जौहर—नारी अस्मिता का हथियार या भावनात्मक आत्महनन 

01-12-2024

जौहर—नारी अस्मिता का हथियार या भावनात्मक आत्महनन 

महेश शर्मा  (अंक: 266, दिसंबर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

जौहर शब्द ‘जीव’ और ‘हर’ से मिलकर बना है, जिसका तात्पर्य है, अपनी अस्मिता की, अपनी पवित्रता की सुरक्षा के लिए किया गया आत्मोसर्ग। यह भारतीय पुरातन संस्कृति की उच्चतम मान्यताओं और परम्पराओं में से एक कही जा सकती है। जिसमें अपनी सात्विकता और यौनिक शुचिता को सर्वोपरि मानते हुए उसकी रक्षा के लिए स्वयं को अग्नि में जीवित होम कर देना। जब विधर्मी शत्रु क़िले को घेर लेता था, उसे हराना असम्भव लगने लगता था और पराजय के बाद यह भय सताने लगता था कि यदि विजयी शत्रु जीत के बाद क़िले में प्रवेश करेगा, समस्त नारी शक्ति का अपमान करता हुआ उन्हें बंदी बनाएगा या विजित सिपाहियों में बाँट देगा या बाज़ारों में नीलाम कर उनकी इज़्ज़त से पवित्रता से खिलवाड़ करेगा। इस अपमान से बचने के लिए ये वीरांगनाएँ, ये राजपूत स्त्रियाँ सामूहिक रूप से स्वयं को धधकती आग में कूद कर प्राणोत्सर्ग कर देती थीं। यानी जानते-बूझते बहादुरी के साथ मृत्यु के आलिंगन का इतिहास जो जौहर के रूप में भारतीय राजपूत वीरांगनाओं के महान बलिदान के रूप में वर्णित है। 

धर्म से जुड़ी कई-कई मान्यताओं या परम्पराओं का प्रभाव समाज के निम्न और मध्यम वर्ग के सामान्यजन समुदाय पर ज़्यादा पड़ता है—ऐसा प्राचीन काल से देखा गया है। उच्च वर्ग सारी पुरातन परम्पराओं को अपनी सुख-सुविधा अनुसार परिवर्तित कर लेता है लेकिन जौहर की यह परम्परा मुख्यतः सत्तासीन राजपूत वर्ग की क्षत्राणियों द्वारा अपनाई जाती रही है। आज का आधुनिक समाज एवं शिक्षित प्रगतिशील नारी समूह शायद इस पक्ष में नहीं होगा कि नारी अस्मिता या यौनिक शुचिता के नाम पर अपने प्राण तक न्योछावर कर दे। गिरते मानवीय मूल्यों और बदलते चारित्रिक प्रतिमानों के बीच यह मान्यता अत्यंत तेज़ी से कमज़ोर होती जा रही है कि स्त्री को अपने कौमार्य की सुरक्षा करनी चाहिए तथा उसे अपने होने वाले जीवनसाथी को अक्षत रूप में सौंपना चाहिए। 

विश्व समुदाय में सम्भवतः यह पवित्र और दुस्साहसी परम्परा सिर्फ़ भारत में ही होगी वो भी मुख्यतः सत्तासीन राजपूत समाज में और चूँकि राजस्थान में राजपूतों की रियासतें बड़ी संख्या होने से, विदेशी आक्रान्ता से, या स्पष्ट कहें तो, मुस्लिम शासकों से अपना सतीत्व और आबरू बचाने के लिए किये गए जौहर की अधिकतम घटनाएँ इसी प्रदेश की है। 

अपनी मातृभूमि की, अपने धर्म की स्वतन्त्रता और अपने सत्व की रक्षा के लिए अपने परिजन बेख़ौफ़ होकर युद्धभूमि में शत्रु पर टूट पड़ें, उन्हें अपनी सहधर्मिणीयों के अपमान की चिंता न हो इसलिए ये वीर क्षत्राणियाँ एक नहीं हज़ारों की संख्या में अपने सुकोमल शरीर को अग्नि की लपटों में सहर्ष स्वाहा कर देती थीं जिसकी कल्पना मात्र से हमारे रोम-रोम सहम जाते हैं। 

जौहर की यह पूरी प्रक्रिया भी इतनी उद्वेल्लित कर देने वाली होती थी कि कमज़ोर हृदय वाले तो यह सब देख सुन कर ही अपना होश खो दें। प्राप्त जानकारियों के अनुसार शत्रु पक्ष के आक्रमण का सामना करने जाते समय जब यह सम्भावना बनने लगती थी कि विधर्मी शत्रु की जीत निश्चित है और उसके पश्चात् उनके सतीत्व पर उनकी पवित्रता पर आँच आ सकती है तो जौहर का निश्चय कर उसकी तैयारियाँ की जातीं थीं। 

सर्वप्रथम लकड़ियों की, और हो सके तो चन्दन की सुगन्धित लकड़ियों की बड़ी चिता सजाई जाती थी। उसमें अत्यधिक ज्वलनशील सामग्री जैसे घी, राल, तेल आदि द्रव्य डाले जाते थे। फिर राजपुरोहितों और ब्राह्मणों द्वारा मंत्रोच्चार से अग्नि उत्पन्न की जाती थी। दुर्ग की समस्त स्त्रियाँ स्नान कर अपने शरीर पर चन्दन का लेप कर सम्भव हो तो अपने पति से विदा ले भूमि को चूम कर स्वयं को दहकती आग में समर्पित कर देती थीं। कितना जोशपूर्ण साहसिक और हृदय कँपा देने वाला दृश्य होगा वह जब ऐसे आयोजन में असंख्य स्त्रियाँ अपना बलिदान कर देती थीं। 

जौहर के ही समानांतर एक और बलिदानी प्रक्रिया है जो पुरुष योद्धाओं और बालकों द्वारा भी सम्पन्न की जाती रही है। जब यह स्पष्ट हो जाता था कि अब दुश्मनों से हार होनी ही है तब स्त्रियों के जौहर के तत्काल बाद शेष रहे पुरुष योद्धा और बच्चे भी अपनी धार्मिक पूजा सम्पन्न कर माथे पर तिलक लगा कर स्वयमेव आगे निकल कर मुग़लों की विशाल सेना से भिड़ जाते थे और अपने प्राण न्योछावर कर देते थे। यह बलिदान ‘साका’ कहलाता था। 

हम जौहर की घटनाओं का इतिहास खंगालें तो पायेंगे कि सर्वप्रथम सन्‌ 712 में जब सिंध का राजा दाहिर सेन था और उस पर मोहम्मद बिन कासिम ने आक्रमण किया था। तब दाहिर सेन की पराजय और हत्या के बाद सामी रानी ने अपनी साथी रानियों के साथ विषपान कर जौहर किया था। यद्यपि जौहर कर अपने प्राणों का बलिदान करने वाली प्रतापी सामी रानी ने अपने पंद्रह हज़ार सैनिकों के साथ मुहम्मद बिन कासिम की सेना का मुक़ाबला किया। लेकिन जब लगने लगा कि अब शत्रु पक्ष का पलड़ा भारी है और उनकी हार सुनिश्चित है तब सामी रानी ने स्पष्ट घोषणा की कि अब हमारी सुरक्षा की स्वतन्त्रता की कोई आशा नहीं रह गई है अतः हमें काष्ठ तेल और रूई घी का सहारा लेकर प्राण त्याग कर दूसरे लोक में अपने पतियों से मिल जाना उचित होगा। क़िले में उपस्थित समस्त महिला वीरांगनाओं ने एकमत से रानी सामी की बात का समर्थन किया और इस महान पवित्र सनातन भूमि पर दुर्ग के एक बड़े से भवन में सामूहिक जीवन त्याग कर भारतीय मध्ययुग के प्रथम जौहर कि मिसाल रखी और आने वाले समय में मुस्लिम आक्रान्ताओं से अपने स्त्रीत्व को बचाने के लिए अपनाया जाने वाला अंतिम अस्त्र निरूपित किया। उसके पश्चात कई बार छोटे-बड़े जौहर राजस्थान की वीर भूमि पर होते रहे, जिसमें अकेले चित्तोड़ में ही तीन बार जौहर किया गया। पहला 1303 ई. में रानी पद्मावती का अपनी सत्रह हज़ार सह-रानियों के साथ किया गया जौहर सर्वाधिक चर्चित और जन-जन में उल्लेखित है, तथा जो आंशिक रूप से तर्क-वितर्क के दायरे में भी है। उसके बाद 1535 में राणा सांगा की विधवा रानी कर्णावती ने 8 मार्च 1535 में और तीसरा 1568 ई. में महान कहाने वाले मुग़ल अकबर के आक्रमण के समय जौहर भी हुआ और साका भी किया गया। युद्ध के बाद जब अकबर ने चित्तौड़ के क़िले में प्रवेश किया तो उसे एक भी जीवित स्त्री या पुरुष नहीं मिला। इसके अलावा जेसलमेर में 1299 और 1326 ई. में, रणथंबोर के क़िले में 1301 ई. में अलाउद्दीन खिलजी के समय, फिर कर्नाटक के कांपिली में 1327 में मोहम्मद बिन तुगलक के समय। मध्य प्रदेश के रायसेन में तीन बार 1528, 1532, और 1535 में हुमायूँ के समय और चँदेरी में बाबर के समय जौहर की यह वीरोचित आत्मोसर्ग की रस्म दोहराई गई। इनके अलावा भी सन्‌ 712 से लेकर 1947 तक भिन्न-भिन्न समय पर लगभग 30 से अधिक बार राजपूत रानियों द्वारा अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए जौहर किया गया। आश्चर्यजनक और दुखद पहलू यह है कि हर बार किये गए जौहर में स्थान, रियासत और समय या संख्या अलग-अलग थी, किन्तु जौहर का कारण वही अपनी इज़्ज़त आबरू बचाना था। और हाँ, हर बार ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न करने वाला कोई विदेशी आक्रान्ता कोई मुस्लिम शासक ही था। किसी विधर्मी शासक को अपनी देह सौंप कर पाप का भागी बनने से ये बेहतर समझा गया कि जीते-जी अपने प्राणों का त्याग कर दिया जाए। इसी परम्परा में 1947 आते-आते जब चारों और राजशाही का अंत हो चुका था, तब भी स्वतंत्र भारत की कश्मीर रियासत के राजौरी में जब पाकिस्तानी मुस्लिम सेना आक्रमण करती हुई पहुँच गई थी तब उनसे अपनी पराजय सुनिश्चित जान कर वहाँ के सामान्य वर्ग की स्त्रियों ने भी इकट्ठे होकर अपने जीवन को मौत के सुपुर्द कर दिया था। इस वक़्त भी इस सामूहिक विषपान का कारण पाकिस्तानी मुस्लिम सेना थी। यानी गौतम और महावीर के शांतिप्रिय सनातन भूमि पर पवित्र स्त्रियों का प्रथम बलिदान भी एक विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारी के कारण हुआ और बरसों बार-बार लगभग तीस बार ये दर्दनाक अग्नि समर्पण मुस्लिम आक्रान्ताओं के कारण ही होकर अंतिम 1947 में भी पाकिस्तानी सेना /कबाईली लुटेरों के कारण हुआ। 

ये जौहर तो मुख्यतः सत्तारूढ़ राजपूत शासकों की क्षत्राणी स्त्रियों के थे। लेकिन इनसे भी बढ़ कर 1947 के भारत पाक विभाजन के समय सिन्ध, पंजाब और अन्य सीमावर्ती प्रदेशों की सैंकड़ों बल्कि हज़ारों सिख एवं अन्य जातियों की स्त्रियाँ अपने ही घरवालों द्वारा तलवार से, कटार से मार डाली गईं या अफ़ीम खाकर उन्होंने मृत्यु का वरण किया। कई जवान बूढ़ी महिलायें तो अपने गाँव के कुओं में कूद-कूद कर मर मिटीं। सिर्फ़ और सिर्फ़ मुस्लिम आताताइयों के हाथों में पड़ने से बचने के लिए। 

आज का बुद्धिजीवी वर्ग इन बातों के औचित्य पर लम्बे समय तक तर्क-वितर्क करता रहेगा, इसे सही ग़लत-ठहरता रहेगा। लेकिन उन वीरांगनाओं द्वारा अपनी इज़्ज़त आबरू के लिए इतना हिम्मत भरा निर्णय लेना निर्विवाद रूप से अनंत सम्मान और श्रद्धा का हक़दार तो है ही लेकिन इस दुखद निर्णय के ज़िम्मेदार हम किसे ठहराएँगे भारतीय राजपूत राजाओं के आत्म सम्मान की परंपरा या राजपूत क्षत्राणियों की पवित्र सात्विक मान्यता या विधर्मी आक्रमणकारियों की क्रूर अमानवीय अपवित्र मानसिकता? 

संदर्भ:

  1. पद्मावत लेखक मालिक मोहम्मद जायसी 

  2. खिलजियों का इतिहास–लेखक किशोरी शरण लाल 

  3. अचलदास खींची री वचनिका 

  4. मध्यकालीन भारत का इतिहास लेखक–सतीश चंद्रा 

  5. राजस्थान राजाओं की भूमि लेखक बेनी रालेंड मेथेसन

  6. राजस्थान–लेखक गेवीन थामस

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