स्थितप्रज्ञ

01-07-2023

स्थितप्रज्ञ

नीना सिन्हा (अंक: 232, जुलाई प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

“तीन वर्षों के रिश्ते के पश्चात, तुम्हें एक सच्चा इंसान जानकर शादी का फ़ैसला किया था। पर तुम्हारा एक अलग ही चेहरा देखा तो निश्चय डिग गया,” अश्रु छलक आए। 

“मैंने ऐसा क्या कर दिया, सलिला?” 

“प्रेम-विवाह में दान-दहेज़ क्यों, मिस्टर अमर? शादी के लिए परिवार वालों की रज़ामंदी के बाद तुमने पापा से उनकी कंपनियों में से एक तोहफ़े में देने को नहीं कहा? सबने खिल्ली उड़ाई कि तुम मुझसे नहीं मेरे पिता के पैसों से प्यार करते हो। तभी वे मुझे तुमसे शादी को मना कर रहे थे।” 

“तुम्हारे पापा की कंपनी में एक कर्मचारी हूँ। जानता था कि मेरी कमज़ोर आर्थिक स्थिति हमारे रिश्ते के आड़े आएगी। समझाया भी था, पर तुम सुनती ही कहाँ हो? रुपयों से भरा तुम्हारा बटुआ, खुले हाथों से खर्चने की आदत। शादी के बाद पिता के पैसे खर्चने में झिझक हो शायद? बँधी हुई छोटी-मोटी नौकरी तुमसे होगी नहीं। मेरी मामूली सी पगार में तुम्हारा गुज़ारा भी नहीं होगा।” 

“तुमने इतने पूर्वाग्रह क्यों पाल रखे हैं, अमर?” 

“नया दौर है। अधिकांश समृद्ध लड़कियाँ ‘मैं तुलसी तेरे आँगन की’ वाली पुरातन सोच नहीं रखतीं। रोज़मर्रा के संघर्षों से पलायन तथा आँगन बदल लेने में ही समझदारी मानती हैं। अभी प्रेमिका हो, मुझे छोड़ दिया तो जैसे-तैसे सब्र कर लूँगा। पर पत्नी बनने के बाद, माता-पिता और भाइयों के पास तुम्हारा हमेशा के लिए लौट जाना सह नहीं पाऊँगा। स्पष्ट कर दूँ कि तोहफ़े में मिली कंपनी की मालकिन तुम ही होगी। मैं अपनी नौकरी में संतुष्ट हूँ।” 

“बिना जाँचे-परखे आपा खो बैठने की बुरी आदत है मेरी, अमर! सॉरी!” 

“भविष्य के प्रति तनिक आशंकित था, पर शादी-ब्याह आवश्यक सामाजिक कर्त्तव्य भी है। आगत भय अथवा कटाक्ष की वजह से प्रेम पथ से पलायन तो नहीं कर सकता।” 

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