बाढ़ै पुत्र पिता के धरमा
डॉ. लखनलाल पाल
अगर आप किसी को मन से निकालना चाहते हो तो उसे काग़ज़ पर लिख डालिए। यह मेरा अपना अनुभव है। मैंने ऐसी बहुत सी स्मृतियाँ काग़ज़ पर लिखकर मिटाई हैं। इसे मैं मुक्ति समझता हूँ। जीवन में मुक्त होते चले जाना और फिर अन्य से जुड़ते जाना एक क़ुदरती प्रक्रिया है। आज मैं भी अपने पिता से मुक्त होना चाहता हूँ। इसलिए मैं उन पर लिख रहा हूँ।
मैं अपने लिए भी यही चाहता हूँ। मेरे जाने के बाद मुझे कोई याद न रखे। याद भी एक बोझ है। इस बोझ को जितनी जल्दी हो उतार देना चाहिए। जब ये उतरेगा तभी तो आने वाले इस बोझ को वहन कर पाएँगे।
मेरे पिता चरवाहे थे। भेड़ पालन हमारा पुश्तैनी व्यवसाय था। इस व्यवसाय को स्त्री-पुरुष सभी कर लेते हैं। कठिन समय में भी यह व्यवसाय आदमी को टूटने नहीं देता। मेरे बाबा का निधन पिताजी की अल्पायु में हो गया था। पिताजी उस समय दो या तीन वर्ष के रहे होंगे। पिताजी की दो बड़ी बहनें थी। बाबा के जाने के बाद इस व्यवसाय को उन्होंने सँभाल लिया। लेकिन ज़्यादा दिनों तक वे इसे सँभाल न सकीं। उस समय बाल विवाह की प्रथा थी, इस कारण कम उम्र में ही उनके विवाह कर दिए गए। स्कूल जाने की उम्र में पिताजी को चरवाहा बनना पड़ा। भेड़ चराने के लिए जो लाठी उन्होंने बचपन में उठाई थी वह उनकी मृत्यु के बाद ही दीवार से टिक सकी। राजा का बेटा पिता के द्वारा अर्जित सिंहासन को, किसान का बेटा पुश्तैनी खेती को सहर्ष स्वीकार कर लेता है पर हम दोनों भाइयों ने उनकी उस विरासत को लेने से इनकार कर दिया था।
पिताजी ने अपने दुर्दिनों से जल्दी नजात पा ली। उनमें जो मौलिक प्रतिभा थी उन्होंने उसको निखारा। वे पहलवानी के लिए अखाड़ा जाने लगे। थोड़े दिनों में वे क्षेत्र के नामी पहलवान बन गए। बुंदेलखंड के खेलों में दिवारी खेल प्रमुख है। उसके वे अद्वितीय खिलाड़ी बनकर उभरे। इस खेल में चुस्ती-फ़ुर्ती का होना आवश्यक है। पिताजी फ़ुर्तीले थे। दिवारी खेल मैं भी खेला हूँ और अच्छे से खेला हूँ। लोग जब पिताजी से मेरी तुलना करते तो मैं कहीं नहीं ठहर पाता था। चूँकि मैंने उस खेल को डूबकर खेला है इसलिए उसकी गहराई को समझता हूँ। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि वह इस खेल के गुरु थे।
धूप-छाँव की तरह समय भी मानव के साथ अठखेलियाँ करता है। पहलवानी में पिताजी आगे बढ़ रहे थे तभी उन्हें ‘गठिया वात’ ने जकड़ लिया। दवा करने पर ठीक तो हो गए लेकिन पहलवानी हमेशा के लिए छूट गई।
पिताजी ने स्कूल नहीं देखा लेकिन पढ़ने की उनमें ललक थी। इसे पूरा करने के लिए अजुद्धी माड़साहब से सुबह-शाम अक्षर ज्ञान सीख लिया था। वे अक्षर मिलाना भी सीख गए। हिंदी बालपोथी पढ़ लेते पर कठिन शब्द पढ़ने में दिक़्क़त होती थी।
उन्होंने मुझे पढ़ाने का पूरा मन बना लिया। स्कूल में मेरा नाम लिखा दिया गया। वे मुझे सुबह जल्दी जगाकर अ, आ, इ, ई लिखना सिखाते। स्कूल में हमारे गुरु जी लिखाई के साथ बचनी भी बचाते। एक बालक खड़ा होकर क्रम से अक्षर बोलता और शेष बच्चे उसी का अनुसरण करके तेज आवाज़ में चिल्लाते। जो बालक धीमे बोलता या नहीं बोलता तो गुरुजी पीछे से आकर छड़ी मार देते। वॉल्यूम अपने आप तेज़ हो जाता। मुझे लिखित और मौखिक वर्णमाला का ज्ञान हो गया था।
अक्षर मिलाकर पढ़ना मेरे लिए त्रासदी से कम नहीं रहा। पिताजी अक्षर मिलाकर पढ़ने को कहते। ज़रा सा चूकने पर वे तुरंत गाल पर थप्पड़ मारते। रोना आता पर रोने नहीं देते। इसमें मैं पिताजी का क़ुसूर नहीं मानता। उस समय की यह अनिवार्य शर्त थी कि बालक जब तक पिटेगा नहीं तब तक पढे़गा नहीं। वे तो इस शर्त का निर्वाह कर रहे थे। उस समय माँ भी कुछ नहीं बोल पाती। अनपढ़ माँ को लगता कि बेटे को आगे बढ़ने के लिए इससे गुज़रना ज़रूरी था। लेकिन ममत्व ऐसा कि एक दो बार टोककर उन्होंने ख़ुद पिताजी से गालियाँ खाई।
कक्षा तीन के बाद पिताजी का पढ़ाना छूट गया। उससे आगे वे नहीं पढ़ा सकते थे। बुनियाद ठीक रख दी थी। सुबह मुझे जल्दी जगाकर वे किताब पढ़ने को बोलते। इससे हुआ यह कि सुबह पढ़ने की मेरी आदत पड़ चुकी थी।
गाँव के हर महल्ले में प्रतिदिन तुलसीकृत मानस पढ़ी जाती थी। पिताजी सुनने जाते। उन्हें रामायण का ज्ञान था। उन्होंने मुझे रामकथा बचपन में ही सुना दी थी। पिताजी ने मेरे लिए रामचरितमानस (मूल गुटका) ख़रीद दिया। वे मुझे शाम को मानस के पाँच दोहे (कड़़वक) पढ़ने को कहते। मैं मिट्टी के तेल की कुप्पी जलाकर मानस पढ़ने बैठ जाता। जीवन में कई बार संपूर्ण मानस पढ़ने का श्रेय मैं पिताजी को दूँगा।
पिट-पिटाते मेरी शिक्षा निरंतर आगे बढ़ती रही। पढ़ने के बाद मैंने शिक्षण को ही अपना कैरियर चुना। प्राइवेट स्कूल में मैंने अपना समय ज़्यादा दिया। शुरूआत छोटे बच्चों की पढ़ाई से की। कई बच्चों को अक्षर मिलाना नहीं आता था। अनेक बार समझाने पर भी वे पढ़ नहीं पाते तो गाल पर थप्पड़ लगा देता। बच्चे रो पड़ते। जैसे-तैसे मैं उन्हें शांत कराता।
बच्चे के रोने से मुझे अपना बचपन याद आ गया। पिताजी के ग़ुस्से वाला चेहरा आँखों के सामने घूम गया। उस वक़्त लगता था कि यह समय कैसे भी गुज़र जाए। संवेदनाएँ मनुष्य को झकझोरती हैं। मुझे भी झकझोरा। मेरे जीवन में वे सारे दृश्य रील की तरह घूम गए। मेरा चिंतन इसी ओर बढ़ गया। मैंने बच्चे की मुश्किल को अपनी मुश्किल माना। पहले बच्चे की समस्या को समझा और उसका समाधान ढूँढ़ा। पिटाई समस्या का हल नहीं है। शांत चित्त होकर, धैर्य और प्रेम के साथ बालक को पढ़ाया जाए तो मैं नहीं समझता हूँ कि कोई बालक स्कूल छोड़ने का मन करेगा। मेरे समय में बहुत से बालक गुरु जी की पिटाई के डर से स्कूल छोड़ चुके थे।
मैंने अपना अलग तरीक़ा अपनाया। मेरे विद्यार्थी जानते हैं कि मैंने उन्हें धैर्य के साथ पढ़ाया है, और आज भी पढ़ा रहा हूँ।
पिताजी के पहलवानी के क़िस्से सुनकर मैं भी अखाड़ा जाने लगा। चौमासे भर कसरत की और दाँव-पेंच सीखकर एक-दो दंगल देखे। पहलवानों से जोड़ मिलाकर कुश्ती भी लड़ी।
एक दंगल में जोश में आकर मैंने मज़बूत पहलवान से हाथ मिला लिया। मज़बूत इसलिए कि वह काफ़ी दिनों से कुश्ती कर रहा था। मैं ठहरा नौसिखिया। कुश्ती शुरू हो गई। मैंने अपने सारे दाँव-पेंच उस पर चलाए लेकिन उससे पार न पा सका। उसने अपने दाँव से मुझे नीचे गिरा लिया। चारों खाने चित्त करने के लिए उसने अपनी ताक़त झोंक दी। मैं अपनी पूरी ताक़त चित्त न होने के लिए लगा रहा था। पन्द्रह मिनट तक वह बराबर मुझे घोंटता रहा। अंत में हार-जीत के बिना कुश्ती छुड़ा दी गई। जब मैं खड़ा हुआ तो मुझे वहाँ कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। मैंने अपनी आँखें मली, तब मुझे लोग दिखाई दिए। साले ने बहुत घोंटा था।
इस कुश्ती के बाद मेरा पहलवानी का भूत उतर चुका था। पिता जैसा मैं नहीं बन सकता। आपको पिता से प्यार करते हुए पिता के आभामंडल से मुक्त होना पड़ेगा। ऐसे ही मुक्त नहीं होना, बेरहमी के साथ होना होगा।
आज बहुतेरे पुत्र अपने यशस्वी पिता के नक़्शे क़दम पर चलकर कैरियर की शुरूआत करते हैं। उनमें वह दम नहीं होता है कि पिता के आभामंडल को भेद सकें। वे आभामंडल से ऐसे घिरे होते हैं कि बाहर का उन्हें कुछ सूझता ही नहीं। बिना सूझ के वे जीवन भर अस्तित्वहीन जीवन जीने के लिए अभिशप्त रहते हैं।
पिताजी बहुत कड़क स्वभाव के थे। ज़रा-सी बात पर पीट देते। शैतानी मैं नहीं करता था। रात को घर में देर से आऊँ या सुबह-शाम भेड़ों के काम में उनका हाथ न बटाऊँ तो पिटाई सम्भव थी। एक पड़ोसी के साथ मेरा उठना-बैठना उन्हें अच्छा नहीं लगता था।
मैं बी.एससी. कर चुका था। गर्मियों के दिनों में ईंट-खप्पर पकाए जाते हैं। हमने भी दस हज़ार ईंटों का भट्टा लगाकर उसमें आग दे दी। फ़ुर्सत में हो चुके थे। पड़ोसी का भी ईंट का भट्टा लग चुका था। उसमें आग देनी थी। वह मुझे अपने साथ ले गया। गर्मियों के दिनों में हवा ज़्यादा चलती है इसलिए भट्टे में आग रात को दी जाती है। अगर दिन में आग दे दी और हवा तेज़ चल गई तो उसमें लगे कंडे और लड़कियाँ हवा की तरफ़ जलने लगेंगे, जिससे भट्टे के खिसकने के चांस बढ़ जाते हैं। भट्टे में आग देने के बाद हम लोग काफ़ी रात तक वहाँ बैठे गप्पें हाँकते रहे।
पिताजी को इस बात की भनक लग गई कि मैं उसके साथ गया हूँ। वे घर पर आग बबूला हो रहे थे। गर्मियों में रात दस या साढ़े दस बजे ज़्यादा समय नहीं होता है। घर पहुँचते ही उन्होंने ग़ुस्से में मुझे एक डंडा मार दिया। जैसे ही दूसरा डंडा मारा मैंने डंडा पकड़ लिया और तेज़ आवाज़ में कहा, “बस, अब नहीं।” मेरे तेवर देखकर पिताजी सध गए। उस समय मैंने सोच लिया था कि कोई बुरा कहे तो कहे पर इस परंपरा को तोड़ना है। उस दिन के बाद से पिटाई बंद हो गई थी।
आज मैं स्वयं एक पिता हूँ। मैं कभी नहीं चाहूँगा कि अपने बेटे को डंडे से मारूँ। पिता का भी एक धर्म होता है। मैं अगर धर्म से डिग जाऊँ तो बेटे का कर्त्तव्य बन जाता है कि वह मुझे इंगित करे। पिताओं की भी सीमा रेखा तय होनी चाहिए। सीमाएँ लाँघना विस्फोटक होता है।
पिता संसार का सबसे स्वार्थी प्राणी है। पुत्र से वह पालन-पोषण का दाना-दाना वसूल कर लेना चाहता है। वह जो नहीं बन पाया बेटे को बनाना चाहता है। पिताजी चाहते थे कि बेटा पढ़ लिख गया है, नौकरी तो करे ही करे साथ में ‘ख्याल गायन’ (लोकगीत) भी सीख ले। उस समय ख्याल गायक की समाज में बड़ी इज़्ज़त थी। शादी ब्याह में या बुज़ुर्गों की त्रयोदशी में लोग इकट्ठे होते। ख्याल गायकों से लोग ख्याल गाने की फ़रमाइश करते। वे तमूरा लेकर उँगली में छल्ला पहनकर उसे बजाते और गाते। बिरादरी में उनका ख़ूब नाम होता। वे देवता की तरह पूजे जाते। पिताजी भी चाहते थे कि बेटे की पूजा हो। मैं ख्याल याद कर सकता था किन्तु गा नहीं सकता। गायन क़ुदरती होता है जो क़ुदरत ने मुझे नहीं दिया था।
कमोवेश आज के पिताओं की भी यही हालत है। वह पुत्रों को क्रिकेटर, अभिनेता, नेता, अधिकारी या बड़ा व्यवसायी बनते देखना चाहते हैं। बेटों पर अनावश्यक दबाव डालते रहते हैं। ऐसे में पुत्र का विद्रोही हो जाना बड़ी बात नहीं है।
पिताजी मुझे प्यार करते थे किन्तु कभी दिखावा नहीं किया। उनका अनुशासन ऐसा था कि मैं कभी उनसे अनौपचारिक न हो सका। बस काम की ही बात होती थी। एक बार जब मैं बीमार हुआ तो उनकी बेचैनी मैंने साफ़ महसूस की। उन्होंने कहा कि चाहे सब बिक जाए लेकिन इसे ठीक करवाना है।
मेरी सरकारी नौकरी न लगने की टीस उन्हें हमेशा रही। उनके निधन के बाद मैं सरकारी पद पर पहुँच सका। वे जानते थे कि यह लड़का कमाकर खा लेगा। मैं भी ग़रीब पिता का ग़रीब बेटा बनकर नहीं जीना चाहता था। इसलिए गाँव छोड़कर उरई आ गया। यहीं शिक्षण कार्य करने लगा।
पिताजी गाँव के लिए उपयोगी और सुलभ थे। गाँव के किसी व्यक्ति का हाथ-पैर टूट जाए या उखड़ जाए तो उसकी चिकित्सा करके ठीक कर देते। टूटे हाथ-पैर पर खपच्चियाँ बाँधकर एक महीने के भीतर मैंने लोगों को ठीक होते हुए देखा है। पालतू जानवरों की बीमारी का इलाज भी वे जानते थे।
मेरी दादी का निधन सन् 2005 में हो गया। उनकी उम्र पूरी हो चुकी थी। दुख जैसी कोई बात नहीं थी। उरई में जहाँ हम रहते हैं उन पड़ोसियों को त्रयोदशी का कार्ड दिया था। वे त्रयोदशी में गाँव पहुँचे। उनमें कुछ शराब पीने वाले थे। उन्होंने मेरे सामने शराब की डिमांड रख दी। उस समय गाँव में महुआ की शराब उतारी जाती थी, वही ख़रीद ली। मेरे लाख मना करने के बावजूद उन्होंने मुझे शराब पिलवा दी। बिना मानक की शराब ने मेरी हालत पस्त कर दी। मुझसे उठा ही नहीं जा रहा था।
पंगत के बाद साजिंदे अपने साज-बाज के साथ मंचनुमा चबूतरे पर बैठ गए। भजन, कीर्तन, ख्याल आदि का रात भर का प्रोग्राम था।
माइक पर मेरा नाम बोला जाने लगा। समाज के लोग चाहते थे कि मैं कुछ बोलूँ। क्या बोलूँ और क्यों बोलूँ? यहाँ कारण लिखते हुए हलकापन महसूस हो रहा है। फिर भी लिख रहा हूँ।
मैंने अपनी पीएच.डी. की थीसिस यूनिवर्सिटी में जमा कर दी थी। समाज की नज़रों में मैं पीएच.डी. होल्डर था। अपने ज़िले की समाज में यह कारनामा करने वाला मैं पहला व्यक्ति था। जबकि मेरे लिए यह इतनी बड़ी बात नहीं थी। जो मौलिक लेखन करते हैं, वह जानते हैं कि जिसने कहानी, उपन्यास लिखे हों उसके लिए पीएच.डी. की थीसिस संकलन मात्र है। हाँ, इससे डिग्री मिल जाती है।
पिताजी के लिए यह बड़ी उपलब्धि थी। संचालक मेरा नाम पुकार रहे थे और मैं चारपाई पर बेसुध पड़ा था। पिताजी मुझे ढूँढ़ रहे थे। उन्हें भनक लग गई कि मैंने शराब पी ली है। उन्हें लगा कि मैं बाहर रहकर शराब पीने लगा हूँ। जबकि मैं शराब नहीं पीता था। मित्रों का आग्रह इस कारण बढ़ गया था कि मैंने पिछली होली में उनके साथ एक कप ले ली थी। और दूसरा कारण वे मेरे यहाँ आमंत्रित थे इसलिए संकोचवश उनके ऑफ़र को ठुकरा न पाया। इन स्थितियों ने विकार उत्पन्न कर दिया।
वे दांतन धरती काट रहे थे। मेरी बहन समझदार थी, उसने पिताजी को समझाया कि शोर करोगे तो भैया की बदनामी हो जाएगी। उन लोगों से कह दो कि भैया बहुत दिनों बाद गाँव आए हैं सो मित्रों से मिलने गए हैं। आते होंगे। समाज में यही बोला गया। मेरा नाम बोलना बंद हो गया।
कुछ देर बाद मुझे उल्टी हो गई। उल्टी के बाद मुझे लगा कि मैं नॉर्मल हो गया हूँ। मैंने मुँह धोया, कपड़े बदले और बालों में कंघी करके वहाँ पहुँचकर दूर बैठ गया। लोगों ने देखा तो बात मंच तक पहुँचा दी। सम्मान के साथ संचालक महोदय ने मंच पर मुझे आमंत्रित कर दिया।
मैं मंच पर ज़्यादा नहीं बोल पाता हूँ पर उस दिन ऐसा बोला कि लोग मेरी तारीफ़ करने लगे। थीसिस मैंने कैसे लिखी, क्या परेशानी आई, इसका मैंने ख़ूब महिमा मंडन किया। (इसके भी रोचक क़िस्से हैं। इस पर फिर कभी लिखूँगा)।
वहाँ महिलाओं का ख़ूब जमावड़ा था। यहाँ कुछ हो या न हो किन्तु हर घर में कम से कम एक महिला गुटखा ज़रूर खाती मिलेगी। इसी विषय पर मैंने बुंदेली में एक कविता लिखी थी। इस कविता को मैंने मंच से सुनाया:
“उठी सवेरे द्वारों झारे, लैखें अपन बहरिया सें
गुटखा दबो गाल में ओखे, चूना लगो उंगरिया में
थूक खें ओनै आधौ खा लओ, आधौ खुसो खुटी में
सास ससुर की आन करत है, दाबै रहत मुठी में
आग लगो मैं करों जिजी का, आदत मोरी पर गई
कीरा लगत हतो दांतन में, दाई दवा बता गई
घुंघटा ओखौ बड़ौ लजीलौ, मोती जड़े पुंगरिया में
गुटखा दबो गाल में ओखे . . .”
महिलाएँ मुँह दबाकर हँसने लगी। मंच से उतरने के बाद लोगों ने मुझे शाबाशी दी।
मैं सुबह रिश्तेदारों के लिए चाय-नाश्ते की तैयारी में लग गया। अंदर से धुकधुकी चल रही थी कि पिताजी रात वाली घटना का ज़िक्र न कर दें। उन्होंने ज़िक्र किया पर इस ढंग से किया कि मैं समझता हूँ कि ऐसा कहा तो बहुतों ने होगा पर वह कहन असल में इसी समय के लिए ईजाद हुई होगी। उस कहन में दुनिया का सारा दर्शन एक पल के लिए समा गया। उनका मेरे लिए एक संक्षिप्त वाक्य था, “भैया इसीलिए पढ़ाया था।”
यह एक वाक्य नहीं था। कॉलेज की सारी डिग्रियों के ऊपर चंद्रबिंदु था। जिससे उस शब्द (डिग्री) का वास्तविक अर्थ खुलता था। चंद्रबिंदु के अभाव में अर्थ का अनर्थ हो जाता है। उस दिन के बाद मैंने कभी शराब को हाथ नहीं लगाया। पिताजी इस दुनिया में नहीं है पर जब इस चीज़ की चर्चा होती है तो पिताजी का वह वाक्य गूँज उठता है। इस वाक्य का अंत अब मेरे अंत के साथ होगा। यह वाक्य एक बिना पढ़े-लिखे पिता का था। जो स्वयं नहीं पढ़े थे लेकिन मुझे पढ़ाया। मेरी हर डिग्री में उनके ख़ून-पसीने की बूँदें झलकती हैं।
तीन महीने की असाध्य बीमारी के चलते उनका निधन सन् 2015 में हो गया। उनके इलाज की ख़ातिर हमने कोई कसर न छोड़ी, सेवा भी ख़ूब की। मैं बाहर नौकरी करता हूँ। मैं उनकी सेवा उतनी नहीं कर पाया जितनी करनी चाहिए थी। क्योंकि नौकरी की भी अपनी शर्तें होती हैं। मेरे छोटे भाई और उसकी पत्नी ने ख़ूब सेवा की। मैं उन्हें एक अच्छे पुत्र और पुत्रवधू होने का श्रेय दूँगा।
बीमारी के चलते उन्हें लगभग पूरा गाँव देखने आता। वे सब प्रार्थना करते कि जल्दी ठीक हो जाएँ। गाँव के लिए पिताजी उपयोगी थे। स्वार्थ से उपजे इस अपनेपन को बुरा नहीं कहा जा सकता है।
व्यक्ति अगर हट्टा-कट्टा है और अपना काम बख़ूबी कर लेता है तो बहत्तर वर्ष की उम्र ज़्यादा नहीं होती। वह बीमारी से पहले अपनी भेड़ें चराने जाते थे। इस व्यवसाय को उन्होंने कभी नहीं छोड़ा।
अचानक पिताजी के जाने के बाद जीवन में ख़ालीपन सा महसूस होने लगा। जैसे ज़िन्दगी का कुछ हिस्सा छूट गया हो। उनकी बहुत याद आती। माँ ने मुझे कभी थप्पड़ नहीं मारा फिर भी मैं पिताजी के अधिक निकट रहा।
मेरी माँ आज भी जीवित है। ठीक-ठाक अपना काम कर लेती हैं। वह गाँव में रहती हैं।
माँ मुझ पर गर्व करती हैं। कभी बाहर का चटपटा खाने की उनकी आदत नहीं रही है पर अब उन्हें समोसा बहुत पसंद है। ठेला पर समोसा बेचने वाला वहाँ से निकलता है तो माँ समोसा ख़रीद लेती हैं। उसी समय मुहल्ले की कोई बहू वहाँ से गुज़रती है तो उसे भी बुलाकर समोसे का ऑर्डर देकर कहती है, “आ जा री! खा ले—मो बेटा नौकरी करत। ख़ूब पइसा है।”
बहू हँसकर कहती, “बाई ख़ूब पइसा है तो कछु हमउं खें दिबा दे।”
वे झिड़कती, “काए खें दिबा दे, ओखे लरका बच्चा नहियां का।”
छोटे भाई को भी डाँट देती है कि मैं तेरा नहीं खा रही हूँ। मेरा बेटा नौकरी करता है जितने चाहूँ उतने पैसे मँगा लूँ। वे मुझसे फोन पर रुपए माँगती हैं। और माँगती कितना है? एक हज़ार रुपए मात्र। कहेंगी, “बस भइया एक हजार में काम चल जैहै।”
जब कभी मैं गाँव जाता हूँ तो माँ मुझे आदेश देकर कहती है कि भैया मुझे पैसे दिए जाना। मैं उसके सामने सौ-सौ के नोटों की गड्डी रखकर बोलता हूँ, “बाई जितने गिन पाउत उतने तेरे।” माँ को पन्द्रह से ज़्यादा गिनती नहीं आती। पन्द्रह के बाद लड़खड़ा जाती हैं। मैं उन्हें पन्द्रह सौ रुपए देकर कहता हूँ कि बाई अगली बार से गिनती सीख लेना। वह मुझे डपटकर कहती हैं, “काए रे! एक हजार से जादा है कि कम।”
“ज्यादा है।”
“हओ।” यह कहकर वे रुपए धोती के खूँट में बाँध लेती हैं।
पिताजी मेरे सपने में आने लगे जबकि छोटे भाई और माँ को वे कभी नहीं दिखे। वैसे सपनों का अलग मनोविज्ञान है। मैं प्रगतिशीलता का क़ायल रहा हूँ। अगर आप प्रगतिशील विचारों के हैं और अध्ययन भी ठीक-ठाक किया है तो अवतारी पुरुष ईश्वर नहीं लगते। वह अपने समय में संघर्ष करने वाले महापुरुष होते हैं। प्रगतिशीलता में और निखार आ गया तो वे हमारे जैसे मानव ही प्रतीत होते हैं। आध्यात्मिक सोच के व्यक्ति के लिए अवतारी पुरुष पूर्ण ईश्वर होते हैं।
हमारी भारतीयता में दोनों विचारों का समावेश है। भारतीय उपमहाद्वीप सारी विचारधाराओं का संगम है। दुनिया की सारी विचारधाराएँ इस उपमहाद्वीप में समाहित हो गई हैं।
हमारे यहाँ पुनर्जन्म प्रेत योनि जैसे विश्वासों का गीता आदि में उल्लेख है। बार-बार सपने में पिताजी का आना मन को उद्वेलित करने लगा। लगता था कहीं पिताजी की आत्मा भटक तो नहीं रही है। मैं सोचता ऐसा कैसे हो सकता है? शरीर है तब तक मानव का अस्तित्व है इसके बाद का क्या?
मन नहीं माना, पिताजी जो ठहरे। उनके लिए तो मैं काल्पनिक नरक की भी कल्पना नहीं कर सकता। पिताजी मुझसे कुछ चाह तो नहीं रहे? मेरे अंदर एक द्वंद्व छिड़ गया।
बचपन में उन्होंने मुझे मानस के दोहे पढ़ने को प्रेरित किया था। सोचा यही लौटा दूँ। हाँ, यही ठीक रहेगा। मन का फ़ितूर होगा तो वह भी मिट जाएगा।
चैत्र की नवदुर्गा में मैंने उनका फोटो रखकर नवाह्न परायण शुरू कर दिया। नवाह्न परायण पूर्ण होने पर उनके नाम की आहुतियाँ भी दे दी।
कुछ दिन बाद सपने आने बंद हो गए। मेरे मन का द्वंद्व मिट चुका था। सोचा आत्मा-परमात्मा कुछ होता है तो उनके लिए मैंने अच्छा किया। अगर नहीं होता है तो मेरा क्या गया? अब मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि या तो मेरे मनोविकार ठीक हो गए हैं या उनकी आत्मा को शान्ति मिल चुकी है।
11 टिप्पणियाँ
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शन्नो अग्रवाल जी, राहुल चौरसिया जी, जगदीश प्रसाद त्रिपाठी जी, अभिषेक पाल जी, मलय रंजन खरे जी, डॉ नागेश्वर राव जी, प्रदीप कुमार पाल जी, महेंद्र पाल अध्यापक जी एवं शैली जी आप सभी का बहुत-बहुत आभार
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प्रिय लखनलाल जी, जिस तरह आपने अपने पिता की यादों में डूबकर यह संस्मरण लिखा उतना ही इसमें डूबकर मैने भी इसे पढ़ा। इसमें आपके जीवन की जो झलक मिली उसे पढ़कर मन भीग गया। जिस तरह आपने इसे रेखांकित करके हमारे संग साझा किया है उसने आपको हम सबकी नजरों में और ऊँचा उठा दिया है। एक पिता का अनुशासन, उनका कड़क व्यवहार, स्वयं अधिक पढ़े-लिखे न होने पर भी आपके उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हुये आपको पढ़ाने की लगन और इन सबमें तपकर सोने की तरह निखरकर आज आप जो भी हैं उससे उनको आप पर कितना गर्व हुआ होगा। इसकी हम सभी कल्पना कर सकते हैं। मुझे भी अपने पिता की याद आ गयी। जब छोटी थी तो बचपन में मेरी अम्मा मुझे अक्सर मारती-कूटती रहती थीं। किंतु मेरे पिता ने कभी उँगली भी नहीं उठाई मुझपर। हर इम्तहान में पास होने पर जब रिजल्ट दिखाने सीधे उनके पास दौड़ती हुई जाती थी तो उनके चेहरे की मुस्कुराहट व आँखों में बेटी के लिये झलकता गर्व देखकर मुझे जो खुशी मिलती थी वह अवर्णीय है। आज भी जब कभी वह सब याद आता है तो आँखें छलछलाने लगती हैं। पिता स्वभाव में कैसे भी हों पर हर पिता अपने बच्चे का शुभचिंतक होता है। शायद आपके पिता ने अपने बच्चों के भविष्य को निखारने के लिये ही सख्ती बरती। साथ में पढ़ाई के प्रति आपकी भी रुचि होने से आप जिस मुकाम पर आज हैं वह अन्य सबके लिये एक उदाहरण है। आपके जीवन की यह झलक आपके बचपन से लेकर अब तक की सारी यादों का एक सच्चा चिट्ठा है। पिता जीवन का आधार होते हैं। उनकी छत्रछाया सब पर बनी रहे। आज आपके पिता इस दुनिया मे नहीं हैं किंतु आप जैसा बेटा पाकर उनकी आत्मा को कितनी शांति मिल रही होगी। पिता की यादों को हम मिटाना चाहकर भी कभी मिटा नहीं सकते। आपकी माँ के बारे में भी पढ़कर बहुत अच्छा लगा। ऐसा बेटा पाकर हर माँ अपने को सौभाग्यशाली समझेगी। आपके इस संस्मरण से आपके बारे में बहुत कुछ जाना। लेखन पर आपको बहुत बधाई व शुभकामनाएं। ???????? -शन्नो अग्रवाल
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आचार्य जी बहुत ही सच्चे इंसान हैं। उनकी यही सच्चाई और सादगी उनके लिखने में भी है। वे अपने पढ़ने वाले को हाथ थामकर साथ लेकर जाते हैं अपनी दुनिया में। कि कोई अंतर न रहे उनमें और उनके पाठक में। कितने कम शब्दों में कितने बड़े कैनवास का चित्र उकेरा है उन्होंने- कितना सुंदर, सच्चा और एहसासों से भरा हुआ । जीवन्त । प्रणाम है आपको।
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बड़ा भावपूर्ण वर्णन किया है आपने| खासतौर पर " भैया इसीलिए पढाया था ?" और उसका प्रभाव भी सकारात्मक रहा| वेद वाक्य मानकर आपने उसका पालन किया| आज के युग में बातों का असर बच्चों पर दिखाई नहीं देता| ग्रामीण परिवेश में जिस परिवार के आर्थिक संसाधन सीमित हों कमोबेश सबकी स्थिति पहले यही थी| परंतु परिस्थितियों से संघर्ष की क्षमता गजब की थी| आपका संस्मरण उस समय के जनजीवन से जुड़ा होने के कारण सबको प्रभावित करने वाला है| वाकई बहुत अच्छा लिखते हैं आप!
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बहुत ही अच्छा लगा गुरु जी ये पढ़कर मैने 2 बार पढ़ लिया चरण स्पर्श गुरु जी ????
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बहुत बढ़िया
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@ लखनलाल पाल जी, अदभुत, सत्यता से लिखी पिता के आवश्यक, अनावश्यक कर्म को लिखकर नई चेतना जागृत की। " शिक्षक की मार के डर से नौनिहाल स्कूल छौड़ देते" यह वाक्य केंद्र एवं राज्य सरकारो तक पहुचे, ताकि कोई भी अबोध शाला को पीठ न दिखाए, माँ से बोलिए उनके भाई के लिये भी ठेलेवाले से लेकर एक समोसा रख दे, मै जल्दी आऊँगा ।???? मलय रंजन खरे
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@Lakhan lal pal हिंदी प्रोफेसर Bhai ji, आपने इतनी संवेदना से लिखा है कि कहीं-कहीं पढ़ते समय अक्षरयात्रा में आपके साथ हम भी टाइम ट्रेवल कर रहे थे! विशेष कर मेरे जैसे लोगों के लिए आपने जो वातावरण दिया वह तो नितनवीन है! ???? इतनी स्तरीय विशुद्ध साहित्यिक संवेदना साझा करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद???????????????????????? कभी-कभी ऐसा भी हुआ था कि पढ़ते समय अक्षर दिख नहीं रहे थे! संभवत: नमी के कारण!! शायद इसलिए सबसे गहरी अनुभूति को हमेशा तरी/ नमी (रससिक्त) कहा गया है! इससे ज्यादा अनुभूति को कैसे कहा जा सकता है- "रसो वै स:"
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बहुत ही सजीव और सुन्दर वर्णन किया है, बचपन की यादें ताजा हो गई।
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Aadarniy lakhanlal pal ji aapke dwara Jo sansmaran likha gaya hai usne mujhe ander tak jhakjhor ke Rakh Diya bahut hi achcha sansmaran hai aur apne Bundelkhand ki sabhyata aur shalinata ka rekha chitra ukera hai sar garbhit aur Samaj Ke liye Prerna dayak hai sansmaran padhakar mein dhnya Ho Gaya
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सच्चा और सुगठित संस्मरण, बधाई। पिता की याद या कोई भी याद लिख कर मिट सकती तो जिन्दगी बहुत अलग सी होती है। अक्षर मिला कर पढ़ना सीखना यदि कठिन है तो सीखे हुए को भुलाना कठिन नहीं असम्भव है, कभी किसी सीखी हुई चीज़ को unlearn करने की कोशिश कीजिए, ऐसे ही याद की तीव्रता कम हो सकती है, यादें भूलती तभी हैं जब मस्तिष्क में कोई बीमारी हो या बुढ़ापे में दिमागी शक्ति कम हो जाए। आपने बहुत कठिनाइयों को पार किया है। आपके परिश्रम और धैर्य को नमन।