पैनल निरीक्षण

15-06-2025

पैनल निरीक्षण

डॉ. लखनलाल पाल  (अंक: 279, जून द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

अभी तक मैंने अपनी थीसिस के तीन अध्याय पूरे कर लिए थे। जनपद जालौन के साहित्यकारों पर शोध लगातार आगे बढ़ रहा था। इसे मैं समय से पूरा कर लेना चाहता था। इसलिए मैंने फ़ील्डवर्क तेज़ कर दिया था।

इस बीच मैंने यह देखा है कि जिस जाति का साहित्यकार है, उसकी तुलना उसकी जाति के पूर्ववर्ती साहित्यकारों से कर दी जाती थी। अगर कोई मुसलमान कवि राम, कृष्ण या नीति पर रचनाएँ लिखता तो लोग उन्हें तुरंत “आज का रसखान या रहीम” कहने लगते। वे भी टुंगा पर चढ़कर वैसी ही रचनाएँ लिख रहे थे। थोड़ा क्लिष्ट लिखते तो आज के केशवदास कहलाते। मुझे इससे कोफ़्त होती थी। पता नहीं ये साहित्यकार क्यों नहीं समझते कि वे तो हो चुके हैं, अब ये लोग दोबारा नहीं होंगे। प्रयास भी करोगे तो वैसे न बन पाओगे। अगर उन जैसा बनने की हठधर्मी करोगे तो डुप्लीकेट कहलाओगे। 

बहुत से साहित्यकार—‘गीतों के राजकुमार’, ‘पार्थ’, ‘युग कवि’, ‘उजाला’ आदि अनेक उपनामों से जनपद में ख्याति प्राप्त कर चुके थे। कुछ उपनाम उनके गाँव के नाम पर थे। ये उपनाम आकर्षित करते थे। यह उनकी मौलिक कल्पना की उपज थी। मैं इनके अर्थ गाम्भीर्य पर विचार करता तो काफ़ी अच्छे निष्कर्ष पर पहुँच जाता। लेकिन जब इनके लेखन पर विचार करता तो थोड़ा निराश हो जाता। वे पुरानी परंपरा को ही रिपीट कर रहे थे। वर्तमान साहित्य किस प्रवृत्ति पर लिखा जा रहा है वे इस पर ध्यान नहीं देते थे। राम के चरित्र पर कोई लिखने का प्रयास करता तो मैं टोक देता कि इन पर मत लिखो। मेरा मानना था कि तुलसीदास जी ने उन पर जिस स्तर का लिख दिया है, वैसा लिखने के लिए किसी के पास कुछ बचा ही नहीं है। यह मेरी अपनी धारणा थी। मैं आज भी इस धारणा पर क़ायम हूँ। मुझे ऐसा लगता है तो लगता है। हो सकता है कि मेरी इस धारणा से कुछ लोग सहमत न हों। 

जनपद जालौन के कुछ साहित्यकार मुख्यधारा के साहित्य पर अच्छा लिख रहे हैं और उन्होंने उस धारा में अपनी उपस्थिति दर्ज करा ली है। जनपद के लिए यह सुखद बात है। 

पीएच. डी. रफ़्तार पकड़ रही थी। जितना फ़ील्डवर्क था उतना ही टेबलवर्क। जितनी सामग्री सहेजकर लाता उसको लिपिबद्ध कर लेता। विश्लेषण में समय भले लग रहा था पर कार्य प्रगति पर था। 

इसी दरमियान मैंने कॉलेज बदल दिया था। जून में हर कॉलेज अपने एंप्लॉई को फ़्री कर देते हैं। मतलब ग्यारह महीने के वेतन वाला सिस्टम। यहाँ वेतन वृद्धि की कोई उम्मीद नहीं थी। इसलिए कॉलेज के प्रबंधक जी को सूचित कर दिया था कि मैं जुलाई से दूसरे कॉलेज में अपनी सेवा दूँगा। 

यहाँ का हर कॉलेज टेस्ट लेकर ही टीचर का चुनाव करता था। मेरा ‘एस आर इंटर कॉलेज उरई’ में हिन्दी शिक्षक के पद पर चयन हो गया। शुरूआत ठीक रही और इसी तरह से तीन साल तक लगातार सेवाएँ देता रहा। छात्र-छात्राएँ मेरे शिक्षण से ख़ुश थे। कॉलेज प्राइवेट ज़रूर था पर टीचर अपटुडेट थे। मेरा वही साधारण रहन-सहन। इससे यह फ़ायदा हुआ कि मुझे अपना परिचय देने की ज़्यादा ज़रूरत न पड़ती। हाव-भाव में, रहन-सहन में, बोली बानी में मैं सबसे अलग दिख रहा था इसलिए अपने आप लाइट में आ गया था। कुछ टीचर टोकते थे तो कुछ मेरी मौलिकता को समझ भी रहे थे। वे मेरी तारीफ़ भी कर देते थे। इसका प्रभाव ऐसा पड़ा कि लोग अपने आपको गाँव का बताने में फ़ख़्र महसूस करने लगे। मतलब वे भूल चुके अपने गाँवों को पुनः याद करने लगे। 

कभी-कभी तो ऐसा हो जाता था कि वे मुझसे ज़्यादा अपने को ग्रामीण सिद्ध करने में लग जाते। पर मिट्टी की वास्तविकता को कैसे मिटा पाएगा कोई। उस मिट्टी जैसा रहन-सहन भी तो हो। आप ठहरे संगमरमरी फ़र्श पर क़दम रखने वाले और मैं उस माटी में लोटने वाला। उस माटी के नुकीले कंकड़ और काँटों का मुझे अनुभव था। भाई आपके बाप-दादा गाँव के थे, आप नहीं। इनकी बातों से मुझे चिढ़ छूटती थी। ऐसा लगता था कि जैसे ये लोग मिल मिलाकर मुझसे मेरा गाँव छीन रहे हों। 

‘उरई तहसील के साहित्यकार’ अध्याय लगभग पूर्ण हो गया था। डिग्री कॉलेज के प्राचार्य का बायोडाटा व साहित्यिक सामग्री उपलब्ध नहीं हो पा रही थी। उन्होंने मुझे, जातिसूचक शब्दों का प्रयोग कर, संबोधित किया था। इसका मैंने प्रचार-प्रसार भी ख़ूब कर दिया था। अप्रत्यक्ष रूप से हम दोनों के बीच तलवारें खिंची हुई थीं। पर मेरा मोर्चा कमज़ोर था। कहाँ डिग्री कॉलेज के प्राचार्य और कहाँ मैं एक प्राइवेट स्कूल का टीचर। किसी भी स्तर पर कोई मेल नहीं था। यही सब कारण थे कि प्राचार्य जी मुझसे दोबारा मिलने का समय नहीं दे रहे थे। 

मेरे गुरुजी (शोध निदेशक) हठ पकड़ गए थे कि प्राचार्य जी का व्यक्तित्व और कृतित्व थीसिस में आना ही चाहिए। यद्यपि ये प्राचार्य महोदय इनके विरोधी ख़ेमे के थे फिर भी उनके लिए वे हठी हो रहे थे। दोनों धुरंधर मेरे लिए सिरदर्द बन चुके थे। 

कॉलेज में हर साल पैनल इंस्पैक्शन होता था। मतलब शिक्षक के शिक्षण का हर साल मूल्यांकन। डिग्री कॉलेज के शिक्षाविद् क्लासरूम में पीछे वाली मेज़-कुरसी पर बैठकर टीचर की शैक्षिक गतिविधियों का निरीक्षण करके उसकी आख्या प्रबंध समिति को सौंपते थे। टीचर पूरी सतर्कता के साथ शिक्षण पर ध्यान केंद्रित करता था। हर विषय के निरीक्षक डिग्री कॉलेज के प्रवक्ता/ रीडर/ प्राचार्य होते थे। तीन दिनों का पैनल इंस्पैक्शन इस साल भी शुरू हो गया था। 

इस बार हिन्दी विषय के पैनल महोदय डिग्री कॉलेज के वही प्राचार्य जी थे जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व के लिए मैं प्रयासरत था। वे निरीक्षण के लिए आ रहे हैं। यह सुनकर मेरी हालत पस्त हो गई। पता नहीं वे मेरी कैसी आख्या दे दें, यही सोचकर मेरा जी ख़राब हो रहा था। मैं समझ रहा था कि इस समय ये लोग प्रबंध समिति की आँख, कान हैं। 

प्राचार्य जी तीसरे पीरियड में आ चुके थे। मुझे हिन्दी का ऐसा टाॅपिक लेना था जिस पर मेरा अच्छे से कमांड हो। मैंने मन बना लिया था कि मैं क्लास में छंद पढ़ाऊँगा। रस, छंद और अलंकार मेरे प्रिय टापिक थे। इन्हें पढ़ाने के लिए मुझे पुस्तक की आवश्यकता नहीं पड़ती है। स्वतंत्र रूप से मैं इन्हें अच्छे से पढ़ा लूँगा। 

छात्र-छात्राओं को भी पता होता था कि ये लोग सर का परीक्षण करने आते हैं। उस समय छात्र-छात्राएँ बेहद अनुशासन में रहते हैं। प्रबंधक महोदय, प्राचार्य जी को मेरे क्लास रूम तक छोड़ गए। वे पीछे वाली कुर्सी पर अपने काग़ज़ पत्तर के साथ बैठ गए। वे मेरे शिक्षण कार्य को देखने लगे। एक क्षण के लिए मैं असामान्य सा हुआ पर जल्दी ही मैंने अपने आपको सामान्य बना लिया। 

मैं छंद की परिभाषा छात्रों को समझा चुका था। मात्रिक छंदों के अंतर्गत मैं चौपाई छंद की परिभाषा समझाने लगा, “यह सममात्रिक छंद है। इसमें चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राएँ होती हैं। अंत में प्रायः दो दीर्घ होते हैं।”

“रुको पाल!” प्राचार्य जी बोले, “चौपाई में चार चरण नहीं होते हैं। दो चरण होते हैं।”

“सर, चार चरण होते हैं,” मैंने जवाब दिया। 

कक्षा शांत थी पर इस टोका-टाकी ने छात्रों के मन में कौतूहल जगा दिया। 

उन्होंने इस मैटर को वहीं रफ़ा-दफ़ा करने वाले अंदाज़ में कहा कि ऑफ़िस में आकर मुझसे मिलना। 

“जी सर,” मैंने मायूसी से कह दिया। 

प्रबंधक जी वहीं आस-पास चक्कर लगा रहे थे। वे प्राचार्य जी को साथ लेकर ऑफ़िस की तरफ़ निकल गए। 

मैंने पढ़ाना बंद कर दिया। बच्चे किताब में लिखी परिभाषा दिखाते हुए बोले कि सर किताब में लिखा है कि चौपाई में चार चरण होते हैं। 

“आप लोग शांत रहिए, मैं इसे कल समझाऊँगा,” इतना कहकर मैं कुर्सी पर बैठ गया। 

मेरा दिमाग़ स्थिर नहीं था। मैं ग़लत हूँ या सही इसकी बात नहीं थी। प्रबंध समिति मेरी बात पर विश्वास तो नहीं करेगी। डिग्री कॉलेज के प्राचार्य की बात को समिति आप्त वाक्य मानेगी। मैं अपनी बात उस तरीक़े से रख भी नहीं पाऊँगा। इस समय वे उनके विशिष्ट और सम्माननीय हैं। प्राचार्य जी से मेरी पहले से ही तल्ख़ी थी। 

पीरियड समाप्त होते ही मैं क्लास से बाहर निकल आया। पचास-पचपन के स्‍टाफ़ के बीच खुसर-पुसर शुरू हो गई। मैं स्‍टाफ़ रूम में आकर बैठ गया। स्‍टाफ़ के कुछ लोगों ने इस पर बात करनी चाही पर मैं चुप ही रहा। 

थोड़ी देर बाद चपरासी मुझे बुलाने आ गया। मैं प्रधानाचार्य कक्ष में पहुँच गया। 

वहाँ प्रबंधक जी, प्रबंध समिति के अन्य लोग, कॉलेज के प्रधानाचार्य जी एवं पैनल साहब (डिग्री कॉलेज के प्राचार्य जी) मेरा ही इंतज़ार कर रहे थे। प्रबंधक जी ने मुझे बैठने का इशारा किया। मैं कुर्सी पर बैठ गया। 

“पाल, तुम बच्चों को पढ़ा रहे थे कि चौपाई में चार चरण होते हैं,” पैनल साहब बोले। 

“जी सर, चार चरण होते हैं,” मैंने विनम्रता से जवाब दिया। 

“नहीं, चौपाई में दो चरण होते हैं।”

“सर पाठ्य-पुस्तक में भी यही लिखा है,” मैंने संदर्भ देने की कोशिश की। 

“पाठ्य-पुस्तक में त्रुटियाँ हो जाती हैं,” पैनल साहब ने पुस्तक का संदर्भ सिरे से ख़ारिज कर दिया। 
मैंने कहा, “सर आप इजाज़त दें तो मैं अपनी बात रखूँ।”

“हम वही तो जानना चाहते हैं,” इस बार पैनल साहब मुस्कराए। 

मुझे इजाज़त मिल चुकी थी। अब मुझे अपने ढंग से व्याख्यायित करना था। अपनी भाषा में, अपनी टोन में। मैंने शुरू किया, “सर, चौपाई का शाब्दिक अर्थ है—चार पाँव। मतलब चौ माने चार और पाई माने पैर। इसी से इसे चौपाई कहा गया है।” 

“तो क्या यह चौपाई नहीं है—मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवहु सो दशरथ अजिर बिहारी॥” पैनल महोदय ने काउंटर प्रश्न किया। 

ऑफ़िस का माहौल शांत था। उपस्थित लोग हम दोनों को ध्यान से देख सुन रहे थे। मुझे पता था कि मैं सही हूँ और सामने वाला मेरी बात मानने को तैयार नहीं है। पैनल महोदय व्यंग्यात्मक दृष्टि से मुझे बराबर बींध रहे थे। इस समय मुझे अपने दिमाग़ को ठंडा रखना था। मेरे चेहरे व शब्दों में तल्ख़ी नहीं आनी चाहिए। अगर ऐसा हुआ तो प्रबंधक जी बुरा मान सकते हैं। बुरा मान गए तो हो सकता है कि बाहर का रास्ता दिखा दें। बीच सत्र में अन्य कोई कॉलेज मुझे नौकरी न देगा। नौकरी के बिना यहाँ टिक पाना मेरे लिए मुश्किल था। 

“जी, यह चौपाई तो है पर परिभाषा की दृष्टि से यह पूरी नहीं है। इसे अर्द्धावली कहते हैं,” मैंने इत्मीनान से बताया। 

“मतलब!” पैनल महोदय इस बार कुछ गंभीर दिखाई दिए, “इसको ज़रा विस्तार से बताइए?”

“अर्द्धावली माने आधी पंक्ति,” मैंने इसका विच्छेद किया “अर्द्ध का मतलब आधी और अवली माने पंक्ति . . . आधी पंक्ति।”

“तो . . . मंगल भवन अमंगल हारी . . . को आप चौपाई नहीं कहेंगे? पैनल महोदय कुर्सी पर सीधे बैठ गए। 

“जी, बिलकुल कहेंगे। और अधिकतर लोग अर्द्धावलियों का ही प्रयोग करते हैं। पर छंदशास्त्र की दृष्टि से यह पूरी नहीं है।”

“ये अर्द्धावली है, मैंने इसे पहली बार सुना है,” पैनल महोदय मुझे आश्चर्य से देखने लगे। 

“जी, यह अर्द्धावली है,” मैंने कहा कि पूरी चौपाई इस तरह से है:

‘बंदउं गुरुपद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरिस अनुरागा। 
अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥’

पैनल महोदय जी ने मुझे घूरा। फिर कहा कि ठीक है, आप जाइए। 

मैं वहाँ से उठकर चला आया। 

सभी विषयों के पैनल स्थानीय डिग्री कॉलेज के प्राध्यापक थे। इंस्पेक्शन पीरियड में हमारे कॉलेज के टीचर्स उन्हें ले आते और निरीक्षण हो जाने के बाद उन्हें छोड़ आते थे। मेरे परम मित्र विकास उदैनिया जी (प्रवक्ता भौतिक विज्ञान) मेरे साथ इसी कॉलेज में पढ़ाते थे, जो वर्तमान में गाँधी इंटर कॉलेज उरई में प्रवक्ता हैं। वे प्राचार्य जी को छोड़ने गए थे। 

अगर मैं प्राचार्य जी की विद्वता को कम करके आँक रहा हूँ तो मुझसे ज़्यादा तुच्छ व्यक्ति कोई नहीं हो सकता है। जालौन जनपद के श्रेष्ठ आलोचकों में उनका नाम शुमार था। वे हर चीज़ को अपनी दृष्टि से देखते थे। आदर्शवादी विचारों पर नहीं यथार्थ में विश्वास करते थे। मैंने कई मंचों पर उन्हें सुना है। वे साहित्य को यथार्थ के धरातल पर आकलन करते थे। मैं जब उन्हें सुनता था तो मुझे लगता था कि ये क्या बोल रहे हैं, ये सब मेरी सोच के विपरीत था। वे तर्क ऐसे देते थे कि उनको काटना मुश्किल होता। 

कभी-कभी हम बड़ी चीज़ों के बीच छोटी चीज़ों पर उतना ध्यान नहीं देते हैं। ऐसा मेरे साथ भी कई बार हुआ है। शायद हर व्यक्ति के साथ एकाध बार ऐसा होता है कि हम छोटी चीज़ों पर मात खा जाते हैं। प्राचार्य महोदय जी को मैं जीनियस मानता रहा हूँ। आज भी मेरे दिलो-दिमाग़ में उनके लिए वही स्थान है। 

दरअसल मैं शोध निदेशक और प्राचार्य जी के बीच की प्रतिद्वंद्विता में फँस गया था। इसलिए मुझे उनका बायोडाटा प्राप्त करने में मुश्किल आ रही थी। 

लौटकर विकास उदैनिया जी बता रहे थे कि प्राचार्य महोदय मुझसे रास्ते भर यही कहते रहे कि पाल ने जो तर्क दिए हैं वे मुझे सही लग रहे हैं। उदैनिया जी उनके साथ हाँ हूँ करते रहे थे। 

उदैनिया जी आप इस संस्मरण को पढ़ेंगे तो वह समय आपकी आँखों के सामने घूम जाएगा। 

तीन दिनों के इंस्पैक्शन का यह आख़िरी दिन था। छुट्टी के बाद प्रबंध समिति ने शिक्षकों के साथ मीटिंग रखी थी। सभी टीचरों को उनकी रिपोर्ट दिखाई गई थी। दो चार टीचर्स को छोड़कर सभी की रिपोर्ट काफ़ी अच्छी थी। टीचर्स ख़ुश थे। प्रबंधक जी ने सभी को बधाई दी। अच्छा ख़ासा नाश्ता भी करवाया था। 

प्रबंधक जी मेरे व्यवहार से ख़ुश थे। उन्होंने कहा कि श्री लखनलाल पाल जी ने जिस तरह से प्राचार्य महोदय जी के सामने अपनी बात रखी उससे हम बहुत प्रसन्न हैं। आपने जो तर्क वहाँ रखे थे, पैनल महोदय ने उन्हें स्वीकार किया है। कॉलेज की प्रगति इसी से सम्भव होती है। 

इस घटना से मेरा उत्साह बढ़ गया था। मेरी समझ में आ गया था कि प्रबंधक जी की बात प्राचार्य महोदय मानते हैं। 

एक दिन मैंने प्रबंधक जी से निवेदन किया कि आप प्राचार्य जी से कह दीजिएगा कि वे अपना बायोडाटा मुझे उपलब्ध करा दें। मेरी अधूरी थीसिस पूरी हो जाएगी। वे कुछ देर तक मुझे देखते रहे फिर हँसकर बोले कि ठीक है, मैं देखता हूँ। 

पाँच दिन बाद प्रबंधक जी ने मुझसे कहा कि आप शाम छह बजे के लगभग उनके घर चले जाना, वे आपको सारी सामग्री उपलब्ध करवा देंगे। 

मैं नियत समय पर उनके घर पहुँच गया। ऐसा लग रहा था कि जैसे वे मेरा ही इंतज़ार कर रहे हों। मैंने उन्हें बायोडाटा वाला फ़ॉर्म देना चाहा पर उन्होंने उसे नहीं लिया। वे मुझे अपनी आलोचना की पुस्तक देते हुए बोले, “पुस्तक के पीछे मेरा बायोडाटा लिखा है। उसी से लिख लेना।” मैंने पुस्तक लेकर उनके पैर छूकर कहा कि सर आपने मुझे समय दिया मैं आपका आभारी हूँ। 

वे हल्के से मुस्कुरा दिए और बोले , “जाइए, आप अपनी पीएच. डी. पूरी कीजिए।”

उस समय मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। असम्भव कार्य सम्भव जो हो गया था। 

शोध निदेशक जी को मैंने बता दिया था कि प्राचार्य जी का बायोडाटा मिल गया है। 

11 टिप्पणियाँ

  • 23 Jun, 2025 07:43 PM

    बहुत-बहुत धन्यवाद कुमारेन्द्र भाईसाब

  • पापा आपने हमें कभी नहीं बताया कि आपका जीवन इतना संघर्षपूर्ण रहा है ।इसको पढ़कर हम आपके बारे में जान पा रहे हैं ।आप यहाँ तक कैसे पहुँचे अब जान पा रहे है ।हमें गर्व है आप पर ।

  • लखन, बहुत बढ़िया ढंग से तुमने अपनी बात को रखा. वैसे प्राचार्य जी जबरदस्त आलोचक हैं और ऐसा संभव नहीं कि उनको चौपाई और अर्द्धावली का अर्थ न मालूम हो पर वे तुमको परखना चाह रहे होंगे. इसके पीछे भी वही कारण (जाति वाली जो बात रखी) रहा होगा. फ़िलहाल तुम्हारे शोध ने जनपद जालौन के छोटे-बड़े, घोषित-स्व-घोषित साहित्यकारों को सामने लाने के साथ-साथ एक जगह इकठ्ठा कर दिया है. बढ़िया संस्मरण

  • 16 Jun, 2025 06:39 AM

    प्रोफेसर विजय महादेव गाडे जी, आदरणीया नीलिमा करैया जी, राहुल चौरसिया जी बढ़िया टिप्पणी के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद

  • आपके संस्मरण पढ़ना बहुत अच्छा लग रहा है आचार्य जी! इन्हें लिखना जारी रखिए। मैं भी जब सरस्वती विद्या मंदिर में पढ़ता था तो वहां भी ऐसे ही निरीक्षण होता था । हम लोग कक्षा के पीछे के दरवाजा के तरफ वाली टेबल को गुलदस्ता मेजपोश आदि डालकर सजा कर रखते थे।

  • 15 Jun, 2025 05:41 PM

    शैली जी, आभार आपका

  • लखनलाल पाल जी केवल अनुसंधान ही नहीं जीवन के हर क्षेत्र में जातीयता बढ़ रही है और दूसरी बात कोई भी साहित्यकार हो या कोई महापुरुष उसके ऊपर जाति का ठप्पा लगाकर उसे सीमित किया जाता है, यही कारण है कि समाज में जागरूकता के बजाय जातीयता बढ़ रही है. राम या कृष्ण पर लिखकर कोई भी तुलसीदास जी या रसखान नहीं हो जाते यह हम भी मानते हैं लेकिन कोई नये नजरिए से लिखते हैं तो उसका स्वागत होना चाहिए यह हमारी अवधारणा है. राम कथा या महाभारत किसी महासागर के समान है और उससे दो चार बूंद उठाने से कोई फर्क नहीं पड़ता. ऐसे भी रचनाकार होते हैं जो इगो नहीं अपितु सुपर इगो बकौल फ्राइड प्रभावित रहते हैं जिनमें से कई लोगों का सामना हो जाता है और शोध कार्य में व्यवधान पैदा होता है. चौपाई के संदर्भ में आप ने जो विवरण दिया है उससे हम भी समृद्ध हुएं हैं जिसके लिए आप को धन्यवाद. सुन्दर आत्माभिव्यक्ति! सादर ????

  • 15 Jun, 2025 04:25 PM

    अभी पढ़ा सर जी! काफी कुछ सीखने लायक है। चौपाई का अर्थ आज समझ में आया। हम भी यही जानते थे कि इसमें दो ही पद होते हैं।और दोनों में 16-16 मात्राएँ होती हैं। वैसे तो हिंदी में सभी कुछ हमारा प्रिय रहा सर जी!पर व्याकरण में रस- छंद- अलंकार हमारे भी प्रिय विषय रहे। पर हम भी समझ नहीं पाए। थोड़ा और स्पष्ट कर समझना चाहेंगे आपसे। एक चौपाई अपने दो पदों में पूरा अर्थ रखती है।

  • 15 Jun, 2025 11:59 AM

    बहुत अच्छा संस्मरण, नमन !

  • 14 Jun, 2025 04:04 PM

    विकास उदैनिया जी, आपने संस्मरण पढ़ा। आपकी प्रतिक्रिया हौसला बढ़ाने वाली है। बहुत-बहुत धन्यवाद आपका

  • वाह पाल जी, स्मरण करा दिया सबकुछ आपने, बहुत सुंदर लिखा आपने, आपकी सबसे बड़ी खासियत थी साधारण और सामान्य रहना, हमेशा खुश होकर प्रत्युत्तर करना... आप वाकई में विद्वान हैं ये एस आर कॉलेज वाले भी जानते थे, बस उन्होंने कभी वहां अध्यापकों की कदर नहीं की.....

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