयरपोर्ट पर धावा बोलने पर ‘वे लड़कियाँ’! सऊदी अरब के एक विमान के प्रसाधन कक्ष के भीतर बुरी तरह ठुँसी हुई बरामद कर ली गईं। 

जब उन बिलखतीं लड़कियों ने उन दरिंदों की अमानुषिक अत्याचारों से भरी दर्दनाक गाथाएँ सुनायीं, तो सहसा विश्‍वास ही नहीं हुआ कि हैवानियत की भी सारी हदों को पार करते इन शैतानों को भगवान ने इंसानी चोला कैसे दे दिया? 

इस कहानी के अंत के तंत में पता चला कि काणे ने इस बड़े अपहरण के लिए पचास-साठ लोगों को ठेके पर, अपना साथी बना लिया था। उस दल ने इन लड़कियों के आने-जाने का समय, इनके प्लैटफ़ॉर्म, इनके घर की गलियाँ, इनके रास्ते के अँधेरे मोड़ आदि का पूरा लेखा-जोखा अच्छी-ख़ासी छानबीन करके कंठस्थ कर लिया था। जब ‘वे लड़कियाँ’ दिन भर काम करने के बाद रात को लौटती ट्रेन से अपने घरु-प्लैटफ़ॉर्मों पर उतरतीं, तो उनके साथ ही काणे के पाँच-छह गुंडे भी उसी जगह उतर जाते और उस लड़की से एक निर्धारित फ़ासला रखते हुए गली के किसी अँधेरे मोड़ पर उसे क्लोरोफ़ॉर्म सुँघा कर अगवा कर लेते। 
कहानी के बीच में ही मैं बोल पड़ी, “लगता है इस योजना का काणे ने बहुत ही अच्छी तरह रिहर्सल किया था, तभी ‘ये महाइंटेलिजेन्ट लड़कियाँ’ भी कुछ नहीं कर पाईं।” 

मैंने जब ‘वे लड़कियाँ’ को इस ख़ास विशेषण से विभूषित किया, तो दुःख की घड़ी में भी सबके चेहरों पर एक खिंची-सी मुस्कुराहट छा गई। 

इन मुस्कुराहटों का अर्थ भाँप कर मैंने अपनी बात का ख़ुलासा करते हुए कहा, “मैम! मेरी बात बहुत ग़लत नहीं है। यदि केवल एक बार मेरा नम्बर डायल करने पर इन लड़कियों को वह नम्बर याद हो गया, और विपत्ति में भी इन लोगों ने अपनी प्रत्त्युत्पन्नमति को सही रखकर, हम तक अपनी सूचना पहुँचा दी, तो क्या ये लोग ‘महाइंटेलिजेन्ट’ नहीं कहलाएँगी?”

मेरे इस तर्क को सुनकर आयशा मैम ने हँसते हुए कहा, “प्रतिभा ठीक कह रही है। हमें यह स्वीकार करना ही चाहिए कि ये लड़कियाँ निश्‍चित रूप से स्कॉटलैंड यार्ड से भी आगे हैं।”

मैं, प्रतिभा, दसों दिशाओं और सारे ग्रह-नक्षत्रों की क़सम खाकर कहती हूँ कि मुझे अपने पूरे जीवन में कभी ऐसा आनन्द बोध नहीं हुआ था जैसा आज। सोचती हूँ कि जब मुझ जैसी साधारण-सी लड़की की ज़रा-सी चिन्ता और सतर्कता के विनिमय में भगवान ने इतना बड़ा चमत्कार कर दिया, तो यदि हम सब अपने इर्द-गिर्द के लोगों में थोड़ी-सी भी दिलचस्पी ले लें, तो क्या हमारे ये छोटे-छोटे सरोकार इस धरती को सुन्दर और समृद्ध नहीं कर देंगे? सच कहती हूँ, मुड़कर देखने पर मुझे स्वयं विश्‍वास नहीं होता कि ‘नाकुछ’ मैं एक असम्भव बात को सम्भव करवा पाई।!

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