मैं कृष्ण हूँ
आकांक्षा शर्मा
मैं कृष्ण हूँ।
हाँ वही जो कालरात्रि के मौन गर्भ में जन्मा था।
वही जो यमुना की लहरों पर टिकी एक टोकरी में
विश्व के भार को लिये बह निकला था
मैं कोई देवता नहीं
मैं वह ‘गोप-बालक’ हूँ
जिसने माखन में माँ का वात्सल्य चखा
और आँगन की मिट्टी में राधा की आँखों का विश्वास देखा।
मुझसे पूछा गया
तुम कौन हो?
मैं हँस पड़ा
क्या कोई प्रेम से पूछता है कि वह कौन है?
क्या संगीत से उसका नाम पूछा जाता है?
मैं जन्मा था
किन्तु हर जन्म हर मृत्यु मेरे भीतर घटित होती रही।
कभी राधा की आँखों में डूबकर
तो कभी द्रौपदी की पुकार पर पुलकित होकर
मैं अपने ही अस्तित्व को भूल गया।
‘राधा’ नहीं वह कोई स्त्री नहीं थी।
वह तो मेरा अधूरा संगीत थी
जिसे मैं जीवन भर खोजता रहा
बाँसुरी के हर सुर में रास के हर घेरे में
विरह की हर चुप्पी में।
मेरी बाँसुरी की तान
गोपियों के कानों से होकर उनके हृदय तक जाती थी।
मैंने उन्हें वचन नहीं दिया
सिर्फ़ एक ‘स्मृति दी थी एक अधूरी रेखा’
जो आज भी हर रासलीला में पूर्णता ढूँढ़ती फिरती है।
लोग कहते हैं
मैं रण का सारथी था
पर मैं तो अर्जुन के मौन का उत्तर था।
मैंने उसे युद्ध के लिए नहीं
जीवन के लिए तैयार किया था।
‘कर्म करो बिना फल की आस के’
यह मैंने नहीं कहा
यह वह समय बोला था
जो अर्जुन के हाथों काँप रहा था
और मेरे हृदय में निःशब्द रो रहा था।
द्रौपदी ने मुझे पुकारा था
नव वसन नहीं माँगे थे उसने
उसने तो सिर्फ़ एक ‘विश्वास’ माँगा था
कि जब सारे सम्बन्ध मौन हो जाएँ
तब कोई एक स्वर ऐसा हो जो उत्तर दे।
और मैंने वही स्वर बनना स्वीकार किया।
मैं कृष्ण हूँ
न बाँसुरी हूँ न रथ हूँ न मोरपंख न मुकुट।
मैं बस वह हूँ
जो ‘प्रेम में मौन’
और
‘त्याग में पूर्णता’ खोजता रहा।
मैं वह हूँ
जो हर युग में ‘तुम्हारे हृदय की खोज’ बना रहेगा।