नाहक़

नीना सिन्हा (अंक: 226, अप्रैल प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

दसवीं क्लास की छात्रा नमिता, सहेली कृष्णा के हाव-भाव से कुछ भाँपने के प्रयास में थी पर कृष्णा के निर्विकार चेहरे से कुछ स्पष्ट नहीं हो पा रहा था। उसने पूछ ही लिया, “आज समाचारपत्र में मशहूर उद्योगपति सेठ जगनलाल के देहावसान की दुखद ख़बर थी और तुम स्कूल चली आई हो! क्यों?” 

“मृत्यु पश्चात कर्म उनके आवास पर स्वजनों के समक्ष होंगे। सेठ जी के यहाँ जाने पर उनके अंतिम दर्शनों की इजाज़त भी नहीं मिली हमें। सख़्त लहजे में बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। इसके प्रतिक्रिया स्वरूप, माँ का विलाप मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ तो स्कूल चली आई,” दर्द छलक आया। 

“तुम्हारी माँ सेठ जी की दूसरी पत्नी हैं, यह शहर भर को ख़बर है। फिर समस्या क्यों हुई?” 

“उनकी नज़रों में मेरी ग़रीब माँ, उपपत्नी के चोले में उनके अमीर बुज़ुर्गवार पति के शौक़ पूर्ति का ज़रिया मात्र हैं, जिन्हें पैसे, कपड़े-लत्ते के साथ शहर से बाहर छोटा सा घर दे दिया गया था।” 

“तुमने इन बातों का कभी ज़िक्र नहीं किया!” नमिता हैरान थी। 

“बताने लायक़ था क्या? छोटी थी तो उनसे चॉकलेट वग़ैरह ले लिया करती थी। बड़े होने पर उनके आते ही सहमकर कमरे में समा जाती। ‘पापा’ कहते उनकी आँखों में रोष सा तैर जाता, तो उन्हें ‘सर’ कहना प्रारंभ किया। उनकी ओर से कभी कोई बदसुलूकी नहीं हुई। पर ऐसी कोई याद भी नहीं, जो रुला जाए। वे हमारे आर्थिक एवं सामाजिक सहारा अवश्य थे,” कृष्णा के डूबते से स्वर निकले। 

“तभी पिता के रूप में कभी उन्हें याद करते नहीं देखा तुम्हें,” नमिता ने कहा। 

“सेठ जी मेरे पिता नहीं, महज़ जैविक पिता थे। उन्हें पापा कहकर पुकारने का हक़ नहीं मिला मुझे,” कृष्णा के स्वर भर्रा गए। 

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