निष्काम कर्म: सुख का आधार

01-01-2025

निष्काम कर्म: सुख का आधार

अनीता रेलन ‘प्रकृति’ (अंक: 268, जनवरी प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

निष्काम कर्म का अर्थ है बिना किसी फल की अपेक्षा किए हुए, अपने कर्त्तव्यों का पालन करना। यह विचार गीता के कर्मयोग के सिद्धांत पर आधारित है। श्रीकृष्ण ने गीता मेंअर्जुन से कहा:

“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। 
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥”

अर्थात्‌, हमारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल में नहीं। इसलिए फल की इच्छा मत करो और आलस्य भी मत अपनाओ।

निष्काम कर्म और सुख का सम्बन्ध

निष्काम कर्म का मुख्य उद्देश्य है कि हम अपने कार्य को ईमानदारी, समर्पण और निःस्वार्थ भाव से करें। जब हम कर्म में फल की इच्छा नहीं करते, तो हमारा मन शांत होता है। सुख का वास्तविक स्रोत बाहरी उपलब्धियाँ नहीं, बल्कि मन की शान्ति और संतुष्टि है। उदाहरणा के लिए: 

माँ अपने बच्चे के लिए निःस्वार्थ भाव से दिन-रात काम करती है। उसका उद्देश्य केवल अपने बच्चे को ख़ुश और सुरक्षित देखना होता है। उसे इस बात की परवाह नहीं होती कि बच्चे से उसे कोई प्रतिफल मिलेगा या नहीं। उसकी यह निःस्वार्थ सेवा और प्रेम उसे भीतर से संतोष और सुख प्रदान करता है।

जब एक व्यक्ति अपने समाज या परिवार के लिए बिना किसी अपेक्षा के कर्म करता है, तो उसे जो आत्मिक संतोष मिलता है, वही सच्चा सुख है। 

कबीर दास जी ने इसी भावना को व्यक्त किया है: 

“करता था तो क्यों रहा अब कर क्यों पछताय।
बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से खाए॥”

हमें यह पंक्तियाँ सिखाती हैं कि कर्म करना हमारा कर्त्तव्य है। बल्कि शिक्षा से जुड़ी अपेक्षाएँ हमें तनाव देती हैं। जबकि निष्काम कर्म से हमें सच्चे सुख की अनुभूति होती है। 

एक शिक्षक जब अपने विद्यार्थियों को केवल उनके बेहतर भविष्य के लिए पढ़ाता है, बिना यह सोचे कि बदले में उसे क्या मिलेगा। यही निःस्वार्थ कर्म उसे प्रसन्नता और आत्मिक संतोष प्रदान करता है। जैसा कि तुलसीदास जी ने लिखा है। 

कर्म प्रधान विश्व रुचि राखा। 
जो जस करत सो तस फल चाखा॥

इससे स्पष्ट होता है, कि हमें अपने कर्म पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि परिणाम ईश्वर के हाथ में है। महात्मा गाँधी, मदर टेरेसा, स्वामी विवेकानंद जैसे व्यक्तित्व निष्काम कर्म के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। उन्होंने निःस्वार्थ भाव से समाज के लिए कार्य कर सच्चे सुख और शान्ति का अनुभव किया। 

निष्काम कर्म हमें सिखाता है कि सच्चा सुख भौतिक वस्तुओं में नहीं बल्कि अपने कर्त्तव्यों के पालन में है। जब हम फल की चिंता छोड़कर कर्म करते हैं। तब हमारे भीतर वास्तविक सुख का संचार होता है। गीता का यह संदेश हमें प्रेरित करता है: 

"सुख दुखे समे कृत्वा लाभ लाभौ जयाजयौ
तत्तो युद्धाय युद्ध तव नै वं पापम वाप्स्यसि" 

यह सिखाता है कि सुख और दुख, लाभ और हानि, जीत और हार को समान समझकर अपने कर्त्तव्यों का पालन करने से ही सच्चे सुख की अनुभूति होती है। 

कबीर दास जी के शब्दों में:

“संतोषी सुखी सदा, क्यों चिंता से हार। 
जो है तेरा आज, वही है जीवन का सार।”

निष्कर्ष:

निष्काम कर्म केवल एक दर्शन नहीं, बल्कि जीवन जीने का तरीक़ा है। जब हम फल की चिंता छोड़कर निःस्वार्थ भाव से कर्म करते हैं, तो यह हमारे भीतर शान्ति और सच्चे सुख का संचार करता है। 

अतः हम कह सकते हैं कि निष्काम कर्म ही सुख का आधार है। 

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