भगवद गीता और योग दर्शन

15-10-2024

भगवद गीता और योग दर्शन

अनीता रेलन ‘प्रकृति’ (अंक: 263, अक्टूबर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

भगवद गीता केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं है, बल्कि यह जीवन के गूढ़ रहस्यों को उजागर करने वाला एक अद्वितीय दर्शन है। योग, दर्शन और गीता—इन तीनों का भारतीय संस्कृति और जीवन पर गहरा प्रभाव है। योग शरीर और मन को संतुलित करने का मार्ग है, जबकि दर्शन जीवन के मौलिक प्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयास करता है, और गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। इन तीनों का समन्वय जीवन के रहस्यों को समझने का मार्ग प्रशस्त करता है, और इनकी त्रिवेणी मानव जीवन को सार्थक और पूर्ण बनाती है। 

योग का शाब्दिक अर्थ है “जुड़ना” या “समाहित होना”, अर्थात्‌ आत्मा और परमात्मा का मिलन। योग के माध्यम से हम अपने शरीर, मन और आत्मा को संतुलित कर सकते हैं। गीता में योग को केवल शारीरिक क्रियाओं तक सीमित नहीं रखा गया है। इसमें कर्म योग, ज्ञान योग और भक्ति योग जैसे मार्गों का वर्णन किया गया है, जो व्यक्ति को उसके वास्तविक स्वरूप को पहचानने में मदद करते हैं। गीता के अनुसार, योग का अर्थ है मन, बुद्धि और आत्मा का संयोजन। 

भगवद गीता के दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण ने विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों के साथ सांख्य योग का भी उल्लेख किया है। इसके माध्यम से व्यक्ति अपने कर्मों के फल के बंधन से मुक्त होकर अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन कर सकता है। इस प्रकार गीता योग और दर्शन का अद्वितीय संगम है। 

अष्टांग योग, जिसे महर्षि पतंजलि ने अपने योग सूत्रों में विस्तृत किया है, गीता में भी समाहित है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि—यह आठ अंग मनुष्य को मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक संतुलन प्रदान करते हैं। 

गीता में श्रीकृष्ण ने ध्यान योग पर विशेष बल दिया है। एकाग्रता और मन की शान्ति के माध्यम से व्यक्ति ब्रह्मांडीय चेतना का अनुभव कर सकता है। गीता हमें यह सिखाती है कि योग केवल आसन या प्राणायाम तक सीमित नहीं है, बल्कि यह जीवन जीने की कला है। 

जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में संतुलन बनाए रखना, इच्छाओं और मोह से परे रहकर अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करना, और अंततः आत्मा का परमात्मा से मिलन ही सच्चा योग है। 

कर्म, ज्ञान और भक्ति—इन तीनों के सही समन्वय से ही वास्तविक योग की प्राप्ति होती है। 

“कर्मण्येवाधिकारस्ते” का दर्शन हमें कर्म करते रहने का संदेश देता है, जबकि “सर्वधर्मान्परित्यज्य” का संदेश समर्पण और मोक्ष की दिशा दिखाता है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि सभी धर्मों को छोड़कर मेरी शरण में आओ। भगवद गीता के विभिन्न श्लोक हमें जीवन की कठिन परिस्थितियों में धैर्य और समर्पण का पाठ पढ़ाते हैं। 

गीता का यह महान दर्शन सिखाता है कि सच्चा योगी वही है जो मन, बुद्धि और आत्मा को एकीकृत कर अपने जीवन को सृजनात्मक, सकारात्मक और संतुलित दिशा में अग्रसर करता है। 

आज की भागदौड़ भरी ज़िन्दगी में, जहाँ व्यक्ति बाहरी शान्ति की तलाश में है, गीता और योग दर्शन न केवल मानसिक शान्ति प्रदान करते हैं, बल्कि आत्म-साक्षात्कार की ओर भी प्रेरित करते हैं। 

यदि हम गीता के उपदेशों को अपने जीवन में आत्मसात कर लें, तो न केवल हमारा व्यक्तिगत जीवन बदल सकता है, बल्कि समाज और विश्व को भी एक नई दिशा मिल सकती है। अंत में, कहना चाहूँगी कि योग हमें तन-मन का संतुलन सिखाता है, दर्शन जीवन का मर्म बताता है, और गीता हमें कर्म का सार समझाती है। इन तीनों का संगम अद्वितीय और अपार है, जो जीवन को समृद्ध और सार्थक बनाता है। 

1 टिप्पणियाँ

  • 7 Oct, 2024 08:10 PM

    साहित्य कुछ पत्रिका की में नियमित रूप से पाठक हूं पत्रिका बेहद ही उलझे विचारों और रचनाओं सहितआलेख को समाहित किए हुए हैं पत्रिका में मेरे उक्त लेख भागवत गीता और योग दर्शन को समाहित करने के लिए संपादक महोदय को बहुत-बहुत धन्यवाद

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