सेवा—आध्यात्मिक प्रगति की सीढ़ी

01-05-2025

सेवा—आध्यात्मिक प्रगति की सीढ़ी

अनीता रेलन ‘प्रकृति’ (अंक: 276, मई प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

“शिव” केवल एक देवता नहीं हैं, बल्कि एक भावना हैं—कल्याण की।

“शिव” का अर्थ ही है—कल्याणकारी। और जब हम ‘सेवा’ की बात करते हैं, तो वह भी उसी कल्याण की ओर उठाया गया एक पवित्र क़दम बन जाती है।

सेवा के अर्थ भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भिन्न हो सकते हैं।

व्यावसायिक क्षेत्र में सेवा का अर्थ होता है—लेन-देन।

लेकिन आध्यात्मिक क्षेत्र में सेवा एक निश्छल भावना है, जिसमें कोई अपेक्षा नहीं होती, कोई प्रतिदान नहीं माँगा जाता। यह उस माँ के प्रेम की तरह होती है, जो निःस्वार्थ, पूर्ण और निरंतर होता है।

आध्यात्मिक मार्ग पर सेवा केवल एक साधन नहीं, बल्कि वह भूमि है, जिस पर साधना, भक्ति और ध्यान के बीज पनपते हैं।

वेद और उपनिषदों की दृष्टि से सेवा:

1. “यो देवानां प्रभवः च उद्भवः च, विश्व-अधिपः रुद्रः महर्षिः।” (यजुर्वेद 3.1)
(अर्थ—वही महान रुद्र, जो समस्त देवताओं की उत्पत्ति और प्रेरणा का कारण है, वही सम्पूर्ण विश्व का स्वामी है।)
सेवा करने वाला साधक भी उसी दिव्य चेतना से प्रेरित होता है।

2. “ईशा वास्यम् इदं सर्वं, यत् किञ्च जगत्यां जगत्।” (ईशोपनिषद 1)
(इस संसार की हर वस्तु में परमात्मा का वास है।)
जब हम सेवा करते हैं, तो वास्तव में हम ईश्वर की सेवा कर रहे होते हैं।

3. तमसो मा ज्योतिर्गमय।” (बृहदारण्यक उपनिषद 1.3.28)
(हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो।)
सेवा, साधना और आत्मज्ञान से ही हम उस प्रकाश की ओर बढ़ते हैं।

4. स्वस्ति प्रजाभ्यः परिपालयन्ताम्, न्यायेन मार्गेण महीं महीशाः।” (ऋग्वेद 5.60.5)
(प्रजाओं का कल्याण हो, और राजा धर्म के मार्ग से पृथ्वी की रक्षा करें।)
सत्ता से लेकर साधक तक, सबका कर्तव्य सेवा है।

5. परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीडनम्।” (विष्णु पुराण)
(परोपकार पुण्य है और परपीड़ा पाप।)

सेवा का स्वरूप:

सेवा के तीन मूल तत्व होते हैं:

निस्वार्थता—जिसमें ‘मैं’ नहीं होता, केवल कार्य होता है।

समर्पण—जहाँ अहं समाप्त होता है, और केवल समष्टि का भाव बचता है।

प्रेम—वह शक्ति जो सेवा को कर्म से ऊपर उठाकर भक्ति बना देती है।

सेवा ही साधना है, और साधना ही साक्षात्कार का सेतु।

जब हृदय निष्कलंक होता है, तब सेवा कर्म नहीं रह जाती—वह पूजा बन जाती है।

कर्म योग की छाया में सेवा:

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा:
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”
(तेरा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल में नहीं।)

यही सेवा का मर्म है—कर्म कर, लेकिन फल की अपेक्षा मत कर।

जब हम बिना किसी प्रतिफल की अपेक्षा से सेवा करते हैं, तो हम कर्म योगी बन जाते हैं।

गुरु-शिष्य परंपरा और सेवा:

प्राचीन समय में गुरु-शिष्य संबंध केवल ज्ञान प्राप्ति का नहीं था, वह सेवा और समर्पण का था।

शिष्य गुरु की सेवा के माध्यम से अपने अहंकार को गलाता था।

यह सेवा ही उसकी पहली साधना होती थी।

अपने अस्तित्व को दूसरों की भलाई में समर्पित करना 

सेवा सिर्फ दूसरों की मदद करना नहीं है बल्कि अपने भीतर के मैं को हम में बदलने की प्रक्रिया है।

एक ऋषि के पास एक शिष्य आया बोला, “गुरुदेव मैं ईश्वर को पाना चाहता हूँ।”

ईश्वर ने मुस्कुराकर कहा, “जाओ पहले गाँव के बीमारों की सेवा करो। वहाँ तुम्हें ईश्वर के दर्शन होंगे।” 

इसी तरह महात्मा गांधी ने कहा था “जो भगवान को पाना चाहता है वह सबसे पहले मानव की सेवा करे।”

हिंदू दर्शन में इसे कर्म योग कहा गया है 

सेवा जिसमें कोई स्वार्थ ना हो फल की अपेक्षा ना हो वही सेवा जब गुरु की सेवा परिवार की सेवा समाज की सेवा और अंततः संपूर्ण सृष्टि की सेवा बन जाती है तो आत्मा अपने असली स्वरूप को पहचानने लगती है।

आज भी जब कोई व्यक्ति किसी संगठन, किसी संत, या किसी सामाजिक उद्देश्य से जुड़कर निःस्वार्थ सेवा करता है, तो वह उसी परंपरा का आधुनिक शिष्य बन जाता है।

शेरावाली की पूजा और सेवा:

हम माता रानी को “सेवा का स्वरूप” मानते हैं।

उनकी पूजा में भी भक्ति के साथ सेवा का समर्पण छिपा होता है।

जैसे भोग लगाना, दीप जलाना, कन्या पूजन करना।

यह सब सेवा के ही रूप हैं, जिनमें हमारे मन की निर्मलता झलकती है।

आज की आवश्यकता: सेवा का आलोक

आज की दुनिया में, जब हर कोई किसी न किसी संघर्ष से जूझ रहा है, सेवा वह दीप है जो अंधकार में भी दिशा देता है।

महामारी के समय हमने देखा—किसी ने खाना बाँटा, किसी ने दवाइयाँ पहुँचाईं, किसी ने सिर्फ दो मीठे शब्दों से किसी का मन हल्का किया।

यह सब सेवा है—और यह सब आध्यात्मिक प्रगति की सीढ़ियाँ हैं।

सेवा का परिणाम: आत्मा का विस्तार

जब हम सेवा करते हैं, तो हमारा ‘स्व’ सीमित नहीं रह जाता।

हम किसी के आँसू पोंछते हैं, तो वह सेवा केवल बाहरी नहीं होती। वह हमारे भीतर भी एक ज्योति प्रज्वलित करती है।

सेवा वह यज्ञ है, जिसमें आत्म-केंद्रित इच्छाओं की आहुति दी जाती है।

श्रीमद्भगवद्गीता का अंतिम संदेश:

“भक्त्या माम् अभिजानाति यावान् यश्चास्मि तत्त्वतः।”

(केवल भक्ति से ही मुझे यथार्थ रूप में जाना जा सकता है।)

और अंत में:

“सर्वधर्मान् परित्यज्य माम् एकं शरणं व्रज।”

(हे अर्जुन! तू सब धर्मों को त्यागकर केवल मेरी शरण में आ जा।)

यह ‘शरणागति’ ही सेवा का सर्वोच्च रूप है।

तो आइए, हम सब यह प्रण लें:

कि हम सेवा को कर्म नहीं, भक्ति का माध्यम बनाएँगे।

हम सेवा को दिखावा नहीं, आत्म-शुद्धि का साधन बनाएँगे।

हम सेवा को बोझ नहीं, परमात्मा की पूजा समझकर करेंगे।

“सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्॥” (यजुर्वेद)

(सभी सुखी हों, सभी निरोग हों, सभी मंगल देखें, और कोई भी दुःख का भागी न बने।)

और अंत में...

“सद्गुण के कारण कोई हीरा है, तो कोई पत्थर,
धरती पर स्वर्ग बसा लेना, यह मानव तुझ पर निर्भर।”

“आ नो भद्राः क्रतवः यन्तु विश्वतः।” (ऋग्वेद 1.89.1)

(हमारे पास चारों दिशाओं से शुभ विचार और सत्कर्म आएँ।)

और सबसे शुभ कर्म है—सेवा।

सेवा से ही आत्मा शिव बनती है, और संसार शिवालय।

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