ये कैसा तेरा देश है बेटा?

15-04-2024

ये कैसा तेरा देश है बेटा?

महेश शर्मा  (अंक: 251, अप्रैल द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

और अंतत: रोहित ने बाबूजी और अम्मा को राज़ी कर ही लिया अपने साथ पूना चलने के लिए दूरदराज़ देहात में रहने वाले प्रकांड पंडित पक्के कर्मकांडी विद्याधर जोशी जी को सारा गाँव क्या आसपास के ८-१० गाँव के लोग देवता तुल्य मानते थे। उनका ज्ञान उनका सादगी भरा जीवन और अनुशासित दिनचर्या वैदिक काल के ऋषि मुनियों की याद दिलाती थी। प्रातः ४ बजे उठकर गाँव की नदी में स्नान फिर मंदिर में पूजा अर्चना पूरे दो घंटे धार्मिक ग्रंथों का पठन-पाठन करना उनकी रोज़ की दिनचर्या में शामिल था। ग्राम के लोगों के लिए सभी प्रकार की पूजा-पाठ, जन्म–मरण विवाह और अन्य सारे धार्मिक कार्यों के उपलब्ध कुशल ज्ञाता थे पंडित जी। एक मात्र बेटे को उच्च शिक्षा दिलाते समय कई बार उन्हें ये विचार आता था कि ये आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर उनका बेटा उनके अनुसार शास्त्रों का ज्ञाता बनके धर्माचार्य की पदवी तो नहीं लेगा। फिर भी उन्होंने रोहित को सारे धार्मिक संस्कार दिए थे उसे शिक्षा दी थी सनातनी आचार-विचार के अनुसार रहने की। अब रोहित उनके बताये मार्ग पर कितना चल सका था ये सिर्फ़ रोहित ही जानता था। 

रोहित को पूना में आईआईटी की डिग्री लेने के बाद वहीं एक कम्पनी में उसकी नौकरी भी लग चुकी थी। पूरे चार साल से रोहित की माँ की भी बहुत इच्छा थी कि कुछ दिन बेटे-बहू के पास जाकर रहे और रोहित भी चाहता था कि माँ-बापू कुछ दिन उसके पास रहें। हालाँकि वो बहुत संशय में भी था कि बाबूजी को वहाँ का शहरी वातावरण और अनुशासन से दूर की दिनचर्या अच्छी लगेगी भी या नहीं? महानगरों की धकापेल में प्राचीन भारतीय संस्कृति को जीवित रखते हुए सादगी और सच्चाई से रहना कितना मुश्किल था ये किसी से छुपा नहीं था। फिर भी वो अपने माँ बापू को शहरी जनजीवन से भी रूबरू करना चाहता था। यद्यपि उसे मालूम था कि पूना में ना तो रोज़ाना प्रातः स्नान के लिए कोई नदी बहती थी न ही एकदम नज़दीक में कोई मंदिर था जहाँ बापू रोज़ाना स्नान ध्यान कर सके। विद्याधर जोशी को भी ये सारे संशय दिमाग़ में घूम रहे थे फिर भी इन सारे अंतर्द्वंद्वों से गुज़र कर सर्वसम्मति से यह निर्णय हुआ कि कुछ दिन बाहर की दुनिया भी देखी जाये। बेटे के पास भी रहा जाये। और एक दिन शुभ मुहूर्त देखकर ये पूरा परिवार पूना जाने वाली ट्रेन में सवार हो चुका था। 

रात होते-होते गाड़ी पूना पहुँच चुकी थी और जोशी दंपति अपने बेटे के साथ फ़्लैट में आ गए थे उनको बेटे का फ़्लैट जो रोहित की कम्पनी के आवासीय क्षेत्र में एक सात मंज़िला मल्टी में चौथे माले पर था बड़ा अच्छा लगा। गाँव में कच्चे–पक्के मकान गोबर के लीपे आँगन और पतरे की छत के नीचे अपना समय बिताते वहाँ की तुलना में आज बहुत अच्छा लग रहा था। दिन भर के सफ़र के थके हारे माता-पिता के लिए रोहित ने दूसरे बेडरूम में व्यवस्था कर दी थी जहाँ जल्दी ही दोनों सो गए। इधर बेटे ने पत्नी को एक समझाइश दी कि अब तुम थोड़े दिन के लिए मैक्सी या गाउन या जीन्स आदि पहनना बंद कर दो माँ पिताजी को अच्छा नहीं लगेगा। 

पत्नी ने घूर कर पति को देखा, “तुम भी क्या, आजकल तो यह सब कामन हो गया है सभी लोग पहनते हैं। ”

“फिर भी क्या फ़र्क़ पड़ता है महीने 20 दिन की तो बात है। ”

“ठीक है तुम कहते हो तो मुझे कोई तकलीफ़ नहीं है। मैं मैनेज कर लूँगी।” 

अगले दिन सुबह जहाँ रोहित और उसकी पत्नी अपने दिनचर्या के मुताबिक़ 7:30 बजे तक सोए रहे थे लेकिन वृद्ध जोशी दंपति सुबह 5:00 बजे ही उठ गए थे। रोहित की माताजी किचन में चाय बना रही थी तभी बहू की नींद खुली और उसने बड़े आग्रह से बड़े प्रेम से कहा, “माता जी आपने कष्ट क्यों किया मुझे आवाज़ दे देते।”

8 बजते-बजते स्नान ध्यान से निवृत हो जोशी जी ने सूर्य को जल चढ़ाने के लिए बेटे से पूछा। रोहित बड़े असमंजस में था चौथे माले पर था उनका फ़्लैट, जहाँ से कोई खिड़की पूर्व की ओर ऐसी नहीं खुलती थी जहाँ से सूर्य को देखा जा सके। अब या तो तीन मंज़िल नीचे उतर कर सड़क पर खड़े होकर सूर्य को जल चढ़ाया जाए या फिर ऊपर छत जो तीन माले के बाद थी वहाँ चढ़कर छत पर जाकर सूर्य को जल चढ़ाया जाए। 

“पिताजी आप जल पात्र मुझे दे दें, मैं लिफ़्ट से जाकर सूर्य को जल चढ़ा दूँगा। आपके पाँव में दर्द है तो तीन माले नीचे उतरना या तीन माले ऊपर जाना बहुत मुश्किल रहेगा।” 

जोशी जी असमंजस में थे पिछले कई वर्षों से सूर्य को जल चढ़ाने का नियम था उनका। वास्तव में उनके शरीर की स्थिति ऐसी नहीं थी कि वह इतने ऊपर–नीचे जाने की मशक़्क़त कर सकें। उन्होंने मन ही मन सूर्य देवता का ध्यान किया और जल पात्र रोहित को दे दिया। अगले 1 घंटे में उन्होंने भगवान की पूजा संपन्न की। 

“बेटा तुलसी का पौधा कहाँ है?” जोशी जी ने गैलरी में नज़र डालते हुए पूछा।

“पिताजी, पौधा था लेकिन अब सूख गया है। मैं आज ही बाज़ार से ले आऊँगा।”

जोशी जी ने फिर रोहित के चेहरे की और देखा, “बेटा तुलसी का पौधा तो हर गृहस्थ के घर में होना चाहिए, हमारे घर में पवित्रता और देवताओं का वास तुलसी से ही होता है।”

रोहित ने फिर दोहराया, “पिताजी मैं आज ही शाम को लेता आऊँगा।” 

पति पत्नी दोनों ही ऑफ़िस जाते थे 10 बजते-बजते खाना तैयार हो जाता था।

जोशी जी ने खाने पर बैठते ही पहली रोटी गाय के लिए निकाल कर अलग रख दी, “बेटा यह रोटी गाय को दे देना।” इसी तरह खाना खाने के बाद आधी रोटी कुत्ते के लिए भी निकाली उसे भी अलग प्लेट में रखते हुए रोहित को बोला, “गाय और कुत्ते को रोटी दे आ बेटा।” रोहित मन ही मन परेशान था। उसे ध्यान था कि कॉलोनी में कोई गाय ना तो है और ना ही कहीं से आती है और इसी तरह कुत्ते भी। महानगर पालिका की कृपा से एक भी आवारा कुत्ता कॉलोनी में नहीं था। उसने बहाना बनाते हुए कुत्ते और गाय की रोटी लेकर सात साल के बेटे अंशु को दी, “अंशु बेटा नीचे जा और ये रोटी गाय कुत्ते को दे आ।” 

अंशु कुछ कहता, उसके पहले ही उसे होठों पर चुप रहने का इशारा करते हुए उसे पत्नी के सुपुर्द कर दिया। पत्नी ने दोनों रोटियाँ अलग-अलग थैली में रख कर किचन में एक और टाँग दीं। दोपहर भर वृद्ध दंपति आराम करते रहे। यद्यपि गाँव के अनुसार उन्हें सहज नहीं लग रहा था फिर भी बेटे और पोते के साथ रहना उन्हें अच्छा लग रहा था। धीमे-धीमे रात हुई फिर दिन निकला। जोशी जी के स्नान के बाद फिर सूर्य को अर्घ्य देने की बात हुई। रोहित ने जल पात्र लेकर ऊपर छत पर जाकर सूर्य देवता को जल चढ़ाया। कल शाम को बाज़ार से लाया गया तुलसी का पौधा गमले में लगा कर कर गैलरी में रख दिया था। जोशी जी बड़े प्रसन्न हुए तुलसी को जल चढ़ाते हुए वे बोले, “बेटा रोहित हर घर में तुलसी का पौधा ज़रूरी होना चाहिए जिसे रोज़ाना जल चढ़ाना चाहिए। इससे घर में श्री और समृद्धि और शांति बनी रहती है।” रोहित ने फिर यह सब सुना जो वह कल भी सुन चुका था। वह समझता था बुज़ुर्गों को सलाह देने की आदत होती है; उसे क़तई बुरा नहीं लगा। 1 सप्ताह इसी तरह बीता। अचानक रोहित को ऑफ़िस कार्य से कहीं दूर जाना पड़ा। बहू ने खाना तैयार कर दिया था, और ऑफ़िस के लिए निकल गई थी जबकि पोता अंशु घर पर ही था। 

जोशी दंपति ने खाना खाया। गाय की रोटी और कुत्ते की रोटी अलग-अलग निकाली और खाना खाने के पश्चात क्योंकि रोहित नहीं था, जोशी जी ने आज स्वयं नीचे उतर कर गाय व कुत्ते को रोटी देने की सोची। उन्होंने अंशु को साथ में लिया और लिफ़्ट के द्वारा नीचे उतरने लगे। अंशु कुछ-कुछ समझ रहा था। उसने दादा जी से कहा, “दादाजी गाय और कुत्ते को रोटी में दे आऊँगा।” लेकिन जोशी जी नहीं माने। आख़िरकार अंशु दादा जी के साथ नीचे आया, दादा जी ने नीचे उतर कर चारों ओर नज़र दौड़ाई। दूर-दूर तक कहीं कोई कुत्ता या गाय उन्हें नज़र नहीं आ रहे थे। उन्होंने पूछा, “बेटा यहाँ तो कोई गाय या कुत्ता नहीं दिख रहा है?” कुछ देर परेशान रहे वापस ऊपर आए गाय और कुत्ते की रोटी वापस रखी। अंशु भी कुछ जवाब नहीं दे पाया। शाम को बहु जब ऑफ़िस से आई तो दादाजी ने तत्काल प्रश्न किया कि बहू नीचे कॉलोनी में तो कोई गाय कुत्ता ही नहीं मिला तुम कहाँ रोटी देते हो रोज़ाना गाय और कुत्ते की। बहु चौंकी, सहमी लेकिन बड़ी चतुराई से तत्काल बहाना बनाया, “पिताजी यह कहीं दूर जाकर गाय और कुत्ते को रोटी देकर आते हैं, हमारी कॉलोनी में गाय और कुत्ते कम हैं कभी-कभार ही मिलते हैं।” 

“तो बहू यह रोटी भी जाकर दिलवा देना।”

दादा जी कुछ-कुछ संशय में थे; उनकी समझ से बाहर था कि कॉलोनी में गाय और कुत्ते इतनी कठिनाई से मिलते हैं। अगले दो-चार दिन निकले फिर ऐसी स्थिति निर्मित हुई कि रोहित टूर पर था बहू ऑफ़िस जा चुकी थी और पोता भी स्कूल गया हुआ था। सुबह का का खाना खा चुकने के बाद जोशी जी ने रोज़ाना के अनुसार दोपहर में आराम किया और शाम को कुछ चहलक़दमी करने के लिये एक बार नीचे जाने की हिम्मत की और नीचे जाते हुए गाय और कुत्ते को रोटी देने की भी सोच ली। लेकिन, नीचे उतरकर उन्होंने पूरी गली में घूम के देख लिया। कहीं कोई गाय या कुत्ता उन्हें नहीं दिखा। अचानक उन्हें एक दीवार पर बहुत बड़ी सूचना बड़े शब्दों में लिखी हुई दिखी कि कॉलोनी में गाय पालना या रखना प्रतिबंधित है। बिना कॉलोनी प्रबंधन की अनुमति के गाय रखने पर जुर्माना एवं उचित कार्रवाई की जाएगी। 

जोशी जी चौंके! उन्हें आश्चर्य हुआ यह क्या है? हम हमारे देश मैं हैं या किसी विदेश में जहाँ गाय पालने पर प्रतिबंध? गाय को रखने पर जुर्माना यह कैसा नियम है? यह कैसी बस्ती है? बड़े उलझन पूर्ण विचारों में घिरे वापस अपने फ़्लैट की तरफ चले तभी उन्हें बगल वाले फ़्लैट के नीचे वाले निवास पर जाली लगे दरवाज़े से कुत्ता दिखा। दादाजी ख़ुश हुए और उन्होंने तत्काल जाली के बीच से कुत्ते के हिस्से की रोटी अंदर बढ़ा दी और कुत्ते ने तत्क्षण रोटी लपक ली। 

चलो कुत्ते के हिस्से की रोटी तो दी। लेकिन कुत्ते को यह रोटी देना जोशी जी को और बेटे रोहित को भारी पड़ा शाम को जैसे ही रोहित घर पहुँच रहा था पड़ोसी ने उसे रोककर जोशी जी द्वारा कुत्ते को रोटी देने की बात कही और अपनी नाराज़गी प्रकट कर चेतावनी दी कि भविष्य में ऐसा ना हो। 

रोहित जो दिन भर का थका-हारा, लंबा टूर पूरा करके आ रहा था, बेचैन हो गया उसे समझ नहीं आ रहा था कि किस प्रकार गाँव में रहने वाले माता-पिता को यहाँ के वातावरण के अनुकूल समझाया जाए, उन्हें क्या बताया जाये! उसने अपने आप को सहज किया और ऊपर आकर पिता जी से विनम्रतापूर्वक कहा कि आप नीचे पड़ोसी के कुत्ते को अब कभी भी रोटी ना दें। 

"क्यों बेटा कुत्ते को रोटी देने में क्या हुआ?”

“पिताजी वह सड़क का आवारा कुत्ता नहीं है। किसी का पालतू कुत्ता है।” 

“तो पालतू कुत्ता है तो क्या हुआ?”

“हम किसी के पालतू कुत्ते को कुछ भी खाने की चीज़ नहीं दे सकते। क्योंकि इसमें कुत्ते के मालिक को डर रहता है कि कोई कुछ ग़लत चीज़ ना खिला दें।” 

जोशी जी को कुछ भी समझ में नहीं आया कि कुत्ते को कोई ग़लत चीज़ क्यों खिला देगा? फिर उन्होंने पूछा, “अच्छा बेटा यह पालतू कुत्ता है तो गली के सारे कुत्ते कहाँ है?”

“पापा यहाँ कॉलोनी में कोई भी आवारा कुत्ता नहीं है। कोई होता भी है तो नगरनिगम को सूचना दे दी जाती है, वह उसे पकड़कर ले जाते हैं। इसलिए यहाँ कुत्ता नहीं मिलेगा। आप रोटी अलग रख दिया करें मैं कुछ दूर के इलाक़े में जाकर कुत्ते को दे आऊँगा।” 

असमंजस में पड़े जोशी जी ने बेटे के चेहरे को देखा कुछ सोचा फिर पूछा, “अच्छा बेटा कुत्ते कॉलोनी में नहीं है क्योंकि उन्हे नगरनिगम वाले पकड़ ले जाते हैं पर गाय? गाय क्यों नहीं है? और मैंने पढ़ा कि गाय को पालना या रखना जुर्म है, प्रतिबंधित है जो गाय को पालेगा या रखेगा उस पर जुर्माना किया जाएगा और उस पर कार्यवाही की जायेगी इसका क्या मतलब?”

पिता के प्रश्नों से परेशान रोहित ने कहा, “पिताजी मुझे इसके बारे में कुछ भी नहीं मालूम यह कॉलोनी का नियम है। हम यहाँ रहते हैं इसलिए हमको इन नियमों का पालन करना पड़ेगा और वैसे कारण यह बताते हैं कि गायों के रखने से गंदगी होती है, सड़कें और वातावरण ख़राब होता है।” 
यह कारण सुनकर जोशी जी और विचार में पड़ गए। 

“गायों के रखने से वातावरण ख़राब होता है यह तो मैंने जीवन में आज सुना है बेटा। हम भारत देश में रहते हैं जहाँ गाय की पूजा होती है। हमारे धर्म में गाय पालने का उसे रोटी और चारा खिलाने का बहुत पुण्य माना गया है। इस कॉलोनी में रहते कौन लोग हैं यह तो बता?”

“पिताजी सब तरह के लोग रहते हैं।” 

“तो उन्हें गाय और कुत्ते को रोटी देने की ज़रूरत नहीं पड़ती है?”

अब रोहित कैसे बताता पिताजी को कि यहाँ पर भी रहने वाले सभी लोग सभ्य समाज के हैं, लेकिन यहाँ कोई सूर्य को अर्घ्य देने वाला नहीं है या तुलसी के पौधे को जल चढ़ाना बहुत आवश्यक नहीं है या कुत्ते की रोटी अथवा गाय की रोटी निकाल कर उसे देने वाले लोग शायद ही कोई हों और किसी के पालतू कुत्ते को कुछ खिलाना अपराध है और कॉलोनी के नियम के अनुसार गाय पालना या रखना भी प्रतिबंधित है और जुर्माने के योग्य है। यह सारी बातें तर्क करने पर विचार करने पर ज़रूर विचित्र लगें किंतु यह सारी बातें शहरों के दैनिक जीवन में सामान्य ढंग से हो रही हैं। रोहित को ध्यान आया पिछले 7 दिनों से दो अलग-अलग थैलियों में गाय और कुत्ते की रोटी इकट्ठी हो रही है उसे कुछ अपराध बोध हुआ उसने पत्नी से बोला, “दोनों थैलियाँ मुझे दो। मैं गाय, कुत्ते को ढूँढ़ कर उन्हें रोटियाँ खिला कर आता हूँ।” पत्नी से रोटियों की थैलियाँ लेकर रोहित निकला गाय और कुत्ते को खोजने। लगभग पाँच-सात किलोमीटर जाने के बाद रोहित को सड़क के कुत्ते भी दिखे और गाय भी दिखी। दोनों को लाई हुई रोटीयाँ खिलाकर अपने आप में संतुष्ट हुआ रोहित। उसका अपराध बोध कुछ कम हुआ। 

इधर जोशी जी बड़े परेशान से थे रात में अपनी पत्नी से चर्चा करने लगे, “भई हम लोग तो यहाँ ज़्यादा दिन नहीं रह पाएँगे। बड़ा अजीब देश है ये यहाँ सूर्य को अर्घ देना मुश्किल, तुलसी का पौधा नहीं, गाय कुत्ते को रोटी देने जाओ तो गाय कुत्ते ही नहीं मिलते हैं। शनिवार के दिन कोई माँगने वाला या दान दक्षिणा लेने वाला कोई भी नहीं। तो ऐसे कैसे धर्म-कर्म होता होगा। लोग यहाँ कैसे ज़िंदा हैं बिना इन सब बातों के। यह तो अपना समाज और अपनी संस्कृति नहीं है।” पत्नी ने समझाईश दी, “अपने गाँव के देहात के नियम अलग होते हैं और शहर के नियम अलग होते हैं आप परेशान मत रहो।

“गाँव हो या शहर इंसान तो इंसान हैं। धर्म-कर्म तो सभी का एक जैसा होता है। ख़ैर हमें क्या करना है। हमें आठ-पंद्रह दिन और रहना है फिर अपना गाँव भला और अपन भले,” पत्नी ने समझाया “अभी तो 10 दिन हुए हैं। श्राद्ध पक्ष आ रहा है उसके बाद हम अपने गाँव चल चलेंगे।” 

जोशी जी को अचानक ध्यान आया, “अरे भाई श्राद्ध पक्ष में तो बड़ी तकलीफ़ रहेगी।” 

“क्यों?”

“एक तो गाँव वाले हमको बहुत याद करेंगे श्राद्ध पक्ष में भोजन के लिए, दूसरे यहाँ जो हम को बुलाएँगे वह लोग क्या हैं? कैसे हैं? उनका रहन-सहन उनका खानपान कैसा है हमें पता नहीं। हमें उनके यहाँ भोजन के लिए जाना चाहिए या नहीं?”

“सब हो जाएगा तुम चिंता मत करो।” 

“ठीक है तुम कहती हो तो पिताश्री का श्राद्ध सप्तमी के दिन आ रहा है। उसे संपन्न करके हम गाँव जाने की सोचेंगे।” 

इसी तरह असमंजस पूर्ण दिनचर्या के चलते श्राद्ध पक्ष के सात दिन बित गए। सप्तमी तिथि कल ही थी। जोशी जी आश्चर्य में थे कि इन 7 दिनों में उन्हें कहीं से भी भोजन का कोई निमंत्रण नहीं आया। यद्यपि पत्नी ने उन्हें अच्छे से समझा दिया था कि, किसको मालूम है कि इस घर में ब्राह्मण देवता जोशी जी पधारे हुए हैं इसलिए कोई कैसे बुलाएगा? बेटे रोहित ने भी बताया कि पिताजी यहाँ ऐसा कोई ज़्यादा चलन नहीं है भोजन करने बुलाने का या जाने का। 

इस बात पर तो जोशी जी नाराज़ हो गए, “बेटा श्राद्ध पक्ष या पितरों को आह्वान करना यह कोई चलन या शौक़ वाली बात नहीं है, यह तो धर्म वाली बात है, हमारे कर्तव्य की बात है कि हम पितरों को संतुष्ट रखें तो उनके आशीर्वाद से हमारे घर में सुख शांति धन वैभव बना रहता है। क्या यहाँ के लोग श्राद्ध को भी नहीं मानते?” 

“मानते तो हैं पिताजी लेकिन किसी को श्राद्ध पक्ष में खाना खाने बुलाना सरल नहीं है। अधिकांश लोग श्राद्ध का भोजन नहीं पसंद करते।” 

“क्यों?”

अब इस क्यों का जवाब क्या देता रोहित। 

“लोगों को पसंद नहीं है पिता जी श्राद्ध का भोजन।”

“बेटा ये पसंद की चीज़ नहीं है, यह ब्राह्मण का धर्म है। श्राद्ध पक्ष में पितरों के निमित्त भोजन करना कोई भी ब्राह्मण कैसे इस बात से इंकार कर सकता है?”

“पिताजी यह सब ग्राम-देहातों में ही सरलता से संभव है। यहाँ मुश्किल पड़ती है। अब समय बदल चुका है, लोग बदल गए हैं।” 

“तो क्या हमारी संस्कृति, हमारा धर्म, हमारे रीती-रिवाज़ ही बदल गए? अच्छा चलो इन को छोड़ो कल पिताजी का श्राद्ध है किनको-किनको बुलाया तूने?”

“पिताजी सोचना पड़ेगा।” 

“सोचना पड़ेगा . . . मतलब?”

“हाँ, किसको बुलाएँगे? कौन आएगा? क्योंकि मेरे ऑफ़िस के परिचित लोग तो बहुत दूर रहते हैं। नीचे कॉलोनी वालों के बारे में मैं ज़्यादा जानता नहीं। हमारी मल्टी में इस फ़्लोर वालों से मेरी दोस्ती है। इन 5 फ़्लैट में दो ब्राह्मण हैं जिसमें एक शर्मा जी तो कहीं आते-जाते नहीं दूसरे उपाध्याय जी हैं उनसे मैं बोलता हूँ।” 

आश्चर्यचकित जोशी जी रोहित से ब्राह्मणों की उपलब्धता का यह बखान सुनकर अवाक रह गये। 
“बेटा तो हर साल क्या करता है? श्राद्ध पक्ष में किन को भोजन करवाता है? हमारे गाँव में तो किसी के भी यहाँ श्राद्ध हो 5-7 लोगों को बुलाना तो आम बात है जिसमें ब्राह्मण भी होते हैं और रिश्तेदार भी होते हैं।” 

“पिताजी यहाँ तो एक ब्राह्मण भी मिल जाए तो ग़नीमत है।”

“अच्छा बेटा पिछले दो सालों में तूने किनको बुलाया था?”

रोहित को लग रहा था पिताजी के सामने उसकी सारी पोल खुल रही है, सारी लापरवाही उजागर हो रही है। लेकिन वो करता भी क्या यहाँ कैसे संभव है इन सब नियमों का पालन करना और ज़्यादातर लोग कहाँ करते ये सब। हैं!

“पिताजी मैं तो पिछले दोनों सालों में मंदिर के पुजारी को श्राद्ध के भोजन लिए दो सौ दे देता था।”

"मतलब तू ने 2 साल से पितरों को उनका भोज्य दान नहीं दिया? उन्हें भूखा प्यासा ही रखा?"

“पिताजी अब यहाँ तो यह सब . . .”

“बेटा बिना उनको संतुष्ट किए हम भी सुखी संपन्न नहीं रह सकते। चलो अब प्रायश्चित करेंगे। तुम ऐसा करो . . . कम से कम 5 ब्राह्मणों को कल आने के लिए बोल दो।”

“पिताजी 5 तो बहुत मुश्किल है। मैं एक उपाध्याय जी को राज़ी करने की कोशिश करता हूँ।” और रोहित ने ऑफ़िस जाते समय उपाध्याय जी के पास जाकर निवेदन किया। श्राद्ध पक्ष के भोजन का उपाध्याय जी का वैसा ही जवाब था “यार आजकल मैं श्राद्ध पक्ष में भोजन करने नहीं जाता।” रोहित ने पुनः आग्रह किया, “उपाध्याय जी मैं ज़्यादा आग्रह नहीं करता लेकिन पिताजी हैं जो मानने को तैयार नहीं है। प्लीज़ मेरी समस्या को दूर करो। श्राद्ध पक्ष के ब्राह्मण की तरह नहीं पर मेरे एक दोस्त की तरह ही भोजन करने आ जाओ।” 

“ठीक है रोहित भाई ऐसा है तो मैं आ जाऊँगा।” उपाध्याय जी ने अपनी सहमति दी रोहित खुश हुआ उसने पिताजी को बता भी दिया कि एक ब्राह्मण तो आ रहे हैं बाक़ी हम मंदिर में जो भी दान देना होगा दे देंगे। 

मन में सोचते जोशी जी ने जो भी हो पा रहा है उसी में संतोष करते हुए कल की तैयारी शाम को ही कर डाली। बड़े सवेरे उठ बैठे। स्नान ध्यान किया अपने स्वर्गीय पिता का फोटो पूजा स्थल पर रखा रामायण पाठ किया। उधर किचन में भी रसोई तैयार हो रही थी। बेटे को रात को ही स्पष्ट कर दिया था कि दादा जी को श्राद्ध की पूरी प्रक्रिया पूरी करने के बाद ही ऑफ़िस जाना होगा। पिछले वर्षों तो दोनों पति-पत्नी 10:30 बजे तक ऑफ़िस के लिए निकल जाते थे किंतु आज दोनों को ऑफ़िस से छुट्टी लेना पड़ी। 10 बजते-बजते सारी तैयारियाँ, पूजा-पाठ हो गई थी। दादा जी ने अपने स्वर्गीय पिता के लिए अग्नि में आहुति दी। रोहित उपाध्याय जी को बुलाने जाने लगा तभी जोशी जी ने रोहित से कहा, “तुम गाय और कुत्तों की रोटी दे कर आओ, तब तक मैं पितरों के लिए भोजन देने ऊपर छत पर जाकर कव्वों को बुलाता हूँ” और वे पितरों का ग्रास थाली में निकालते हुए कौवा को खिलाने के लिए छत पर जाने लगे। रोहित ने कहा, “पिताजी कव्वे होंगे क्या वहाँ?” जोशी जी मुस्कुराए बोले, “बेटा यही तो चमत्कार है। तू देखना मैं एक आवाज़ लगाऊँगा और ढेर सारे कव्वे जाने कहाँ से चले आएँगे। गाँव में हमारी छत पर ढेरों कव्वे इकट्ठे हो जाते थे।”

संशय की स्थिति में डूबे रोहित ने कहा, “पिताजी आप यहीं बैठें। कौव्वों को ग्रास में खिला कर आता हूँ।” 

लेकिन जोशी जी नहीं माने, “बेटा यह कार्य तो मुझे ही करना पड़ेगा अपने पिता के लिए।”

विवश होकर रोहित को पिता के साथ छत पर जाना पड़ा। रोहित ने आसमान की ओर देखा अभी तो ऊपर आसमान में दूर-दूर तक कोई कौआ नज़र नहीं आ रहा था। लेकिन जोशी जी को विश्वास था कि जैसे ही काँव-काँव की ध्वनि से कौव्वों को याद किया जाएगा, चले आएँगे सब, क्योंकि यह कव्वे ही पितरों के वाहक होते हैं। इन्हीं के द्वारा पितरों के हिस्से का भोजन पहुँचाया जाता है और उन्हें प्राप्त होता है। 

जोशी जी ने हाथ में कुछ भोजन का अंश लिया और आकाश की ओर मुँह करके कांव कांव कांव कांव करते हुए कोव्वों को आमंत्रित करने लगे। कुछ क्षण रुके फिर आवाज लगाई काँव काँव काँव जोशी जी के अनुसार अब तक तो कौव्वों को आ जाना था लेकिन किसी भी ओर से कोई कव्वा आता नहीं नज़र आया। उनकी नज़र रोहित पर पड़ी जो सहमा हुआ-सा खड़ा था। जिसे अंदेशा था कि ऐसा भी हो सकता है कि एक भी कव्वा ना आये। उसे अनुमान था क्योंकि आजकल कौव्वे कहाँ दिखते हैं और कव्वे ही क्या चिड़ियाँ या अन्य पक्षी भी इक्का-दुक्का ही नज़र आते हैं। 

“क्यों रे रोहित यहाँ तो अभी तक कोई कव्वा नहीं आया?”

“पिताजी आजकल कव्वे भी बहुत कम हो गए हैं।” 

“अरे ऐसा कैसे हो सकता है? श्राद्ध पक्ष में कव्वे नहीं आएँगे तो पितरों को ग्रास ग्रहण कैसे होगा श्राद्ध कर्म पूर्ण कैसे होगा,पितरों को उनका भाग कैसे मिलेगा?”

“लेकिन पिताजी हम पितरों के नाम की आहुति अग्नि को समर्पित कर चुके हैं वह पर्याप्त है।” 

“नहीं बेटा अग्नि में आहुति देना अलग बात है वह प्रतीकात्मक होती है। लेकिन भौतिक रूप से तो ये कव्वे ही पितरों के वाहक हैं,” कहते हुए जोशी जी ने फिर आवाज़ लगाई कांव-कांव कांव-कांव लेकिन कोई असर नहीं हुआ दूर-दूर तक कोई कव्वा नहीं दिखा हाँ दूर कहीं छत की डोली पर दो-तीन चिड़िया ज़रूर चहकती हुई मिलीं। बेटे ने कहा, “पिताजी इन चिड़ियों को ही खिला देते हैं।” 

जोशी जी नाराज़ हो गए, “बेटा तू कैसी नास्तिक जैसी बात कर रहा है। जो शास्त्र में विधान है वही तो उचित होता है।” 

बेटा परेशान था 11:00 बजने जा रहे थे। उसे ऑफ़िस भी जाना था नीचे उपाध्याय जी इंतज़ार कर रहे थे खाने पर बुलाने का। और थक हारकर निराश होकर जोशी जी किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में बोले, “अब क्या करना हमारा भोजन नहीं मिलेगा पितरों को और वे भूखे ही रहेंगे।” बेटा भी चुप था। क्या जवाब देता क्या उपाय सुझाता? 

“ऐसा कर तू कुत्ते और गाय को तो उनका भाग दे के आ तब तक मैं कोशिश कर लेता हूँ नहीं तो फिर . . .”

रोहित समझ रहा था गाय और कुत्ते को रोटी देने जाना मतलब कम से कम आधा घंटा और। तत्काल रोहित ने नीचे आकर माता जी को सब बताया और कहा, “माँ सबको देर हो रही है कव्वे अब नहीं आने वाले।” 

जोशी जी की पत्नी ने धीरे-धीरे ऊपर जाकर काँव काँव करते पंडित जी को समझाया, “आप ही कहते हो ना कि धर्म और अधर्म देश काल समय परिस्थिति के अनुसार होता है। समय और स्थिति से प्रभावित होता है, तो अब नीचे चलो यहाँ कव्वे नहीं आएँगे।”

विवश पंडित जी नीचे उतरे कव्वों के लिए निकाला गया निर्धारित हिस्सा अलग थाली में रख दिया गया। तब तक बेटा वापस आ गया था। उसने बड़े विश्वास और हर्षित होकर कहा, “पिताजी रास्ते में एक बग़ीचा और नदी थी। वहाँ कुछ कव्वे मुझे दिखे हैं मैं ऑफ़िस जाते समय यह उन को खिला दूँगा।” 

“लेकिन बेटा पितरों को तो पहले खिलाना चाहिये।” 

“प्लीज़ पिताजी बहुत देर हो चुकी है उपाध्याय जी भी इंतज़ार कर रहे हैं। माँ खाना लगाओ।” और रोहित बिना पिता की प्रतिक्रिया का इंतज़ार किए उपाध्याय जी को बुला लाया। 

जोशी जी बड़े बेमन से भोजन पर बैठे। लेकिन उपाध्याय जी को देखते ही उनका आलोचनात्मक दिमाग़ फिर चलने लगा। 

“उपाध्याय जी आप तो ब्राह्मण है ना तो आपकी दिनचर्या धर्म-कर्म पूजा-पाठ आदि कैसे होती होगी?”

“क्यों ऐसी तो कोई बात नहीं।” 

“अरे उपाध्याय जी यहाँ सूर्य को नमस्कार करना है या जल चढ़ाना है तो सूर्य के दर्शन नहीं होते, तुलसी को जल चढ़ाना नहीं होता है एक छोटे से गमले में पौधा लगा है। गाय की रोटी किसको देना गाय नहीं है, खाना खाने के बाद कुत्ते की रोटी देने को कुत्ता नहीं है। किसी याचक को या ब्राह्मण को कुछ अन्न दान देना तो कहीं दूर-दूर तक कोई माँगने वाला नहीं है और हाँ अब श्राद्ध पक्ष आया तो यहाँ पितरों का भाग ग्रहण करने वाले कव्वे तक नहीं हैं। मुझे तो बड़ी मुश्किल से एकाध चिड़िया मिली। यह कैसा शहर है? इंसान ही इंसान हैं और किसी पशु-पक्षी को रहने का कोई अधिकार नहीं है। गाय को पालने पर जुर्माना देने की चेतावनी लिखी हुई है।” 

उपाध्याय जी चुप थे क्या बोलते। बेटा भी चुप था उन्हें लग तो रहा था कि जोशी जी सारी बात सही कर रहे हैं। लेकिन उन्होंने कभी इन बातों पर ध्यान ही नहीं दिया था कि यहाँ गाय या कुत्ते या कव्वे या अन्य पशु पक्षी बहुत कम दिखते हैं। हम सिर्फ़ इंसानों के बारे में ही सोच रहे हैं। अपना ही स्वार्थ पूरा कर रहे हैं हम सबसे अलग होते जा रहे हैं हमें सिर्फ़ अपने अस्तित्व की चिंता है। इन्हीं विचारणीय समस्या ग्रस्त झंझावातों के बीच उपाध्याय जी भोजन कर चले गए। बेटे ने पत्नी से कव्वों को खिलाने वाले भोजन की थैली ली और दौड़ पड़ा ऑफ़िस की ओर। इधर अपने कमरे में आराम करते जोशी जी पत्नी से कह रहे थे, “देखो भाई अब हम यहाँ दो-चार दिन से ज़्यादा नहीं रहेंगे। सर्व पितृ अमावस्या के पहले गाँव पहुँच जाएँगे। वहाँ बाक़ायदा फिर श्राद्ध करेंगे पितरों को संतुष्ट करेंगे और अपनी सही दिनचर्या फिर से शुरू करेंगे।” पत्नी क्या कहती?

उसे जोशी जी का धर्म-कर्म और नियम पूर्ण जीवन भी ग़लत नहीं लग रहा था और महानगर में रहते हुए जीवन की विषमताओं से संघर्षरत रहते हुए अपने अस्तित्व को स्थापित करने के प्रयास में लगे बेटे बहू भी ग़लत नहीं लग रहे थे। उसने कुछ भी सोचना बंद कर दिया क्योंकि कोई समाधान सामने नहीं था।

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