उजाले का बँटवारा
महेश शर्मा
देख रहा सूरज को मैं बचपन से अब तक
बिना भेद अपना प्रकाश पहुँचाता सब तक।
क्या गोरे क्या काले छोटे और बड़े क्या
क्या हिन्दू क्या मुस्लिम कोई और धड़े क्या।
हो ग़रीब धनवान, पापी या पुण्यात्मा हो
हो मनुष्य या पशु पक्षी या कोई आत्मा हो॥
सब पर किरणें पड़ती हैं उसके प्रकाश की
सबको ऊर्जा मिलती है नित नई आस की।
पर मानव ख़ुद के हित में कितना अंधा है
ख़ुद के ख़ातिर ही सारा गोरख धंधा है।
इतने दिन में सूरज यदि हम-सा ढल जाता
उस पर भी थोड़ा जादू अपना चल जाता।
फिर देखो क्या चमत्कार होता धरती पर
कई घरों में अन्धकार रहता धरती पर।
जो उसको ख़ुश करता उसको दाम चुकाता
उसका ही घर अन्धकार से मुक्ति पाता।
कितने छोटे कितने पापी कितने काले
पशु पक्षी सब और ना थे जो दौलत वाले।
सब के घर में छाया रहता सदा अन्धेरा
मुश्किल होता इनके लिए तो नया सवेरा।
लेकिन सृष्टि चतुर, नहीं सौंपा हमको सब कुछ
मूल तत्त्व जीवन के उसने पास रखे कुछ।
खुली हवा पानी और सूरज के उजियारे
हम असहाय, ना कर पाए इनके बँटवारे।