उलट

नीना सिन्हा (अंक: 244, जनवरी प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

“दादी! भैया के ब्याह के लिए लड़की तलाशने में रूप, गुण, शिक्षा, स्वजातीय, संस्कारी परिवार की बातें होती थीं। जोड़ी परिपूर्ण दिखे, उसके भी मायने थे। पर मेरी शादी की आई तो वही मापदंड उल्टे कैसे हो गए? अब चाहिए स्वजातीय लड़का, नौकरी या व्यवसाय में व्यवस्थित, शहर में बढ़िया मकान, पुश्तैनी सम्पत्ति, परिवारिक रुत्बा। सबसे अंत में रूप की बात! हुँऽऽऽ! क्या लड़कियाँ नहीं चाहती हैं कि उनकी भी जोड़ी फबे? दादी, बताओ ना!” 

“बेटा! ख़ूबसूरत दुलहन लाने के साथ परिवार के अगली पीढ़ी की ख़ूबसूरती की गारंटी समझी जाती है! गारंटी चले ना चले, वह एक अलग मुद्दा है। पर आम मानसिकता यही है, ‘दामाद सुदर्शन और स्मार्ट मिला तो बढ़िया, न मिला तो समझौता करने को तत्पर।’ क्योंकि लड़की तो दूसरे परिवार की हो जाती है। कहावत का सहारा भी है, ‘घी के लड्डू टेढ़ो भला!’

“रही बात धन सम्पत्ति की, तो बेटियों के लिए ऐसा घर वर ढूँढ़ा जाता है कि विवाहोपरांत मायके से उन्हें आर्थिक मदद की ज़रूरत न पड़े। तभी धनी लड़का समाज में हाथों-हाथ लिया जाता है।” 

“पर दादी, पैतृक सम्पत्ति पर लड़का और लड़की का बराबर अधिकार होता है। फिर लड़के के पैसों से हमें क्या लेना-देना?” 

“यहाँ कथनी और करनी में अंतर है। कुछेक राज्यों को छोड़कर अन्य राज्यों में बेटे के लिए सम्पत्ति का पहाड़ भले खड़े कर लें पर बेटी को शादी के वक़्त ले-देकर सदा के लिए आर्थिक ज़िम्मेदारियों से निवृत्त होना चाहते हैं, जिसे अमूमन दहेज़ का नाम दिया जाता है। यानी पैतृक सम्पत्ति में ठेंगा, और कन्या धन के साथ तथाकथित दहेज़ भी न देना पड़े तो दोनों हाथों में लड्डू। दरअसल लड़कों में परिवार का भविष्य दिखता है, पर शादीशुदा लड़कियों पर अधिकार जताना मुश्किल होता है।” 

“दादी! मैं एक आत्मनिर्भर लड़की हूँ। रिश्ते के लिए मैं अपनों के अनर्गल दवाब में नहीं आने वाली।” 

“मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है, बेटा!” 

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