एक साहित्यकार का त्यागपत्र

01-05-2025

एक साहित्यकार का त्यागपत्र

डॉ. लखनलाल पाल  (अंक: 276, मई प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

जब कभी हम पीछे मुड़कर देखते हैं तो बहुत सी बातें अचानक मस्तिष्क में आकर अपनी उपस्थिति दर्ज करा जाती हैं। कितने साल हो गए लेकिन ऐसा लगता है जैसे वे बीते पल आज भी हमारे साथ हैं। भूत जब वर्तमान में आकर चुहल करने लगे तो वह टीसें ही नहीं देता, सुकून से भी भर देता है। 

मैंने और सुरेन्द्र नायक जी ने एक साथ मुख्य धारा के साहित्य पर लेखन की शुरूआत की थी। यह सन् 2006 की बात थी। इसके पहले हम यूँ ही कुछ न कुछ लिखते रहते थे। कविता लिखी तो कभी कच्ची-पक्की कहानियाँ लिखी। खंडकाव्य लिखने की सोची तो कभी महाकाव्य लिखने का मन बनाया। लेकिन ऐसा कुछ हो न सका। महाकाव्य लिखने के लिए एक विज़न चाहिए होता है और साहित्यकार में महाकाव्य जैसा उच्च जीवन आदर्श भी। 

मेरा मन दूर कहीं पुराने खंडहरनुमा समय में प्रवेश कर जाता है। कुछ महीने पहले सुरेन्द्र नायक जी से मेरी मुलाक़ात एक काव्यगोष्ठी में हुई थी। हम दोनों ने उस मंच से कविताएँ पढ़ीं पर संयोग था या कुछ और कह नहीं सकता हूँ। हम दोनों वहाँ नहीं जम पाए थे। सुरेन्द्र नायक जी मेरे पास आकर बोले कि तुम्हारी कविता तो अच्छी थी। मैंने कहा, “मैं वैसा पढ़ कहाँ पाया।” 

“यही हाल हमारा है।” वे परिचय के अंदाज़ में बोले, “कहाँ रहते हो?” 

मैंने अपना पता बताया तो बोले कि वहीं तो हम रहते हैं। आप हमें जानते हैं? मैंने ‘न’ में सिर हिला दिया। उन्होंने अपने घर का पता दे दिया। 

एक दिन मैं उसी पते पर पहुँच गया जहाँ नायक जी रहते थे। मुझे याद है, उस दिन नायक जी ने मुझे महाकवि से संबोधित किया था। ऐसे संबोधन मुझे असहज करते हैं लेकिन मैंने इसको हल्के में लिया था। उस दिन उनसे बहुत बातें हुईं। नायक जी मुझसे लगभग चौदह-पंद्रह साल बड़े हैं लेकिन उन्होंने कभी उम्र को आड़े नहीं आने दिया। उन्होंने कहा कि आप साहित्यकार और मैं साहित्यकार, बस इसके अलावा कुछ नहीं। बात बराबरी से होगी। नायक जी आज भी अपने में क़ायम है। 

कविता कैसी लिखी जाए इस पर मंथन होता। शुरूआत में छंदबद्ध रचनाएँ लिखी। इसके बाद निश्छंद रचनाओं पर आ गए। लेकिन मन भर नहीं रहा था। एक दिन वे बोले कि क्यों न हम पत्रिकाएँ मँगाकर उनमें लिखें। स्थानीय काव्य गोष्ठियों में लगे रहे तो आगे न बढ़ पाएँगे। 

सुरेन्द्र नायक जी ने कहा कि पत्रिकाएँ मैं मँगा लूँगा। उनको पढ़कर पता चल जाएगा कि आज साहित्य में क्या ट्रेंड चल रहा है। मैं उस समय प्राइवेट कॉलेज में शिक्षण कार्य कर रहा था। 

पत्रिकाएँ मँगाई गई। उनको पढ़कर समझने का प्रयास किया गया कि कहानियाँ किस तरह की लिखी जा रही हैं। हमने भी कहानियाँ लिखनी शुरू कर दीं। लिखी कहानियाँ पत्रिकाओं में भेजते। शुरूआत में सब लौट आई थीं। पोस्टकार्ड में लिखे ‘अस्वीकृत’ शब्द से दिल बैठ जाता था। समय बीतते कुछ कहानियाँ पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं तो कुछ वापस लौट आईं। 

जब तक सुरेन्द्र नायक जी उरई में रहे, तब तक स्थानीय साहित्यकारों में डॉ. रामशंकर द्विवेदी जी, डॉ. सत्यवान जी के साथ ख़ूब बैठकी हुई। उस बैठकी में साहित्य पर लम्बी बहसें होतीं। डॉ. रामशंकर द्विवेदी जी वरिष्ठ एवं साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त साहित्यकार हैं। वे हमारी कठोर आलोचना करते थे। हमारी क्या वे उरई के हर साहित्यकार की आलोचना करते थे। आज विचार करता हूँ तो पाता हूँ कि उनकी आलोचना कहीं से भी अहितकर नहीं थी। वे सत्य बोलते थे और सत्य कड़वा होता है। ऐसे सत्य को हर कोई पचा नहीं पाता है। आदरणीय द्विवेदी जी पर फिर कभी विस्तार से लिखूँगा। 

डॉ. सत्यवान जी त्रैमासिक पत्रिका ‘सृजन समीक्षा’ निकालते थे। वे कविताएँ बढ़िया लिखते थे। वे हमारे मित्र भले ही बन गए थे पर रचनाएँ मैरिट पर छापते थे। मेरी कुछ कहानियों को उन्होंने ‘सृजन समीक्षा’ में स्थान दिया है। सत्यवान जी, नायक जी की कहानियाँ न छापकर समीक्षा छाप देते थे। 

नायक जी के कोंच चले जाने पर यह सिलसिला रुक गया। लिखना बराबर चलता रहा पर बैठकी बंद हो चुकी थी। फोन-वोन से बात कर लेते थे। 

मुक़द्दमे के सिलसिले में उनका उरई आना-जाना लगा रहता था। जब भी वे तारीख़ पर उरई आते तो वकील से तारीख़ लेने के बाद मुझे फोन करके बस स्टैंड पर बुला लेते। बस स्टैंड इसलिए कि बात भी हो जाएगी और यथासमय घर (कोंच) भी पहुँच जाएँगे। वहीं बैठकर चाय के साथ हम साहित्य पर चर्चा परिचर्चा करते रहते। 

नायक जी हद से ज़्यादा प्रैक्टीकल पर्सन थे। वे जीवन की आवश्यकताओं को पूर्ण करने पर बहुत ज़ोर देते थे। वे स्वयं इसे बलपूर्वक अपनाते थे तथा अपने दोस्तों से भी इसी बात का आग्रह करते थे। उनका तकिया कलाम था कि जीवन में रुपयों का ही महत्त्व है। अगर रुपए नहीं है तो कोई आपको सम्मान न देगा। मुझे अक्सर कहते कि रुपए बचाकर रखो, गाढ़े समय में यही काम आएँगे। पत्नी बच्चों की आवश्यकताएँ यही पूरी करता है। साहित्य से आत्मसंतुष्टि तो मिल सकती है पर पेट रुपयों से ही भरेगा। मुझे लम्बे लेक्चर से ऊब लगती तो मैं उन्हें साहित्य की ओर मोड़ देता। 

नायक जी के तीन उपन्यास प्रकाशित हो चुके थे। दो उपन्यास उन्होंने और लिख लिए थे। वे उन्हें छपवाना चाहते थे। बोल रहे थे कि यश प्रकाशन दिल्ली से छपवाना है। हो सकता है कि अगले साल तक प्रकाशित होकर आ जाएँ। 

नायक जी साहित्यकारों और पत्रिकाओं के संपादकों से ख़ासे क्षुब्ध रहते थे। उनका मानना था कि साहित्यकार संपादकों से अच्छे सम्बन्ध बनाकर रखते हैं इसलिए वे छप जाते हैं। जबकि संपादक हमारी कहानियों को लौटा देते हैं। बस इसी बात पर उनका आक्रोश बाहर निकल आता था। वर्तमान साहित्यकारों की रचनाएँ उन्हें कम भाती थीं। वे मोपांसा, लियो टालस्टाय के ज़बरदस्त फ़ैन थे। भारतीय साहित्यकारों में अज्ञेय उनके प्रिय साहित्यकार थे और वे मानते थे कि अज्ञेय के स्तर का साहित्यकार हिन्दी जगत में कोई नहीं है। लेखिकाओं में मृदुला गर्ग और मन्नू भंडारी के लेखन से वे ख़ासे प्रभावित थे। इनके विषय में उनकी राय थी कि ये लेखिकाएँ साहित्य में अमर रहेंगी। अन्य लेखिकाएँ तो भौंड़ेपन के लिए जानी जाएँगी। 

वे जब शुरू हो जाते तो चारों तरफ़ घूम फिर आते। इसी घूमा-फिरी के दरमियान उनकी वक्र दृष्टि मेरे उपन्यास ‘बाड़ा’ पर केन्द्रित हो गई। वैसे ही जैसे मिग-21 विमान के पायलेट ने टारगेट फ़िक्स कर दिया तो सामने वाला विमान गिरना ही गिरना है। फिर भले ही वह एफ़-16 ही क्यों न हो। वे बोले, “आप बुंदेली मिश्रित खड़ी बोली का प्रयोग कम कीजिए। पूरी हिन्दी पट्टी बुंदेली के शब्दों को समझ नहीं पाएगी। पात्रों की संख्या सीमित रखिए। जाति विशेष को छोड़कर वर्ग विशेष पर लिखोगे तो रचनाएँ सभी को अपनी-सी लगेंगी।”

नायक जी की इस बात से मैं इत्तिफ़ाक़ रखता हूँ कि पात्रों की संख्या सीमित होनी चाहिए। ‘बाड़ा’ उपन्यास में यह दोष है। इस उपन्यास में मैंने एक जाति विशेष (गड़रिया समाज) के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विषय को लेकर लिखा है। 

इतना मुँहफट साहित्यकार मैंने अपने जीवन में नहीं देखा है। स्थानीय साहित्यकारों से वे सीधा बोलते थे कि आपका सारा साहित्य कूड़ा है। मुख्यधारा के साहित्य से जुड़िए, कब तक वही पुराने को पगुराते रहोगे। आप जो साहित्य लिख रहे हो ये नहीं चल पाएगा। नया लिखिए तब कोई आपको ध्यान देगा। न जाने कितने ऐसा लिखते-लिखते मर गए, उन्हें न किसी ने पहले पूछा है और न अब पूछेंगे। ऐसे ही तुम मर जाओगे कोई पूछने वाला नहीं है। विद्वत्ता के कारण नायक जी का स्थानीय लोगों पर दबदबा था। वहीं कुछ लोग ऐसे थे कि उनकी भी आलोचना करते थे। सामने तो कोई नहीं कहता था, इसलिए मुझे ही सुनना पड़ता था। वे केवल नायक जी की आलोचना नहीं करते बल्कि डॉ. रामशंकर द्विवेदी जी और डॉ. सत्यवान जी की आलोचना करने में ज़रा भी न हिचकते। ये सारी की सारी आलोचनाएँ मेरे हिस्से आती थीं। उन्हें लगता था कि हम उन लोगों की आलोचना इसके सामने करेंगे तो ये उन्हें बता देगा। ये बताएगा और वे खीझेंगे तो उनके दिल को ठंडक मिलेगी। मैं सुन सबकी लेता था पर कभी उनके सामने ज़िक्र न करता। इधर की उधर मैं कम ही करता हूँ। ये सब मुझे अच्छा नहीं लगता है। 

नायक जी को सारी विचारधाराओं की जानकारी ठीक-ठाक थी। हिन्दी व्याकरण पर उनका ऐसा कमांड कि अगर कोई उन्हें चैलेंज कर दे तो वे उस चैलेंज को स्वीकार करके एक-एक अंग का विश्लेषण कर डालते। वे सामने वाले से सीधे कह देते कि अभी आप और पढ़िए। एक तो उनसे कोई उलझता नहीं था, अगर उलझ गया तो ऐसा पटकते थे कि हमेशा याद रखते। उनके ज्ञान का आतंक था। पढ़ा भी उन्होंने बहुत था। 

नायक जी ने चाय का ऑर्डर देकर दो कुल्हड़ों में चाय मँगा ली। चाय पीते हुए वे बोले, “क्या बताया जाए पाल जी, हम-तुम यहीं पड़े रह गए, दिल्ली वालों का ही झंडा बुलंद रहेगा। न कोई हमें छापता है और न कोई हमारी रचनाओं पर ध्यान देता है। मेरे तीन उपन्यास पहले से प्रकाशित हो चुके हैं किसी ने तवज्जोह न दी। लेकिन देखना पाल जी, आने वाली पीढ़ी इन्हें ज़रूर पढ़ेगी। हम-तुम लम्बी रेस के घोड़े है, बहुत आगे जाएँगे। संपादकों के प्रिय पट्ठा-पट्ठियाँ जो आज चमक रहे हैं, कल फीके पड़ जाएँगे। इनके साहित्य की उम्र लम्बी नहीं है।” 

“नायक जी, आप ऐसा क्यों सोचते हैं, वे अच्छा लिख रहे हैं तभी तो संपादक छापते हैं,” मैंने कहा। 

नायक जी मुस्कुरा दिए। उनकी वाणी में व्यंग्य उभर आया, “अच्छा, हंस की एक लेखिका को तुमने भी तो पढ़ा है न, कुछ दिन साहित्य में छाई रही, अब कहाँ है? ढूँढ़ पाओगे? सबका हाल यही होना है। दो-चार कहानियाँ छप जाने से कोई साहित्यकार नहीं हो जाता।”

मेरे पास कोई सटीक उत्तर नहीं था। किसी के बारे में कोई कैसे जान सकता है? पर मैंने उस तर्क का सहारा लिया जो एक आम भारतीय महिला पर फ़िट बैठता है। मैंने कहा, “नायक जी, लड़की/महिलाओं की अनेक समस्याएँ होती हैं। मसलन शादी-ब्याह करके नई ज़िन्दगी में प्रवेश, बाल-बच्चे आदि। इसके लिए तो फ़िल्मी तारिकाएँ भी फ़िल्मी करियर छोड़ देती हैं। उनकी ये आम समस्याएँ हैं। हम-तुम कौन से बच्चे जनते हैं!”

वे हँसे, “ख़ैर छोड़ो। सत्यवान जी कब से उरई नहीं आए?” नायक जी अब उस विषय को लम्बा खींचने के मूड में नहीं थे। मैंने हस्तक्षेप कर दिया था। इसलिए वे सत्यवान जी की ओर बढ़ गए। 

“वे आते-जाते रहते हैं,” मैंने संक्षिप्त जवाब दिया। 

“हाँ भई, वे तो यायावर हैं। उसे पहले नौकरी ढूँढ़नी चाहिए। नौकरी है तो साहित्य और अच्छे से लिखा जा सकता है। पैसे की ओर से निश्चिंत हो जाओ।” अचानक उनका फिर से चैनल बदल गया। वे बोले, “सत्यवान जी शादी कब कर रहे हैं?” 

“बता रहे थे कि घरवालों ने एक लड़की देखने के लिए कहा है पर उन्हें अभी टाइम ही नहीं है। दिल्ली लखनऊ और उरई से ही फ़ुरसत नहीं मिलती है।”

“हाँ साहित्य जगत के सितारों से अच्छा मेल-मिलाप है। अशोक बाजपेई, मैत्रेयी पुष्पा, विश्वनाथ तिवारी आदि ऊँचे दर्जे के साहित्यकारों से सीधा सम्बन्ध है। उसने अशोक बाजपेई और विश्वनाथ तिवारी जी पर विशेषांक निकाल दिया है। हो सकता है कि अब मैत्रेयी पुष्पा जी पर विशेषांक निकालें।” नायक जी कुछ सोचते हुए बोले, “विजय बहादुर सिंह जी पर विशेषांक निकाल रहा था, क्या हुआ?” 

“आप भी तो पूछ सकते हो कि सत्यवान जी अगला विशेषांक किस पर निकाल रहे हो?”

“हमें कहाँ वह साहित्यकार मानता है, हमें तो समीक्षक मानता है। साहित्यकार तो वह तुम्हें मानता है। तुम हंस, कथादेश . . . आदि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में जो छप गए हो,” उन्होंने बात को मुस्कराकर टाल दिया। 

देश के बहुत से संपादकों से उनके निजी सम्बन्ध थे। नायक जी अच्छे समीक्षक थे। पत्रिकाओं के लिए समीक्षक चाहिए होते हैं। संपादक ख़ुद साहित्यकार होते हैं तो उनके ग्रंथों की समीक्षा के लिए भी कोई चाहिए होता है। नायक जी ने उन पर भरपूर समीक्षाएँ लिखीं। बदले में कुछ संपादकों ने उन पर विशेषांक निकालने की घोषणाएँ कीं पर किसी कारणवश उन्हें स्थगित करना पड़ा। कुछ संपादकों ने पत्रिका के एक चौथाई भाग में उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डाला है। इन पत्रिकाओं में उनकी कहानियाँ, व्यंग्य, नाटक रूपक, डायरी आदि प्रकाशित होते रहे। नायक जी ने पर्याप्त साहित्य लिखा। तीन सौ के लगभग कहानियाँ, बारह-तेरह उपन्यास तथा समीक्षाओं के साथ अन्य विधाओं में ख़ूब लिखा। शुरूआत में उन्होंने दलित विमर्श और आदिवासी विमर्श पर ख़ूब लिखा। ‘युद्धरत आम आदमी’ पत्रिका में वे ख़ूब छपते थे। अन्य पत्रिकाओं में भी वे छपे। देश की ‘टॉप टेन’ पत्रिकाओं में भी छपना चाहते थे। ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ पत्रिका में कहानियाँ छपने पर वे संतुष्ट दिखे पर अन्य पत्रिकाओं में न छपने की टीस उनमें बनी रही। वे अक्सर कहा करते थे कि वामपंथी विचारों वाली पत्रिकाएँ उन्हें नहीं छापती हैं। 

“डॉ. रामशंकर द्विवेदी जी के क्या हाल हैं? अनुवाद कर रहे हैं या समीक्षा लिख रहे हैं! भाई हमारा मन तो उनसे बोलने का नहीं हो रहा है। उस दिन हम और तुम उनके घर मिलने गए थे। वे बोल रहे थे कि तुम्हें साहित्य लिखना नहीं आता है। ये क्या बात हुई? देखिए हम सम्बन्ध बराबरी के चाहते हैं। मेरे अंदर भी ब्राह्मण का ख़ून है, बेइज़्ज़ती बरदाश्त नहीं होती है।

“इतना तो मैं जानता हूँ। आप भी तो साहित्यकारों के साथ ऐसा ही बर्ताव करते हो। अच्छी-ख़ासी चल रही वार्ता में मैं बाधा नहीं डालना चाहता था। इसलिए इस बारे में चुप रहा।”

मैंने इतना ही कहा, “वरिष्ठ हैं और उनके अनुभव हमसे ज़्यादा हैं। कुछ कह दिया तो उसे दिल पर नहीं लेना चाहिए। हमारे बाबा लोग तो बिना गाली के बात ही नहीं करते थे। वे इसी श्रेणी में पहुँच चुके हैं। मुझे लगता है कि उनकी आलोचना हमारे भले के लिए ही है।”

“पाल जी, तुम हो दब्बू स्वभाव के। साहित्य में तुम किसी से कम थोड़े हो। सभी से बराबरी का व्यवहार रखो। कॉलेज (विश्वविद्यालय) के प्रोफ़ेसरों को भी तुम महत्त्व देते रहते हो। कॉलेज का प्रोफ़ेसर होना एक बात है और साहित्यकार होना दूसरी बात। साहित्यकार सबसे ऊपर होता है। हमारे साहित्य की यही लोग व्याख्या करके छात्रों को पढ़ाएँगे।” दरअसल नायक जी ने प्रोफ़ेसर लोगों को अपनी पुस्तकें भेंट कीं पर उन्होंने उन पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। इस कारण उन्हें इन लोगों से खुन्नस हो गई थी। मैंने भी अपनी पुस्तकें कुछ प्रोफ़ेसरों को भेंट कर दी थीं, इसी से वे अनमने हो रहे थे। मैंने इसी को लक्ष्य करके कहा, “महत्व की बात नहीं नायक जी, उनसे बात करने में क्या हर्ज है। प्रकाशित पुस्तकों को भेंट करने में मुझे कोई बुराई नहीं दिखती है।” 

“तुम्हें लगता है कि वे तुम्हारी पुस्तकें पढ़कर कुछ कमेंट कर देंगे तो तुम बहुत बड़ी ख़ुशफ़हमी में जी रहे हो। वे पढ़ते नहीं है, सिर्फ़ अपने पुस्तकालय में तुम्हारी पुस्तकें सजा लेंगे। सप्रेम भेंट लिखते हो न तुम, इसीको वे दूसरों को दिखाएँगे और कहेंगे कि अपने आपको बड़ा साहित्यकार समझने वाले हमें पुस्तकें भेंट करने आते हैं।”

नायक जी बोलते बहुत हैं और बोलना शुरू किया तो उस विषय का पूरा पोस्टमार्टम करके ही दम लेते हैं। वे मेरी तरफ़ हिक़ारत से बोले, “तुम्हारा एक स्वार्थ यह भी है कि वे समीक्षा लिख देंगे।” नायक जी उत्तेजित हो उठे, “धोखे में मत रहना, तुम प्राइवेट टीचर हो। उनकी नज़रों में तुम्हारी क्या औक़ात है तुम नहीं समझोगे।” 

नायक जी बोलते-बोलते अपना ऐंगल चेंज करने में माहिर हैं। बहुत जल्दी उन्होंने साहित्य को छोड़कर अर्थशास्त्र पकड़ लिया। अर्थशास्त्र तो उनके जीवन का मुख्य विषय है। अपने साथ मुझे भी अर्थशास्त्र में निपुणता वाले सूत्र पकड़ाने लगे। मेरे लिए यह विषय तीसरे नंबर पर आता है। अर्थशास्त्र की यहाँ बात करना समझदारी नहीं है। 

अब उनका समय हो गया था। कोंच जाने के लिए गाड़ी स्टार्ट हो चुकी थी। वे मुझसे विदा लेकर गाड़ी पर बैठ गए। 

हमारी उनसे एक-दो दिन में बातें होती रहती थीं। अचानक एक दिन उन्होंने फोन किया। नायक जी ने बिना किसी औपचारिकता के सीधे घोषणा करते हुए कहा, “पाल जी, मैं साहित्य से दूरियाँ बना रहा हूँ। अब मैं साहित्य नहीं लिखूँगा। मैं एक्यूप्रेशर चिकित्सा पर काम करूँगा।” 

सचमुच वह आदमी वचन का पक्का निकला। अब जब भी बात होती वे एक्यूप्रेशर पर ही बात करते। अगर मैं साहित्य की बात शुरू करता तो वे थोड़ा-बहुत बात करते, इसके बाद फिर एक्यूप्रेशर पर आ जाते। मेरी एक्यूप्रेशर में कोई रुचि नहीं थी। और उनकी अब साहित्य से रुचि ख़त्म हो चुकी थी। एक-दूसरे के लिए वे दोनों विषय उबाऊ हो चुके थे। सत्संग में उबाऊपन बाधक होता है। इसलिए हम सत्संग से यूँ ही कटते चले गए। 
 

5 टिप्पणियाँ

  • 3 May, 2025 07:22 PM

    प्रिय भास्कर सिंह जी माणिक, आप एक स्थापित साहित्यकार एवं समीक्षक हैं|आपके हस्तक्षेप का मैं सम्मान करता हूं. मैं जानता हूं कि आप अगर चाहते तो बहुत कुछ कह सकते थे जो तथ्यपरक एवं श्रेय तो होता लेकिन संभवत: प्रेय नहीं होता. आपके वाक्चातुर्य एवं संंयम के लिए आभार. है इसी में इश्क की आबरू....(हिंदी फिल्म का गाना ),यहां पर साहित्य की मर्यादा सुरेन्द्र कुमार नायक मोबाइल -8787038870

  • मैंने डॉ लखन लाल पाल द्वारा लिखित संस्मरण पढ़ा। मैं कवि एवं समीक्षक होने के नाते यह कह सकता हूं कि लेखक ने साहित्यकार सुरेंद्र नायक के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर कोई चर्चा नहीं की है बल्कि लेखक ने इस संस्मरण में स्वयं का यशोगान किया है।जब जिस लेखक, कवि, साहित्यकार एवं कलाकार का संस्मरण लिखा जाता है उस स़ंस्मरण में उस कलमका, कलाकार की जीवन शैली, भाषा, साहित्यिक शैली, कृतियों एवं कार्य शैली आदि भाव पर चर्चा होनी चाहिए।मेरी दृष्टि में लेखक ने संस्मरण में ऐसा कुछ नही लिखा। जबकि संस्मरण में लेखक के भावात्मक अभिव्यक्ति के साथ व्यक्तव व कृतित्व पर प्रकाश डाला जाना चाहिए। भास्कर सिंह माणिक,(ओज, व्यंग्य कवि एवं समीक्षक,)9936505493

  • 25 Apr, 2025 10:33 AM

    प्रिय राम शंकर जी भारती, आपने मेरे बारे में जो टिप्पणी की है,उसके लिए आभार. मुझे आपके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के बारे में गहन जानकारी है. आप तो मेरे ही जनपद से हैं.मिलने का सौभाग्य नहीं मिला,ये और बात है. मैं देश-विदेश ही नहीं ,अन्य भाषाओं के साहित्य शिल्पियों एवं स्थानीय साहित्य शिल्पियों से फोन एवं प्रवास के माध्यम से संपर्क बनाकर रखता हूं. इसका मुझे लाभ भी मिला है, अन्य संस्कृतियों की जानकारी को अपने साहित्य में समावेश करने के रूप में, अपनी कहानियों के अन्य भाषाओं में अनुवाद के रूप में, दूरस्थ विश्वविद्यालयों में शोध कार्यों के रूप में,बहुआयामी लेखन के रूप में, सभी विधाओं की कृतियों पर समीक्षाएं लिखने के कारण स्वयं भी सभी विधाओं में लेखन के रूप में मेरे निवास सह चिकित्सालय पर आपकी प्रतीक्षा रहेगी. मै लेखन से विरत हुआ हूं, साहित्य शिल्पियों के समुचित सम्मान करने से नहीं --सुरेन्द्र नायक,दूरभाष-8787038870

  • कोंच-उरई (जालौन) से जुड़ा होने के बावजूद पता नहीं कैसे साहित्यकार सुरेंद्र नायक से तक नहीं मिल पाया, आगे भी कभी मिल पाऊँगा कि नहीं, कुछ कह नहीं सकता। हाँ, उनके साहित्यिक अवदान से जरूर मिलता रहा हूँ। मेरा हल्का-सा परिचय उनके सामाजिक सरोकारों से भी रहा है... "एक साहित्यकार का त्याग-पत्र" संस्मरण लेख में भाई लखनलाल पाल ने दो साहित्यकारों के इंद्रधनुषी संबंधों की धूप-छाँव को मुखरता से उकेरा है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हम अपनी आत्ममुग्धता के कारण अपने को ही सत्य मान लेते हैं। हमने जो कहा वही सब कुछ है... यह सोच आगे की संभावनाओं को खोद-खरोंच डालती है। साहित्य कर्म की आलोचना और समालोचना व्यक्तिगत व्यवहार, गुणनिंदा-प्रशंसा आदि से ऊपर उठकर होती है। साहित्य की आलोचनीय धर्म-परंपरा में यही बताया गया है... जिंदगी जिंदादिली का नाम है सुनने में भले यह एक जुमला लगता है। मगर इस जुमले के भीतर का जो उत्स है, वह बड़ा विलक्षण है। उसकी विराटता को समझना कठिन है और कभी-कभी संभव भी। साहित्य सृजना में जब तक सामाजिक सरोकार समाहित नहीं होते हैं, तब तक संवादों-विमर्शों में स्थायित्व भी नहीं होते हैं। जिन साहित्य मनीषियों का इस संस्मरण में उल्लेख है, वे मेरी गुरु परंपरा के पूजनीय प्रज्ञा पुरुष हैं। इसलिए उनके व्यक्तित्व-कृतित्व को सादर प्रणाम ही करता हूँ। उन पर किसी तरह की टिप्पणी करने की मेरी सामर्थ्य नहीं है। उनकी अपनी गरिमा है और उस गरिमा के सान्निध्य से परिष्कृत होने वाले मुझ जैसे अनेक गरिमामय बने हैं.... साहित्यकार का त्यागपत्र होता है और नहीं भी होता है। यह दोनों बातें सच हैं। मैं संस्मरण में एक एक सिरा पकड़ने की कोशिश करता हूँ तो वे मुझसे छूट जाते हैं। मैं किसी एक बिंदु पर ठहर नहीं पा रहा हूँ। शायद ऐसा उस विरल व्यक्तित्व के कारण भी है जिसका नाम आदरणीय सुरेंद्र नायक है। फिर संस्मरण लेखक भाई लखनलाल पाल की लेखन की भूलभुलैयों में चकरघिन्नी बन गया हूँ। अब जो भी है, वह सापेक्ष है। साहित्य का सापेक्ष ही जीवन का सापेक्ष है। सच में, यही सापेक्षता का संबंधों को संबल देती है... रामशंकर भारती

  • बहुत सुंदर बहुत बढ़िया

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