श्रीकृष्ण: प्रेम के लोकनायक
आकांक्षा शर्मा
भारतीय सांस्कृतिक चेतना में यदि किसी व्यक्तित्व ने युग-युगांतर तक प्रेम, करुणा, धर्म, और लोकजीवन को एक सूत्र में बाँध कर रखा है, तो वह हैं भगवान श्रीकृष्ण। वे केवल ईश्वर के अवतार नहीं, प्रेम के लोकनायक हैं—जनमानस की धड़कन, हृदय की तरंग, और आत्मा की पुकार। श्रीकृष्ण का जीवन चरित्र हमें यह सिखाता है कि प्रेम कोई साधारण भावना नहीं, अपितु एक व्यापक चेतना है जो भौतिक सीमाओं को पार करके आत्मा से आत्मा का संवाद बन जाती है। वे जहाँ भी गए, प्रेम का संचार करते गए—माँ यशोदा के वात्सल्य में, राधा के माधुर्य में, गोपियों के समर्पण में, अर्जुन की श्रद्धा में, और द्रौपदी के विश्वास में।
श्रीकृष्ण प्रेम का आदर्श
श्रीकृष्ण का राधा के प्रति अनुराग केवल लौकिक नहीं, अपितु अलौकिक प्रेम की पराकाष्ठा है। यह वह प्रेम है जिसमें प्राप्ति की लालसा नहीं, केवल समर्पण का सौंदर्य है। वे न विवाह सूत्र में बँधे, न समाज की सीमाओं में। फिर भी, राधे-कृष्ण आज भी एक साथ उच्चरित होते हैं।
“प्रेम न बाड़ी उपजे, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रुचै, सिर देइ ले जाय।”
—यह कबीर की पंक्तियाँ श्रीकृष्ण के प्रेम को पूर्णतः चरितार्थ करती हैं।
युवा वर्ग के लिए संदेश: त्याग, समर्पण और संघर्ष
आज का युवा, जो निरंतर स्वार्थ, प्रतिस्पर्धा और भौतिक आकांक्षाओं में उलझा हुआ है, कृष्ण से यह सीख सकता है कि सच्चा प्रेम त्याग में है, अधिकार में नहीं। गोपियों के साथ उनकी लीलाएँ केवल शृंगार नहीं, आत्मिक संवाद का प्रतीक हैं। उनका जीवन यह बताता है कि संघर्ष से भागना नहीं चाहिए। उन्होंने जन्म से ही कठिनाइयों का सामना किया—कारागार में जन्म, मथुरा की हिंसा, वृंदावन की असुर बाधाएँ, कुरुक्षेत्र का महायुद्ध—लेकिन उन्होंने कभी दैन्यता या हताशा को स्वयं पर हावी नहीं होने दिया।
निरासक्ति और निष्काम कर्म का संदेश
श्रीकृष्ण युवाओं को यह भी सिखाते हैं कि मोह और आसक्ति जीवन को जकड़ लेते हैं। गीता का उपदेश आज के हर युवा के लिए जीवन-संहिता है—“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”–अर्थात कर्म करो, लेकिन फल की इच्छा से स्वयं को मुक्त रखो। यही मार्ग आंतरिक शान्ति और संतुलन की ओर ले जाता है।
जीवन को उत्सव समझना
श्रीकृष्ण ने जीवन को कभी बोझ नहीं माना। उनका सम्पूर्ण जीवन एक लीला है—जिसमें संगीत है, नृत्य है, हास्य है, और करुणा है युवाओं के लिए यह सन्देश अत्यंत महत्त्वपूर्ण है—“जीवन को गंभीरता से नहीं, गरिमा से जियो। खेल की भावना से जियो।”
धर्म के प्रति दृढ़ता और अन्याय का प्रतिरोध
कृष्ण का जीवन हमें यह भी सिखाता है कि धर्म का पालन केवल पूजा से नहीं होता, अपितु अधर्म के विरुद्ध खड़े होने से होता है। उन्होंने कंस का वध किया, दुर्योधन के कपट का भंडाफोड़ किया, और धर्मयुद्ध में अर्जुन को कर्मपथ पर प्रशस्त किया। आज जब युवाओं के सामने अन्याय, विषमता और अनैतिकता की चुनौतियाँ हैं, कृष्ण सिखाते हैं—“सही के पक्ष में खड़े होना ही धर्म है। श्रीकृष्ण प्रेम के आदर्श हैं, परन्तु उनका प्रेम दुर्बलता नहीं, शक्ति है। वे रास में रमणीय हैं, तो रण में रणधीर भी। वे संगीत के सुर हैं, तो नीति के मर्मज्ञ भी।
आज के युवा को श्रीकृष्ण से यह सीख मिलती है कि:
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प्रेम करो, पर स्वार्थरहित।
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कर्म करो, पर फल की चिंता बिना।
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संघर्ष करो, पर अधीरता के बिना।
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जीवन को जीओ, पर मोह के जाल में न उलझो।
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अन्याय के विरुद्ध बोलो, पर शान्ति का मार्ग न छोड़ो।
“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत . . .”
कृष्ण केवल वह नहीं जो द्वारका में हैं; वे वहीं हैं जहाँ प्रेम है, त्याग है, संघर्ष है और जीवन को लीला मानने की दृष्टि है। इसलिए, श्रीकृष्ण केवल देवता नहीं—वे हैं प्रेम के लोकनायकजन-जन के जीवन में धड़कता हुआ अनंत प्रेम का शाश्वत प्रतीक।