निर्वासितों को निर्वासन

01-12-2022

निर्वासितों को निर्वासन

डॉ. कुसुम खेमानी (अंक: 218, दिसंबर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

“ओरे बाबा मोरी रे” कहते हुए चन्दना ने ज़ोर से मेज़ पर अपना बैग पटका और ऊँची आवाज़ में बोली, “भाई, जल्दी से पानी दो।” पानी आते ही उसे एक घूँट में गटक कर, बेंत की कुर्सी पर निढाल होकर उसने सदियों की थकान से चूर स्वर में कहा, “इम्तियाज़ भाई! सलाम आलेकुम, मेहरबानी करके आप झट से मेरे हाथ में एक बढ़िया-सा दार्जिलिंग चाय का कप पकड़ा दीजिए, और हाँ! मेरा वही रोज़ाना वाला ऑर्डर, ब्राउन ब्रेड के दो ड्राई टोस्ट। प्लीज़ . . . अब आप ज़रा जल्दी जाइए और मेरे हुक़्म की तामील कर दीजिए।” इम्तियाज़ मुस्कुराता हुआ भाग छूटा ही था कि उसके कानों में पड़ा, “अरे इम्तियाज़ मियाँ! बड़े लापरवाह हैं आप, हमने न सही, पर आपने तो हमारी फ़्रेंड ज़ारा को देख लिया था, उनका ऑर्डर?” इम्तियाज़ बैरे ने गर्दन झुकाकर दूर से ही चन्दना को जवाब दिया, “मेम साब! हमने एक ग्रीन सलाद और दो टोस्ट पहले ही बढ़ा लिए थे।” 

दरअस्ल चन्दना ने इम्तियाज़ के बेटे को वायस-चांसलर से कहकर अपनी यूनिवर्सिटी में पक्की नौकरी दिलवा दी थी। वो दिन और आज का दिन, इम्तियाज़ उसका ऐसा मुरीद हुआ कि कोई किसी पीर-पैग़म्बर का क्या होगा? वह सोम, बुध और शुक्र को लायब्रेरी के बरामदे में चन्दना की प्रतीक्षा में पलकें बिछाये प्रवेश द्वार पर टकटकी लगाये रहता कि कब मेमसाब आएँ और वह कब उनका हुक़्म बजा लाए। “वाह! क्या बात है! सच मानिए इम्तियाज़ मियाँ, यदि मेरा बस चले, तो मैं आपको देश का प्राइम मिनिस्टर बना दूँ।”

बात ख़त्म करते ही जादवपुर यूनिवर्सिटी की केमिस्ट्री हेड डॉ. चंदना बैनर्जी ने मेरे क़रीब आकर मुझसे ज़ोरों की गलबहियाँ की और वापस उसी लम्बी-चौड़ी आराम कुर्सी में ढलक कर अधलेटी होकर प्रफुल्लित स्वर में बोली, “ज़ारा! बता नहीं सकती कि मैं आज कितनी-कितनी ख़ुश हूँ। लगता है मेरी ख़ुशी की तुलना किसी से हो ही नहीं सकती। हाँ! तुम ठहरी साहित्य की प्रोफ़ेसर और कालिदास की शिष्या, अब मेरी इस स्थिति को तुम्हीं कोई सही शब्द दोे।”

मैंने हिचकिचाते हुए कहा, “क्या आकाश जितनी?” सुनते ही वह शब्दों के खेल पर उतर आई और बोली, “समुद्र जितनी क्यों नहीं?”

“मेरी समझ से समुद्र तो फिर भी कई साधनों से आँखों की परिधि में आ जाता है, पर आकाश अनन्त और असीम ही रहता है।” 

“एकदम ठीक! अनन्त और असीम। वाह!” कहकर वह आँखें बंद कर अंगुलियों से मेज़ पर ताल देती हुई हमारा प्रिय रवीन्द्र संगीत इस तरह गुनगुनाने लगी, मानो मेरी इस उक्ति को धीरे-धीरे अपने अंदर जज़्ब कर रही हो। 

उसके बदहवासेपन, हड़बड़ाएपन और थकान का कारण तो मुझे पता था, पर आज के इस बौराएपन की वजह समझ में नहीं आ रही थी, इसलिए मैंने बात को सिरे से शुरू किया, “चन्दना! मैं जानती हूँ कि तुम अपने वर्त्तमान निवास से दूर शहर के दूसरे छोर पर एक ख़ूबसूरत-सा घर अपने ‘चार्मिंग प्रिंस पुत्र’ के लिए ‘प्रेम के गारे, स्नेह की ईंटें और बेइन्तिहा मोहब्बत के लेप’ से गढ़ रही हो। इसलिए अब मुझे तुम्हारी थकान, तुम्हारा दुबलापन, तुम्हारे माथे की शिकनें समझ में आने लगी हैं, पर आज नियाग्रा फॉल-सा हरहराकर छलछलाता हुआ तुम्हारा यह आनंदित रूप मेरे लिए नया है, क्या ‘खोकोन’ आ रहा है?”

सुनते ही कुर्सी से उछल कर चन्दना बोली, “अरे नहीं भई! उससे भी बहुत बड़ी बात है। जानती हो ज़ारा! खोक़ोन ने सैन फ्रांसिस्को में ही एक वैज्ञानिक लड़की पसन्द कर ली है।”

“बंगाली है?” प्रश्‍न मेरा। 

“अरे बंगाली क्या, वह तो ख़ास हमारी ही जाति की है अर्थात्‌ उच्च ब्राह्मिन ख़ानदान की डॉ. सुनन्दा चैटर्जी। और ज़ारा, ऊपर से सुंदर ऐसी कि कैसी बताऊँ? कौन-सी उपमा दूँ? बस अंदाज़ के लिए समझ लो कि जवान सुचित्रा सेन का सुसंस्कृत संस्करण।”

मैं एकटक उस चन्दना को देख रही थी, जिसकी गम्भीरता, सौम्यता और मितभाषिता हमारे पूरे ग्रुप में नहीं, पूरी यूनिवर्सिटी में प्रसिद्ध थी, आज उसी चन्दना का आह्लाद! समुद्र के ज्वार की तरह सारी सीमाओं को तोड़कर अतिरेकपूर्ण भावोद्गारों में व्यक्त हो रहा था। उसकी ख़ुशी उसके अंतर में ही नहीं, उसके शरीर में भी नहीं समा रही थी। ऐसा लग रहा था कि वह अभी उठेगी और नाचना शुरू कर देगी। मेरी चुप्पी उसे मेरी उदासीनता न लगे, इसलिए मैंने कहा, “वाह चन्दना! तुम्हारे तो मज़े हो गए, एक लम्बे अरसे से तुम जैसी ‘बोउ माँ’ खोज रही थी, उससे कहीं ज़्यादा गुणवती और रूपवती बहू तुम्हें घर बैठे ही मिल गई, ऊपर से बोनस यह कि उसमें तुम्हारे बेटे की पसन्द भी शामिल है। माशा अल्लाह, इससे ज़्यादा बढ़िया तो कुछ हो ही नहीं सकता। भगवान दोनों को सदा ख़ुश रखे और उनकी जोड़ी पूरी धरती और दसों दिशाओं को अपने प्रेम से सुरभित करे। पर देवी, आज के इस शुभ अवसर पर सूखे टोस्ट और चाय के पानी से काम नहीं चलेगा, आज तो सबको मिठाई खिलानी पड़ेगी।” 

मेरे कहने के साथ ही कंजूसी की हद तक मितव्ययी चन्दना ने “ज़रूर! ज़रूर!” कहते हुए पर्स से सौ के नोटों की गड्डी निकाल कर, मेरी हथेली पर रख दी। ख़ास बात यह थी कि उसके इस कृत्य में किसी हेकड़ी या दिखावे का ज़रा-सा भी पुट नहीं था, बल्कि उसकी यह अभिव्यक्ति उसके आनन्द की पराकाष्ठा का इज़हार कर रही थी। 

घर लौट कर जब मैंने उस पूरे दृश्य का ‘रिप्ले’ किया, तो मेरे मन में एक विचित्र-सा उद्वेलन होने लगा। मैं आदतन किसी भी घटना के सभी पहलुओं को, तर्क की कसौटी पर कसे और आतिशी शीशे से परखे बिना स्वीकार नहीं कर पाती हूँ, इसलिए अपनी अभिन्न मित्र की स्थिति ने मुझे कई शंकालु प्रश्‍नों से घेर दिया। मसलन सात समंदर पार के एकदम भिन्न परिवेश में पली-बढ़ी जिस लड़की पर चन्दना बिना देखे-बूझे ही अपनी पूरी आत्मा उड़ेले जा रही है, यदि उस लड़की ने उसका सही प्रत्युत्तर नहीं दिया तो? यदि बेटी की कमी से रिक्त चन्दना के हृदय को वह लड़की अपने प्यार से न भर पाई तो? बावजूद चन्दना की आधुनिकता के, यदि उन दोनों में संस्कारों की टकराहट हुई तो? आदि ढेरों प्रश्‍न लगातार मेरे मानस-पटल पर उभर रहे थे। अंत में मैंने यह सोचकर स्वयं को ज़ब्त किया कि शायद चन्दना के प्रति अति मोह होने के कारण ही ये संदेह मेरे मन में उग रहे हैं। इस स्थिति का एक सकारात्मक पक्ष यह भी तो हो सकता है कि सुनन्दा का गृह प्रवेश चन्दना के जीवन को ख़ुशहाली के रंगों से भर दे, फिर कल किसने देखा है? नाहक़ ही मैं अपने वहमों से, चन्दना की पूर्णिमा के चाँद सी आलोकित ख़ुशी को ग्रहण क्यों लगाऊँ? 

चन्दना के बेटे अभिजित के ‘बोउभात’ में जाकर लगा कि चन्दना का कहना सही था और मेरी आशंकाएँ बेमानी। सुनन्दा की बहू सही मायने में लक्ष्मी और सरस्वती दोनों का समन्वित रूप थी। 

विवाह के बाद भी चन्दना के पैरों में घुँघरू बँधे ही रहे, क्योंकि उसके पास उसके बेटा-बहू थे, लेकिन जब वे चार दिनों की चाँदनी की तरह विदेश लौट गए तो मुझे लगा अब चन्दना का स्नेह-ज्वर उतर जाएगा, पर उनके इस वादे से कि वे जल्दी ही वापस आ जाएँगे, चन्दना फिर से जादवपुर और सॉल्ट लेक की दूरियों को मापती हुई, नए घर को सजाने में जुट गई। 

इसी आशा में एक साल, दो साल और पाँच साल तक बीत गए। वैसे चन्दना के बेटा-बहू उसे और उसके पति को आदर से हर साल अपने पास बुलाते थे और वहाँ से लौटकर बेटे-बहू पर रीझी हुई चन्दना महीनों उनका गुणगान करती रहती थी। 

लेकिन चन्दना जब भी अपने बेटे-बहू से उनकी वापसी की बात पूछती, तो वे प्यार से उसे समझा कर कहते, “माँ! हम ज़रूर आएँगे। बस, अभी अपने परिवार के लिए थोड़ा सा धन जमा कर लें, फिर तो हमेशा के लिए तुम्हारे पास आना ही है।” 

छठे वर्ष चन्दना ने अपने विदेश प्रवास में बेटे से साफ़ साफ़ ही पूछ लिया, “खोकोन! क्या विचार है? कब आ रहे हो तुम लोग? देखो, मैं कुछ टेपेस्ट्री के नमूने लाई हूँ, इन्हें देखकर फ़ाइनल कर दो, ताकि मैं तुम्हारे आने के पहले ही सब कुछ सजा धजा लूँ।”

ज़मीन से जुड़े चन्दना के इस प्रश्‍न को बहुत चतुराई से दरकिनार कर अभिजित ने एक बार फिर उसे आकाशी कल्पना से बहला कर कहा, “ओ माँ! मैं कितना बेवक़ूफ़ हूँ, जो तुम्हें इतनी बड़ी ख़ुशख़बरी देना ही भूल गया। ज़रा ध्यान से सुनन्दा को देखो, कुछ आया समझ में? माँ! यह जल्दी ही तुम्हें दादी बनानेवाली है।”

‘ग्रीन कार्ड होल्डर’ अभिजित और सुनन्दा अपने बच्चे को ‘यू.एस. सिटिज़न’ बनाने का लोभ छोड़ दें, यह बात भला मिस्टर बैनर्जी जैसे बांगाली भद्रलोक और चन्दना जैसी आभिजात्य बांगाली प्रोफ़ेसर कैसे कह सकते थे? 

उन्होंने मात्र, हाँ! हाँ! एकदम ठीक बात है ही नहीं कहा, बल्कि उन्हें सुनन्दा की जच्चगी पर अपनी उपस्थिति का आश्‍वासन भी देते आए। 

पहला बच्चा! दूसरी बच्ची! करते हुए दस साल बीत गए। समय बीता जा रहा था, पर चन्दना के बच्चोें का आना नहीं हो रहा था। उम्र में बड़े होने के कारण चन्दना के पति तो पहले ही रिटायर हो चुके थे, अब चन्दना के रिटायरमेंट का समय भी आ गया था। इस मंशा से कि बेटा बात का मर्म समझ जाए, चंदना ने उससे कहा, “खाकोन! वर्षों की दौड़-भाग से मैं थक चली हूँ और अब यूनिवर्सिटी के मेरे दोनों ‘एक्स्टेंशन’ भी ख़त्म हो रहे हैं। बेटा! मेरी हार्दिक इच्छा है कि अब मैं आराम से अपने पोते-पोतियों के साथ अपने बचपन को दुबारा जियूँ, इसलिए तुम लोग जल्दी से जल्दी घर आ जाओ।”

चन्दना ने सोचा था, चूँकि उसने आज से पहले कभी भी अपने मन की आतुरता को इस खुलेपन से व्यक्त नहीं किया था, इसलिए उसका बेटा उसे जल्दी ही यह ख़बर देगा, कि वे लोग अनय और अपूर्वा के साथ फलाँ तारीख़ को आ रहे हैं। 

चन्दना और मि. बैनर्जी को लौटे कई दिन हो गए थे और ऐसा पहली बार हुआ था कि अभिजित और सुनन्दा का राजी-ख़ुशी तक का फोन नहीं आया था, और न ही चन्दना को किसी भी तरह उनकी लाइन मिल रही थी, ऐसे में एक माँ के दिल में तरह-तरह की दुःशंकाओं का उपजना एकदम स्वाभाविक है। चन्दना की छटपटाहट बढ़ती जा रही थी, पर बूढ़े एवं बीमार पति को लेकर या छोड़कर जाना भी सम्भव नहीं था। विचारों के ‘उलझाड़’ में फँसी वह सोच नहीं पा रही थी कि करे तो क्या करे? चिन्ता के मारे उसका खाना-पीना, नींद आदि भी ग़ायब हो गए थे। जब उसका धीरज एकदम छूट चला, तो लाचार होकर उसने अपनी अमेरिकावासी चचेरी ननद की मिन्नत की कि वह इस ‘वीकेण्ड’ में अभिजित के यहाँ जाकर उसकी खोज़-ख़बर ले, क्योंकि वह ज़रूर ही किसी बड़ी विपदा में फँस गया है। 

चन्दना शत-प्रतिशत आश्‍वस्त थी कि यदि सब ठीक-ठाक निकला तो श्रीलेखा अभिजित को बीवी बच्चों समेत यहाँ भेज कर ही मानेंगी। यह कल्पना कर कि विदेश में रहे हुए बेटा बहू और पोता-पोती के लिए इतने आरामदायक सरंजाम किए जाएँ कि वे विदेश लौटना ही भूल जाएँ, उसने अपना जादवपुर वाला फ़्लैट बेच दिया और उन पैसों से साल्ट लेक वाले बँगले में तीन नये कमरे और आद्योपांत नया ‘इंटीरियर’ करवाना शुरू कर दिया। 

प्रो. चन्दना रिटायर हो चुकी थी, इसलिए वह अपना अधिक से अधिक समय उस घर को सजाने में लगाने लगी। वह उसमें इस क़द्र रम गई थी कि उसने अपनी सितार कक्षाएँ भी बंद कर दीं और केवल अपने जिगर के टुकड़ों के आने की प्रतीक्षा में राह तकने लगी। मि. बैनर्जी जब कभी उसे समझाना चाहते, तो वह उन्हें यह कहकर झटक देती, “आपका दिल ठहरा बाप का सख़्त-दिल जिसमें प्रेम और भावुकता बिलकुल भी नहीं है, पर मैं माँ हूँ, माँ! जिसका हृदय ही नहीं, प्रत्येक शिरा और ख़ून का हर क़तरा तक प्रेम से छलक रहा है। मि. बैनर्जी, आप मुझे न ही टोकें तो अच्छा है, क्योंकि मेरा पक्का विश्‍वास है कि अभिजित सपरिवार इस सप्ताहान्त तक आ ही जाएगा।” 

लेकिन शायद व्यावहारिक पिता मि. बैनर्जी सही थे और एक भावुक माँ ग़लत। क्योंकि एक क्या, कई सप्ताहान्त गुज़र गए पर न श्रीलेखा का कोई जवाब आया और न ही अभिजित से कोई सम्पर्क सध पाया। चन्दना घायल हिरणी सी रात दिन छटपट करती हुई, उस भूत बँगले के चक्कर काटती रहती, पर कौवा उसकी मुँडेर पर नहीं ही बैठा। 

इसी बीच मि. बैनर्जी ने, बीमारी और उम्र से छीजे हुए अपने शरीर की साँस की डोर को कुछ दिनों तक तो बेटे के लिए खींचे रखा, पर अन्तत, उन्होंने हार मान ली। 

अभिजित का फोन न केवल क़रीबियों को, बल्कि दूरदराज़ के रिश्तेदारों तक को भी ‘नो रिप्लाई’ ही मिलता रहा। कई दिनों बाद जब किसी तरह चन्दना के देवर का श्रीलेखा से सम्पर्क हुआ, तो उसने कहा, “दादा, मैं क्या कर सकती हूँ? मैंने अभिजित को पहले भी बहुत समझाया था और बाद में भी उसे ‘बोड़ दा’ की मृत्यु की ख़बर देते हुए कई तरीक़ों से कहा कि उसे कम से कम एक बार तो घर जाना ही चाहिए। मेरे भी अमेरिकावासी होने के कारण मेरी दलीलों को सिरे से नकार पाना तो उसके वश में नहीं था, इसलिए उसने सीधे ‘ना’ न कह कर अपने नाकारापन का इज़हार इस तरह किया, ‘बुआ, तुम्हीं बताओ, अब जाने से क्या लाभ है? वैसे भी ‘अशौच’ का पालन तो मैं कर नहीं पाऊँगा, क्योंकि मेरी यहाँ पर एक के बाद एक बड़ी ‘कॉन्फ्रेंसें’ हैं। बुआ प्लीज़! आप माँ को मीठेे शब्दों में समझा दीजिए ना कि वहाँ जाने से अभिजित का भविष्य पूरी तरह ख़त्म हो जाएगा। क्या वे चाहेंगी कि मैं यहाँ का वैभव और ऐशो-आराम ठुकराकर कंगाल बन जाऊँ? बुआ, आप माँ को यह भी समझाइए कि अब वे यहाँ आ जाएँ, ताकि उनकी पढ़ाई लिखाई का कुछ लाभ उनके पोता-पोती को भी मिले और हमारा किचन भी उनके बनाए पकवानों से महके’।”

अभिजित की कटूक्तियों को बहुत घुमा-फिराकर कहने के बावजूद देवर का कहा चन्दना के मर्मस्थल के बीचों बीच तीर-सा जा चुभा और वह पत्थर होकर एकटक शून्य में देखने लगी। उसकी आँखें बिना पलक झपकाए पूरी तरह स्थिर थीं और उसे अनायास देखने पर लगता था जैसे वहाँ चन्दना नहीं ‘मैडम टूसाड’ का बना कोई मोम का पुतला रखा हुआ है। 

उस असीम शून्यता के कुछ क्षणों के बाद जिस चन्दना ने पति की मृत्यु पर, साहस, धीरज और सौम्यता का उदाहरणीय उदाहरण पेश किया था, वही प्रो. चन्दना! ज़मीन पर सिर पटक कर ऐसा क्रन्दन करने लगी कि वहाँ की दीवारें क्या, हवा तक थरथराने लगी। रिश्तेदारों की पकड़ से पागलों की तरह ख़ुद को छुड़ाकर वह कभी लॉन, कभी बरामदे और कभी छत पर जाती हुई नज़र आती और उसके आस पास खड़ा उसका सारा कुनबा इस चिंता में सहमा रहता कि कहीं वह छत से छलाँग न लगा दे। 

अंत में, चन्दना के पड़ोसी डॉक्टर गांगुली ने बड़ी मुश्किल से उसे ‘कॉम्पोज़’ का एक इंजेक्शन लगाया और सब ने राहत की साँस लेकर, उसे धीरे से बिस्तर पर लिटा दिया। 

चन्दना के अत्यधिक भले स्वभाव के कारण घर बाहर के सभी लोग उस पर जान छिड़कते थे, इसलिए उसकी ड्यूटी के लिए ढेरों लोग लाइन लगाए खड़े थे। दो दिन तक एक-एक कर सबलोग चौबीसों घंटे उसके सिरहाने बैठे ख़ुदा के शुक्र से जब तीसरे दिन उसने आँखें खोली, तो वह पूर्णत, शांत थी। उसकी स्थिर गंभीरता को देखकर हमें विश्‍वास हो गया था कि हमारी पुरानी सखा चन्दना लौट आई है। 

समय पानी की तरह बहने लगा और चन्दना वापस हमारी महफ़िलों की शान बनी हमारी शामों को महकाने लगी। हाँ! इन दिनों उसकी परिचय लिस्ट में एक नाम डॉ. मुजीब का भी जुड़ गया था, जो हमारी ही यूनिवर्सिटी के वाइस चान्सलर पद से रिटायर हुए थे। यदि मुझसे यह प्रश्‍न पूछा जाता कि तुम्हारी ज़िन्दगी का सबसे शरीफ़ इन्सान कौन है? तो मैं तत्क्षण उत्तर देती, डॉ. मुजीब, और मेरा ख़्याल है कि कमोबेश यही उत्तर मेरी सभी सहकर्मी बंधुओं का भी होता। उनकी शराफ़त की इन्तिहा यह थी कि हमें हर वक़्त ऐसा लगता रहता कि बस अभी ही उनकी नाक की अनी से उनकी शराफ़त चू पड़ेगी। अरबी बाप और इतालवी माँ के मिश्रण से बना उनका रूप ऐसा था कि सौ-सौ युसूफ़ों, डेविडों और कामदेवों को उस उन पर वारा जा सकता था। कहना नहीं होगा कि यूनिवर्सिटी की सारी स्त्रियाँ उनसे बेहिसाब मोहब्बत करती थीं और सारे पुरुष एहसासे-कमतरी के मारे बेहद नफ़रत। 

इन दिनों जब इस शख़्सियत का नाम चन्दना की ज़ुबाँ से अक़्सर निकलने लगा, तो हम लोगों ने उसे अपने प्रश्नों से बींधने की कोशिश की। उत्तर में चन्दना ने हमारा मज़ा लेते हुए हँस कर कहा, “यारो जलो मत! हमारी कोई ख़ास रब्तो-ज़ब्त नहीं है। हाँ, चूँकि मुकुल (डॉ. मुजीब का पुकार नाम) मेरी ही तरह एकाकी और अपनी विदेश प्रवासी संतानों के दिए ग़मों के कारण एक दुःखी आत्मा होने के साथ ही मेरा निकटतम पड़ोसी भी है, इसलिए हमारे बीच एक दोस्ताना समझ भी विकसित हो गई है। एक ही जगह रहने के कारण हम दोनों सुबह की सैर भी एक साथ कर लेते हैं और शाम को इकट्ठे ही क्लब आना भी।” उसने यह बात इतनी सहजता से कही कि न तो हमारा ध्यान इस ओर गया कि चंदना अब डॉ. मुजीब को मुकुल कहकर संबोधित करती है और न ही इस ओर कि अब वह उन्हें आत्मीयता से तुम कहने लगी है। क्रमश, डॉ. मुजीब की बात हमारे ज़ेहन से ही निकल गई। 

बीतते वक़्त के साथ उम्र! अपनी थकान से हमें थका रही थी। पहले जो काम हम चुटकियों में कर लेते थे, वही हमसे घंटों में भी पूरा नहीं पड़ता था। हालाँकि हम सभी! सुबह घंटा भर तेज़ टहलते थे और शाम को एक घंटा तैरते भी थे, पर उम्र अपना दाँव खेल रही थी। दौड़ कर सीढ़ी चढ़ती चन्दना भी अब घुटनों पर हाथ रखे धीरे-धीरे सीढ़ियाँ चढ़ती दिखती थी। 

एक दिन अपने रोज़मर्रा के रूटीन के तहत लायब्रेरी से किताबें लेने के बाद, मैं और चन्दना आराम से बैठे चाय पी रहे थे कि चन्दना ने मुझसे सलाह के स्वर में कहा, “ज़ारा! सोचती हूँ कि क्यों न मैं अपना बँगला बेच कर, उन रुपयों की एफ़.डी. करवा लूँ और ख़ुद मुकुल के बँगले में शिफ़्ट कर जाऊँ?” 

“डॉ. मुजीब के पास? क्या उनसे पूछ लिया है?”

“अरे बेवक़ूफ़! यह मेरा नहीं, उसी का प्रस्ताव है।” 

“लेकिन चन्दना, तुम्हारे परिवार वाले ठहरे कट्टर सनातनी, क्या वे तुम्हें ऐसा करने देंगे? ऊपर से डॉ. मुजीब विधुर भी हैं, ऐसे में शायद तुम दोनों का साथ रहना शायद तुम्हारे बच्चों को भी अच्छा न लगे।”

मेरी बात सुनते ही चन्दना ने व्यंग्य से कहा, “ज़ारा! कौन-सा परिवार? किसके बच्चे? ज़रा सोच कर बताओ कि मि. बैनर्जी के गुज़र जाने के बाद के इन सात सालों में कब! किसने! मेरे लिए घड़ी भर भी सोचा है? उस भुतहा घर में अकेली सड़ती हुई यदि मैं भी अपने लोगों की प्राचार्या मिसेज परेरा की तरह पाँच दिनों तक चूहों से खाई गई एक बदबूदार लाश बन कर पड़ी भी रही, तो भी क्या किसी को मेरी सुध आएगी? रही बात हिन्दू-मुसलमान और स्त्री-पुरुष की! तो ज़ारा, लानत है हमारी पढ़ाई-लिखाई पर, जो उम्र के इस पायदान पर खड़े हम ऐसे व्यर्थ के सोच को पनाह दे रहे हैं। ज़ारा, सच मानो, तुम्हारे मन में ऐसे विचारों का आना ही मेरे लिए कल्पनातीत है।”

चन्दना और डॉ. मुजीब को अच्छे दोस्तों की तरह, साथ रहते हुए कुछ ही अरसा बीता था कि दोनों की ‘वे संतानें’ जो अपनी माँ के इंतकाल और पिता की मृत्यु पर भी नहीं आई थीं, बावेला मचाते हुए आ धमकीं और लगीं चन्दना और डॉ. मुजीब को बेइन्तिहा कोसने। उन लोगों ने उच्छृंखल! व्यभिचारी! आदि से शुरू कर क्या-क्या लांछन, अपने माँ-बाप पर नहीं लगाए? पर आश्‍चर्यजनक ढंग से वे दोनों शांत भाव से उनकी गालियों के भंडार के चुकने का इंतज़ार करते रहे। 

अनाप-शनाप बकझक करने के बाद, जब वे लोग साँस लेने के लिए थोड़ा रुके, तो चन्दना और मुकुल दोनों अहिस्ता से उठकर भीतर गए और उन्होंने अपना ‘मैरिज सर्टिफिकेट’ लाकर उनके सामने रख दिया। 

आज चन्दना ने मन ही मन मुकुल की दूरदर्शिता को धन्यवाद दिया कि उसने ज़िद करके इस दोस्ती को एक क़ानूनी शक्ल दे दी थी। पहले तो वे सब स्तब्ध होकर आँखें फाड़े! उस काग़ज़ को उलटते-पलटते रहे, फिर दोनों तरफ़ से एक ही जुमला उछला, “तो क्या माँ आपने! क्या पापा आपने! अपनी सारी ज़ायदाद और रुपया-पैसा एक-दूसरे के नाम कर दिया है?”

सारे प्रश्‍नकर्ताओं को इस प्रश्‍न का जो उत्तर मिला, वह यों था, “हमें किसी के नाम कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है। हमारी ज़रूरियात इतनी कम हैं कि हम अपनी मोटी पेन्शन से मज़े में अपनी गुज़र कर लेते हैं।”

यह सुनते ही दोनों परिवारों के चेहरे फूल-से खिल गए और सम्मिलित स्वर में उन लोगों ने पूछा, “तो आपलोगों ने क्या वसीयत बनाई?”

उनके अधूरे वाक्य में ही उत्तर डॉ. मुजीब का, “वह भी बना दी है। चन्दना, ज़रा इन्हें वसीयत पढ़कर सुना दो।”

दोनों परिवार एकटक, ‘उस माँ’ और ‘उस बाप’ की ओर आशा भरी दृष्टि से देख रहे थे, जो हक़ीक़त में उनके लिए ‘मर’ चुके थे। 

वसीयत, “मैं मुजीब! मैं चन्दना! उस अल्लाहताला, भगवान को हाज़िर-नाज़िर मान कर यह घोषित करते हैं कि हम में से किसी एक के न रहने पर दूसरा उसकी सारी सम्पत्ति का मालिक होगा, और यदि इत्तफ़ाक़ से हम दोनों एक साथ मर जाएँ, तो हमारी पूँजी में से दस-दस लाख रुपए रामतनु और हाराधन को मिलेंगे, जो कि वर्षों से हमारी सेवा कर रहे हैं। हमारी बाक़ी की सारी चल-अचल सम्पत्ति ‘वरिष्ठ नागरिक केन्द्र’ के ‘श्रद्धालयों’ के निर्माण में चली जाएगी। हम आशा करते हैं हमारे बच्चों को हमारे ये निर्णय उचित लगेंगे, क्योंकि उन ‘निर्वासितों’ ने ही हमें अपने जीवन से ‘निर्वासित कर’, हमारे ज्ञान-चक्षु खोले हैं।”

वसीयत का पढ़ना ख़त्म हुए देर हो चली थी, पर अभी भी वहाँ गहरा सन्नाटा छाया हुआ था। . . . बाहर से आई वे सारी मूर्त्तियाँ ऐसी अचल थीं, मानों ‘पोम्पई’ के लावे ने यहाँ तक आकर रवाँ-दवाँ में ही उन सबको पथराए हुए मुजस्मों में बदल दिया हो! . . .

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