विक्रम बिलगैंया कृत सुदामा चरित्र: लोकजीवन और मनोविज्ञान का काव्य
डॉ. लखनलाल पाल
समीक्षित पुस्तक: विक्रम बिलगैंया कृत सुदामा चरित्र
सम्पादन: डॉ. गंगाप्रसाद बरसैंया, डॉ. श्यामसुन्दर दुबे
सह-सम्पादन: डॉ. सत्येन्द्र शर्मा
प्रकाशक: अनुज्ञा बुक्स, शाहदरा, दिल्ली-110032
प्रथम संस्करण: 2026
ISBN: 978-93-48214-96-6
पृष्ठ संख्या: 128
मूल्य: ₹500
साहित्य समाज का दर्पण है। यह सर्वमान्य बात है कि जो समाज में घटित होता है वह साहित्य में प्रतिबिंबित होता है, होना भी चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है तो समाज उसे स्वीकार नहीं करता है। धीरे-धीरे वह साहित्य विलुप्त हो जाता है। दुनिया में असंख्य साहित्यकार हो चुके हैं लेकिन प्रकाश में गिने-चुने साहित्यकार ही साहित्य आकाश में देदीप्यमान हो रहे हैं।
कुछ रचनाकार अच्छी रचना लिख तो लेते हैं पर वे प्रचार-प्रसार के अभाव में असमय ही काल कवलित हो जाते हैं। या वह रचना सही हाथों में नहीं पहुँच पाती है। कारण बहुत से हो सकते हैं पर मुख्य कारण तो मैं प्रचार-प्रसार को ही मानता हूँ।
ऐसे ही एक विलुप्त कवि को प्रकाश में लाने का श्रेय वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय डॉ. गंगाप्रसाद बरसैंया जी को देता हूँ जिन्होंने एक उत्कृष्ट कवि विक्रम बिलगैंया की रचना ‘सुदामा चरित्र‘ का संपादन और प्रकाशन करके साहित्य जगत के सामने लाए। इस कृति का रचनाकाल संवत् 1664 है। इतनी प्राचीन कृति के मिलने का इतिहास रोचक है। संपादक जी को इस रचना की पांडुलिपि झांसी के प्रौढ़ शोधार्थी भगवत प्रसाद पाण्डेय से प्राप्त हुई थी। संपादक जी की इस ईमानदारी की प्रशंसा की जानी चाहिए कि इस कृति से जो भी व्यक्ति संबंधित रहा उन सभी के नाम पुस्तक में उद्धृत किए गए है।
पौराणिक पात्र कृष्ण और सुदामा की मित्रता को आधार बनाकर विभिन्न छंदों में इस कृति की रचना की गई है। काव्य ग्रंथ में कवि ने अपने समय की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति का यथार्थ वर्णन किया है। कृष्ण और सुदामा को मानवीय पृष्ठभूमि में खड़ा करके सुख-दुख, भाग्य और पूर्वजन्मों के कर्मों पर केंद्रित किया गया है। ब्राह्मण का भिक्षाटन, उसकी ग़रीबी का चित्रण रचना को वास्तविक धरातल पर तो खड़ा करती ही है साथ में दाताओं की मजबूरियाँ, मंगतों के प्रति उनके व्यवहार को भी दर्शाता है। इस अरिल्ल छंद में इसका स्वाभाविक वर्णन कवि सुदामा की पत्नी के माध्यम से कराते हैं:
तुम करत करतल द्वार द्वारन स्वान सनमुख हंकरै।
कौ देत अन्न कौ देत नाही लोग मन मन षद करै।
गुरवार की पहचान तुम सौं समयौ तुम पर जो अवै।
वे तषत चट अभिमान करिहै विरद वह झूठौ सवै।1
ग़रीबी को दूर करने के लिए आदमी लाखों यत्न करते हैं। कोई अपनी ग़रीबी मिटा लेता और कोई नहीं। हर तरह से आजिज़ आने पर वह अपने को भाग्य पर छोड़ देता है। उसे लगने लगता है कि भाग्य का लिखा ही भोग रहे हैं। लेकिन पुश्तैनी या जाति विशेष वाले काम से इतर कोई दरवाज़ा न खुला हो तब तो उसे भाग्यवादी होना ही है। सुदामा की पत्नी मानती है कि जो भाग्य में लिखा है उसे कोई नहीं मिटा सकता है। विधाता ने जो लिख दिया उसे देवता भी नहीं मिटा सकते हैं। यहाँ तक कि भाग्य का लिखा देवताओं को भी भुगतना पड़ता है:
भाभी अगम अपार, सुरनर मुनि मैटै नहीं।
विधि के अंक विचार, तें भुगते देवन सकल।2
कवि ने दरिद्रता को पूर्वजन्मों के पाप पुण्य का प्रभाव माना है। जब सुदामा की पत्नी सुदामा से पूछती है कि कौन जन्म का हमारे ऊपर पातक लगा है जो खाने को भी नहीं मिल पा रहा है। कहीं आपने पूर्वजन्म में ये काम तो नहीं किए हैं:
कैतौ श्रुत साधन की निंद्रा भरपूर कीनी
कैतौ गुरुमंत्र मैंट हरिगुन विसराऐ हौ
कैतौ कुलद्रोह कैतौ परधन क्षिंड़ाइ लीनौ
कैतौ निज मंत्रहु के मंत्रहु नाठाऐ हौ
कैतौ पूर्वजन्म कछु पुन्य कौ न लेसु कीनौ
विक्रम कवि कहत ताथैं ऐसे फल पाऐ हौ
वैठी दुषदामा वामा पूंक्षत सुदामा जू की
सो कौन पुंन हारे पिया दारिद्र वसाऐ हौ
इस कृति में कवि ने आत्मपीड़न के बड़े मनोहारी दृश्य उकेरे हैं। यह आत्मपीड़न मनोविज्ञान की आत्मा तक को छू लेता है। सुदामा के इस दुर्बल पक्ष को सह संपादक डॉ सत्येन्द्र शर्मा ने आत्मालोचन और आत्मस्वीकार के रूप में स्वीकारा है। मेरी समझ में सुदामा का यह दुर्बल पक्ष कृति को सशक्त बनाता है। उस समय पर जब एक ब्राह्मण को भिक्षा के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं था, तब वह यही सब सोचेगा। आत्मालोचन व्यक्ति की सहृदयता को तो दिखाता ही है साथ में यह भी महसूस कराता है कि वह अपनी नाकामियों का ठीकरा किसी अन्य पर नहीं फोड़ना चाहता है।
सुदामा ने मित्र के साथ छल किया था। उन्होंने कृष्ण के हिस्से के चने खा लिए थे। पत्नी के कहने पर भी लज्जा के कारण वे कृष्ण के यहाँ जाने में संकोच कर रहे थे। नाराच छंद में सुदामा जी ने अपनी पीड़ा इन शब्दों में व्यक्त की है:
पडंत वेद ना कछु गिरंथ भेद नाहिनै।
नातात वित्त मित्र है मिलावै मोह को हरि।
लजात जात द्वारिका चना गुनाह सौं करी।3
कवि विक्रम बिलगैंया जी ने कृष्ण को स्पष्ट रूप से ईश्वर नहीं माना है। उन्हें दीनदयाल कहकर आगे बढ़ जाते हैं। वे उन्हें मित्र, बड़ा आदमी और राजा के रूप में देखते हैं। कवि स्पष्ट रूप से शिवभक्त है। तभी तो उनका सुदामा गोमती नदी के किनारे शिवमन्दिर में शिव पार्वती की वन्दना करता है और उनसे वरदान पाकर ही द्वारिका में प्रवेश करता है। शिव पार्वती की स्तुति में जो भक्ति भाव है, जैसी दीनता है, वैसी कृष्ण के प्रति कहीं नहीं दिखती है। इससे सिद्ध होता है कि कवि परम शिव भक्त है।
सुदामा का चरित्र वर्णन हो और भक्त कवि नरोत्तम दास जी का नाम न आए, ऐसा सम्भव ही नहीं है। सुदामा चरित लिखकर नरोत्तम दास जी अमर हो गए। कोई भी कृति अब सुदामा चरित पर आती है तो उसकी तुलना नरोत्तम दास जी से ज़रूर होगी। संपादक महोदय डॉ. गंगाप्रसाद बरसैंया जो ने भी इस तुलना को स्वीकार किया है। उन्होंने विक्रम बिलगैंया की सुदामा चरित्र को हिंदी का प्रथम सुदामा चरित सिद्ध किया है। नरोत्तम दास जी एक भक्त कवि हैं जबकि संपादक जी ने विक्रम बिलगैंया को “काव्यगत वैशिष्ट्य और मार्मिकता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण माना है।” नरोत्तम दास जी में लोकजीवन बहुत अल्प मात्रा में है जबकि विक्रम बिलगैंया के काव्य में लोकजीवन और लोक जातियों का खुलकर चित्रण हुआ है।
नरोत्तम दास जी के काव्य में कृष्ण ईश्वर है। उनसे माँगने में किसी तरह की लज्जा की बात नहीं है। नरोत्तम दास जी सुदामा की पत्नी से कहलवाते है:
विप्र के भगत हरि जगत विदित बंधु,
लेत सब ही की सुधि ऐसे महादानि हैं।
पढ़े एक चटसार कही तुम कैयो बार,
लोचन अपार वै तुम्हैं न पहिचानि हैं।
एक दीनबंधु कृपासिंधु फेरि गुरुबंधु,
तुम सम कौन दीन जाकौ जिय जानि हैं।
नाम लेते चौगुनी, गये तें द्वार सौगुनी सो,
देखत सहस्त्र गुनी प्रीति प्रभु मानि हैं॥
विक्रम बिलगैंया के काव्य में कृष्ण दीनदयाल हैं। सुदामा की पत्नी कृष्ण से व्याकुलता के साथ मिलने के लिए कह रही है। अर्थात् यहाँ व्याकुलता से मिलने का तात्पर्य अपनी हीन दशा को बताना है। इस हीन दशा को देखकर वे ज़रूर तुम पर कृपा करेंगे:
सोच सकोच तजौ उर थै हरषाइ मिलौ उर सनमुष ध्यावो।
वे प्रभु दीनदयालु वडे अकुलाइ मिलौ अर सर्वस्व ल्यायो।
गोमती नीर करौ तन मंजन भूप समाज के दरसन पायौ।
सागर तीर वसै विक्रम द्वारामती कर तीरथ आयो4
नरोत्तम दास जी के कृष्ण जब सुदामा से मिलते हैं तो वे कृष्ण सब कुछ छोड़कर दौड़ लगा देते हैं। यद्यपि इस तरह दौड़ना राजा की मर्यादा के विरुद्ध है लेकिन अपने दरिद्र मित्र के लिए वे इसकी चिंता नहीं करते हैं:
बोल्यौ द्वारपाल सुदामा नाम पाँड़े सुनि,
छाँड़े राज-काज ऐसे जी की गति जानै को?
द्वारिका के नाथ हाथ जोरि धाय गहे पाँय,
भेंटत लपटाय करि ऐसे दुख सानै को?
नैन दोऊ जल भरि पूछत कुसल हरि,
बिप्र बोल्यौं विपदा में मोहि पहिचाने को?
जैसी तुम करौ तैसी करै को कृपा के सिंधु,
ऐसी प्रीति दीनबंधु! दीनन सौ माने को?
विक्रम बिलगैंया जी के कृष्ण भी सुदामा का नाम सुनकर उन्हें गले से लगाने के लिए दौड़ते हैं। वे भी राजा की मर्यादा के विरुद्ध चले जाते हैं। यहाँ विक्रम जी के कृष्ण इस तरह से व्यवहार करते हैं जैसे संकट में पड़े हुए भक्त को बचाने के लिए भगवान दौड़ते हैं। यहाँ विक्रम बिलगैंया जी इस धावन में नरोत्तम दास जी से आगे निकलते प्रतीत होते हैं। सुदामा उन्हें भले ही मित्र माने या माखन चोर माने पर कृष्ण तो सुदामा को भक्त ही मानते हैं। तभी तो वे ऐसे दौड़ते हैं:
जिहि विधि गजराज काज आऐ वृजराज।
साज लाज परी दीनवंध वाहन तजि धाऐ हैं।
षम्भ के षलेल झेल लीन्हौं प्रह्लाद भक्ति।
धारि करि नरिसिंघ रूप असुर नास ठाऐ हैं।
विक्रम कवि कहत दीन द्रोपती दयाल भऐ।
भारत विहंगम पै घंटा रुरिकाऐ हैं।
जैसे द्रज दीनवंध वापुरौ सुदामा देषि।
मिलन चले वालसषा आतुर उठि धाऐ हैं।5
नरोत्तम दास जी के सुदामा चरित में एक लालित्य है। भाषा और भावों में सहज प्रवाह है जो पाठक को अपनी ओर खींचता है। जबकि विक्रम बिलगैंया के सुदामा चरित्र में मानव मन के सहज उद्गारों के साथ मौलिक उद्भावनाओं में नवीनता देखने को मिलती है। विविध छंदों का समावेश इसकी विशेषता है।
विक्रम बिलगैंया जी के सुदामा चरित्र में लोकजीवन के साथ मनोविज्ञान का भी बढ़िया परिपाक हुआ है। इसमें एक गृहस्थ की बेबसी और आत्मपीड़न का सुंदर समन्वय देखने को मिलता है। कथा तो पौराणिक है पर कवि की इसमें अपने समय समाज की दृष्टि है। वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय गंगाप्रसाद बरसैंया जी इस कृति को प्रकाश में लाए हैं। उनके इस स्तुत्य प्रयास के लिए साहित्य जगत आभारी रहेगा। ऐसा मेरा मानना है।
समीक्षक—डॉ. लखनलाल पाल
संदर्भ ग्रंथ:
सुदामा चरित-नरोत्तम दास
सुदामा चरित्र-विक्रम बिलगैंया
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सुदामा चरित्र-विक्रम बिलगैंया पृष्ठ संख्या-36
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सुदामा चरित्र-विक्रम बिलगैंया पृष्ठ संख्या-34
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सुदामा चरित्र-विक्रम बिलगैंया पृष्ठ संख्या-37
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सुदामा चरित्र-विक्रम बिलगैंया पृष्ठ संख्या 47
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सुदामा चरित्र-विक्रम बिलगैंया पृष्ठ संख्या 44, 45
3 टिप्पणियाँ
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26 Oct, 2025 01:02 PM
विक्रम बिलगैंया कृत ‘ सुदामा चरित्र ‘ पर डॉ लखनलाल पाल की लिखी समीक्षा पढ़कर किसी भी पाठक के मन में कृति को अपनी आँखों देखने -पढ़ने की प्रबल जिज्ञासा उत्पन्न होती है, यह किसी भी समीक्षा का मूल दायित्व और बुनियादी वैशिष्ट्य है । डॉ पाल पूरी कृति के पाठ और उसकी रचनात्मकता से गुज़रे हैं तथा उसकी संवेदना की भिन्नता को समझ सके हैं । समीक्षा एक गंभीर कर्म है और इसे पढ़कर इसका साक्षात होता है ।
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23 Oct, 2025 03:58 PM
डॉ गंगाप्रसाद बरसैया ने सराहनीय कार्य किया है ।
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22 Oct, 2025 06:14 PM
महोदय ,समीक्षा छापने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद । आपने अच्छी समीक्षा को उतने ही अच्छे ढंग से छापा है ।आपकी साहित्य सेवा अभिनंदनीय है । हार्दिक आभार । डा.बरसैंया,भोपाल ।