वक़्त गुज़ार रहे हैं . . .

15-10-2025

वक़्त गुज़ार रहे हैं . . .

अश्वनी कुमार 'जतन’ (अंक: 286, अक्टूबर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

जीवन तुम पर वार रहे हैं
तन्हा वक़्त गुज़ार रहे हैं
 
एक दिन क़ातिल कहलाएँगे
तुमको ख़ुद में मार रहे हैं
 
शोहरत के क़ायल मत होना
जीत के सब कुछ हार रहे हैं
 
उन्होंने तो दफ़न कर दिया
हम ही उन्हें उभार रहे हैं
 
महज़ हँसी को ढाल बनाकर
कर्ज़ा एक उतार रहे हैं
 
जीवन में तरतीब नहीं कुछ
बाल को बड़ा सँवार रहे हैं
 
सोमवार से अब लगते हैं
‘जतन’ कभी इतवार रहे हैं

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