श्राद्ध

15-04-2022

श्राद्ध

आकांक्षा शर्मा (अंक: 203, अप्रैल द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

केतकी के दादाजी के पहले श्राद्ध की तैयारी में परिवार के सभी बड़े सदस्य जुटे थे। काफ़ी बड़े स्तर पर इस बार आयोजन किया जा रहा था। श्राद्ध के पन्द्रह दिन पहले ही शहर के सबसे प्रसिद्ध फूलचन्द हलवाई को बुक कर लिया गया था। कई दिन चर्चा के बाद श्राद्ध आयोजन में बनने वाले मेन्यू को तय किया गया। ग्यारह साल की केतकी घर में होने वाली इन सब बातों को बराबर सुन रही थी, समझने की कोशिश भी कर रही थी, पर वह समझ नहीं पा रही थी कि आख़िर श्राद्ध क्या होता है? अपनी अपनी व्यस्तताओं से घिरे परिवार में उसके सवालों का जवाब देने की फ़ुर्सत शायद किसी को नहीं थी। पर दादाजी के सबसे क़रीब तो वही थी। दादाजी की लाड़ली इकलौती पौती जो थी वह। सुबह-सुबह दादाजी के साथ गार्डन में जाना उसकी नियमित दिनचर्या का हिस्सा था। रात को दादाजी से बिना कहानी सुने सोना शायद उसके लिए अकल्पनीय था। उसके दादाजी अक़्सर जब भी बाज़ार जाते थे केतकी भी स्कूटर में बैठ कर उनके साथ जाती थी। प्रत्येक रविवार को वह दादाजी के साथ रेलवे स्टेशन जाती थी दादाजी स्टेशन पर इधर–उधर घूमते ग़रीब बच्चों को कभी कचोरी, कभी जलेबी, कभी केले, कभी ब्रेड तो कभी पूड़ी-सब्ज़ी बाँट आते थे। केतकी छोटी होने के बावजूद समझ गई थी कि उसके दादाजी को बच्चों से बहुत स्नेह था और वो बहुत ही संवेदनशील थे। आज उन्हीं दादाजी का श्राद्ध मनाया जा रहा था। 

पूड़ी, कचोरी, मालपुए, इमरती, गुलाब जामुन, दही-बड़े, रबड़ी, इमरती, कलाकन्द मावा-मिश्री और भी न जाने कितने पकवानों की ख़ुश्बू से पूरा घर महक रहा था। 

सुबह से ही पूरा परिवार उत्साह में था। आख़िर उसने पूछ ही लिया मम्मी ये श्राद्ध क्या होता है? उसकी मम्मी ने बताया कि हमारे बुज़ुर्गों की आत्मा की शान्ति के लिए ये श्राद्ध किये जाते हैं। केतकी कुछ और प्रश्न पूछने को व्याकुल थी। उसके मन में घुमड़ रहे प्रश्नों की बौछारों से परेशान हो कर माँ बोली, "चलो चलो, अब फ़ालतू बातें मत करो बहुत से काम पड़े हैं। जाओ देखो बाक़ी और सब मेहमान भी आ गए हैं या नहीं। तुम उनकी बैठक व्यवस्था देखो।"

केतकी अनमने मन से बैठक व्यवस्था देखने लगी। लगभग सभी मेहमान आ चुके थे। लेकिन भोजन आरम्भ नहीं किया गया। पिताजी और चाचाजी किसी विशेष अतिथि की प्रतीक्षा में थे। केतकी के पेट में चूहे दौड़ रहे थे। माँ से पूछ बैठी, "आख़िर सारे मेहमान तो आ गए हैं माँ फिर खाना शुरू क्यों नहीं किया जा रहा।” 

माँ ने बताया कि दादाजी के निमित्त का भोजन जिन मुख्य व्यक्ति को कराया जाएगा उन्हीं का इंतज़ार हो रहा है। तभी एक मोटे पेट वाले अंकल जो कार से उतर कर जब उनके घर की ओर बढ़े तो पिताजी और चाचाजी कुछ विशेष आवभगत के साथ उन्हें लेने पहुँचे। वो अंकल आते ही किसी और मेज़बान की प्रशंसा के पुल बाँधते हुए कहने लगे, "भई श्यामसुन्दरजी के श्राद्ध से आ रहा हूँ। इसीलिए लेट हो गया। मानना पड़ेगा उनके बेटे बहुत ही सेवाभावी और खुले हृदय के हैं, देखो श्राद्ध पर उन्होंने इस बार चाँदी के पाँच सिक्के भेंट स्वरूप दिये हैं।”

यूँ तो केतकी के घर पर भी श्राद्ध पर भोजन के पश्चात् दी जाने वाली दक्षिणा की शानदार तैयारी थी। बनारसी जरी वाली धोती, लखनवी कुरती इसके अतिरिक्त चाँदी का सिक्का देना तय था। उन अंकल की बातें सुनकर केतकी के पिताजी ने तुरन्त भेंट में दी जाने वाले चाँदी के सिक्के के स्थान पर सोने का सिक्के देने का निश्चय किया। केतकी ने सुना उसके पिताजी चाचाजी से कह रहे थे, "अरुण! पाण्डे अंकल के बेटे को तो तुम जानते ही हो। इस बार चुनाव में महापौर के लिए प्रबल दावेदार है। इनको ख़ुश करने से हमारे व्यवसाय की सारी अड़चनें दूर हों जायेंगी।” 

केतकी समझ गई ये मोटे पेट वाले अंकल पाण्डे जी ही हैं। वो सोचने लगी—दादाजी की आत्मा की शान्ति के लिए श्राद्ध है या इन मोटे पेट वाले अंकल की? 

आख़िर ढेर सारे मान-मनुहार के साथ श्राद्ध भोजन सम्पन्न हुआ। अन्त में सोना ने देखा पत्तल दोने में ढेर सारा जूठन बचा था। उस जूठन को एक बड़े से टोकरे में रखा गया और पूरे भोजन के बाद बर्तन साफ़ करने वाली सुनिता बाई को कह दिया कि इसे पास के ख़ाली पड़़े प्लाट में डाल आए। 

शाम का धुँधलका होने लगा था। केतकी छत पर तुलसी दीपक के लिए जैसे ही जाने लगी तो देखा कि बहुत सारे गंदे से दिखने वाले बच्चे उस ख़ाली प्लाट में पड़े जूठन में से भोजन सामग्री ढूँढ़-ढूँढ़ कर बड़े उत्साह के साथ खाने में लगे हुए थे। बार-बार कुत्ते, सूअर और गाय को भगाते हुए वे कमज़ोर से दिखने वाले दुबले-पतले बच्चे बाहर की दुनिया से बेख़बर खाने में दत्तचित्त थे। 

केतकी ये दृश्य देखकर चकित हो गई। समझ नहीं पा रही थी। इस श्राद्ध के आयोजन से उसके दादाजी को कैसे शान्ति मिल सकती है? 

भूखे बच्चे जो भोजन के लिए तरस रहे हैं यानी जिन्हें वास्तव में भोजन की आवश्यकता है उन्हें ही यदि वो भोजन श्राद्ध के रूप खिला दिया जाए तो क्या दादाजी की आत्मा ख़ुश नहीं होगी? इस अनुत्तरित प्रश्न का उत्तर खोजने में मैं आज भी लगी हूँ। 

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