छत जो साँस लेती थी
आकांक्षा शर्मा
वो सुकून की छत पर बेतरतीब से गमले
वहीं कहीं किसी कोने में मुस्कुराते
खुरपी, फावड़ा और कुदाली किसी कोने में बतियाते थे
घर के बेकार पड़े टूटे फूटे मिट्टी के बरतन,
उनमें डाल देती थी माँ बस यूँ ही पानी,
और डाल देती थी दाने चिड़ियों की ख़ातिर।
बाहर लगे पीपल से गिरी
पीपल की पत्तियाँ छत पर चुरमुर करती थीं,
सूखे फूलों की गंध भी जीवन में रंग भरती थी,
गौरैया के जोड़े का आना–जाना था नित्य,
हर कोना, हर छाया बनती थी पावन पथ।
तुलसी का बिरवा तुलसी-दल झराता,
किसी दिन विवाह, किसी दिन संकल्प सजाता,
संध्या में दिया मन को
आलोकित कर छत को मंदिर बनाता।
मेरे घर की छत पर
बेतरतीब गमलों की मिट्टी में लगे पौधे,
मानो बिन माँगे स्वयं को सहेजना जानते थे
ना कोई गार्डनिंग ऐप, ना डिज़ाइनर गमले,
एक लय, शान्ति, और प्रकृति का पावन स्पर्श था—
मेरी उस बेढंगी छत में
और अब?
अब छत संगमरमर की मुस्कान ओढ़े बैठी है,
अब फूलों की महक नहीं
मिट्टी का कोमल स्पर्श नहीं
अब छत पर ब्रांडेड टाइल्स है और
महँगा अर्टिफिशियल वॉटरफ़ॉल भी
वहीं एक कोने में बुद्ध की प्रतिमा भी रखी है
विचित्र सी अजनबी शान्ति है पर सुकून नहीं
ना कोई हँसिया, ना चिड़िया, ना कुल्हाड़ी,
अब तो छत पर हवा भी वातानुकूलित हो के चढ़ती है।
तुलसी का विवाह? अब इनबॉक्स में निमंत्रण है,
पीपल का कचरा? साफ़-सुथरे व्यू में प्रतिबंध है,
चिड़ियों की चहचहाहट? स्पीकर से बजने वाली कोई रिंगटोन है।
टाइल्स की छत पर अब ना कोई पेड़ उगता है,
ना कोई बीज फूटता है और ना कोई मन जुड़ता है,
उत्तम डिज़ाइन में बसा ये निर्जीव वैभव,
जीवन की धड़कन से कोसों दूर चलता है।
आधुनिकता के नाम पर जो छीन ली साँस,
वो छत नहीं, अब कोई भूला-बिसरा इतिहास है,
जहाँ ना मिट्टी, ना मन, ना बचे हैं पक्षी,
बस एक मौन, सजावटी परछाईं सा फ़र्श।
मुझे वो बेढंगी मिट्टीवाली छत प्यारी थी,
जहाँ हर टुकड़ा जीवन की पहचान था,
सीमेंट की ये सजी हुई मृत्यु नहीं भाती,
जिसमें कोई वृक्ष नहीं, कोई पूजा, कोई बात नहीं।
छत जो साँस लेती थी, अब साँस रोकती है,
छत जो जीवन रचती थी, अब चित्र होती है,
जिस छत पे चिड़ियों ने रचे थे गीत सबेरे सबेरे
अब वहाँ चुप्पी है, और पौधों के नाम पर हैं—
बस सजावटी इनडोर प्लांट्स
और वो छत अब भी उन पंछियों के गीतों का इंतज़ार करती है . . .