ख़ामोशी
आकांक्षा शर्माकभी ख़ामोशी में लिपटी भाषा को पढ़ो
उन ख़ामोश लम्हों में ढूँढ़ो,
वो जवाब जो तुम्हें कोई कभी नहीं दे पाता
ख़ामोशी में बिखरी उस इबारत में छिपे हैं
न जाने कितने अधूरे ख़्वाबों के हिसाब
ख़ामोशी में बसी है वो ख़ुश्बू
जो बिखर कर हर बार महका जाती है
तन के साथ मन को भी।
बसंत की मादकता छिपी है, इसी ख़ामोशी में
पतझड़ का विराग भी तो है, इसी ख़ामोशी में
बारिश की रिमझिम फुहारों के बीच,
संगीत का निराला संसार भी तो है ख़ामोशी
मीरा की दीवानगी,
यशोधरा का तप,
उर्मिल का विरह
पर्याय है ख़ामोशी की गहराई में
बसे उनके शाश्वत प्रेम का॥
सूरज के उदय होने पर,
छाई लालिमा, प्रतीक है उसी ख़ामोशी का
जो प्रकृति में बिखरी स्नेहिल किरणों को
बिखरा देती है चुपचाप॥
नदी के इस छोर से
उस छोर तक फैली ख़ामोशी
पर्वत के उच्च शिखर को छूते
बादलों का रूदन
पंछियों का कलरव,
मस्जिद की अजान
दूर मन्दिर से आती
घंटियों की सुरीली तान
जो मन में जगाती है
पवित्र-सी निस्तब्धता
यही निस्तब्धता, यही ख़ामोशी
क्या किसी नवसृजन की आहट नहीं॥
ये ख़ामोशी
और भी गहरी हो जाती है
जब उमड़ता है सागर,
मन में जज़्बातों का॥
1 टिप्पणियाँ
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Nice!