संत्रास का देवता

01-11-2023

संत्रास का देवता

बसन्त राघव (अंक: 240, नवम्बर प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

उस दिन शनिवार था। मास्टर ताहिर मियाँ बड़ी मुश्किल से अपनी तनख़्वाह लेने आए थे। साथ में एक लड़का था, जिसे सहारा के लिए मास्टर साहब साथ ले आए थे। 

जीवित लाश। मास्टर साहब को देखकर कोई भी कह सकता था। यही नहीं, रात को अचानक कोई देख ले उन्हें-तो चिल्लाए बिना रह न सकेगा। 

प्रेतात्माओं से भी भयावह आकृति। ले-देकर चलने-फिरने और शराब गटकने के अलावा जीवन में कोई और काम न था। 

सच बात तो यह है ताहिर मियाँ बहुत पहले ही मर चुके थे। वह जो मेरे सामने हाँफते हुए बैठे थे, चलती-फिरती, रोती-कराहती क़ब्र ही थी। 

साँसों में शराब का तेज़ भभका। हड्डियों के ढाँचे में पिलपिलाया लुँजपुँज शरीर किसी विकट ट्रेजेडी की प्रतिमूर्ति दिखाई पड़ती। 

ईष्या, अपमान, घुटन और विद्रोह का दीमक घुन की तरह मास्टर ताहिर मियाँ के हरे-भरे स्वास्थ्य को चट कर गया था। 

उन्होंने जब पाँच-पाँच सौ रुपयों की दो गड्डियाँ उठाईं तब उनके हाथ बेतरह काँप रहे थे और जब वह एक-एक कर नोटों को गिनने लगे तब समूचा मुख विचित्र ढंग से झटका खाने लगा था। निचला होंठ रह-रहकर बाईं ओर भिंच जाता। पीली निस्तेज और मृत सी आँखें गड्ढे में धँसीं अजीब सी हरकत करती सी लगी। 

मैं उस मूर्ति को अधिक देर तक नहीं देख सका।

जुगुप्सा, आत्मदया और निरुपायता की मिली-जुली भावना से मन एकाएक भारी हो गया। किसी अकल्पित नर्क की यातनाग्नि मेरी चेतना से किसी कोमल स्तर को द्रवित करने लगी थी। 

मैंने एक दीर्घ और ठंडा श्वास लिया और अपने काम में लग जाने की कोशिश की। पर व्यर्थ उस अजीबो-ग़रीब इंसान की उपस्थिति के एहसास ने मुझे पूर्ण रूप से असहज बना दिया था। मैं ना चाहते हुए भी उन्हीं के बारे में सोचने लगा।

“ये य्येक नि . . . निय . . . निन्यानबे . . . सौ . . ., ठीईक होयगा . . . कौन गिनता रहे इत्ता सारा।”

उन्होंने सहसा शराब की बोतल मुँह से लगा लिया, और दो-चार घूँट गटक कर बेफ़िक्री के अंदाज़ में सारे अनगिने नोटों को समेट कर जेब के हवाले कर दिया। 

मैंने कहा , “अरे नहीं, मास्साब, पूरे नोट गिन लीजिए। आजकल विश्वास का ज़माना नहीं है।”

ताहिर मियाँ की कोटर में धँसी हुई आँखें एकाएक चमत्कृत हो गईं। वह मुझे विचित्र भाव से घूरने लगे। शायद अनजाने ही किसी दुखती रग पर अंगुली चली गई थी। वह कुछ दबाकर बोले, “मुझे सब पर बी . . . इश्वास ऐ झा साहब, सिरिफ अपनी बीइबी पर नाइ ऐ . . .”

एक कटु मुस्कान उनके मोटे होंठों पर नाच गई। मैं चुप रहा। ऐसे, जैसे कुछ सुना ही नहीं। और एक दुर्दान्त प्रसंग विस्फोटित होने से रह गया। 

उन्होंने अपने कम्पायमान हाथ से–‘रजिस्टर’ पर दस्तख़त किया और जाने के लिए उठने की कोशिश की पर अपने से उठ नहीं पाए। साथ में जो लड़का आया था, उसी ने सहारा देकर उठाया। 

और तब पहली बार मेरे मन में उनके प्रति अशुभ विचार आए थे। मैंने भाँप लिया—यह आदमी चंद दिनों का मेहमान है। 
जिस तरह वृन्त‌च्युत होने के पहले एक सूखा खड़खड़ पत्ता वात चक्र में ज़ोरों से हिलता-डुलता है ठीक उसी तरह मास्टर ताहिर मियाँ जीवन और मृत्यु के बीच तिल-तिल डोलते हुए उस मामूली ‘हिचकी’ के लिए प्रतीक्षित थे, जो एक पल में उनकी इहलीला समाप्त कर देती। 

लेकिन जिस तरह उस सूखे खड़खड़ पत्ते का भी अपना वासन्ती अतीत होता है ठीक उसी तरह मास्टर ताहिर का भी ख़ुशियों और अरमानों का अतीत था। जिसके परिप्रेक्ष्य में उनका वर्तमान कितना विद्रूप हो कर रह गया था। 
उनका एक ज़माना था जब बासंती परिवेश में आकांक्षाओं का इन्द्रधनुष जीवन के आकाश में खिला था, और कोई मतवाली कोयल सपनों की अमराई में कूक . . . कूक कर मस्ती बिखेरा करती थी। तभी अचानक और असमय जीवन में पतझड़ आया और सारी ख़ुशियाँ सारे अरमान सूख कर रह गए। सब कुछ बर्बाद हो गया। 

ताहिर मियाँ तब कितने संजीदा जीवट और संकल्पी लगते थे लेकिन उसके बाद कितने मायूस, उखड़े हुए और मृत्यु के आकांक्षी हो गए। 

हे भगवान! जीवन भी सुख-दुख का कैसा संघात है! 

मुझे याद आता है। एक समय ताहिर मियाँ सबको ज्ञान का प्रकाश बाँटा करते थे। लोगों को नेकी, सौहार्द और ईमानदारी के रास्ते पर चलने की प्रेरणा दिया करते थे। लेकिन आज वह स्वयं हज़ार विसंगतियों का शिकार होकर किस विनाश के रास्ते पर भटक गये हैं। उनका अपना जीवन अज्ञानता के घुप्प अंधकार से आवृत हो गया है। 
 
जो व्यक्ति शराब के नाम पर नाक भौं सिकोड़ लिया करता था वही आज शराब को जीवन दायिनी (या मृत्यु दायिनी?) शक्ति मान बैठा है। मुझे याद है जब कोई ग्रामीण शराब पीकर गाली-गलौज करता, मियाँ ताहिर बरदाश्त नहीं कर पाते थे। कहते, ‘रसाला, ज़हर क्या पी लिया है सारे जहान को बताते फिर रहा है . . . ज़हर पिया है तो ज़हर नहीं उगलेगा तो क्या अमरित उगलेगा बदमाश।’ 

वही ताहिर जीवन को, अमृत-पात्र को ढुलका कर ज़हर को सीने से लगाए घूम रहा था। अगर ग्रास कंठ में अटक गया हो, तब पानी नहीं शराब का घूँट पीने वाले ताहिर मियाँ अपने आप में एक मिसाल थे। 
 
जब वे स्कूल जाते—नशे में होते। सिर्फ़ यही नहीं अगर वह चुनाव कक्ष या ज़िला शिक्षा अधिकारी महोदय के कार्यालय भी जाते तब उनकी चिर सहचरी साथ न छोड़ती। चाहे जोखिम ही क्यों न उठाना पडे़। परवाह नहीं। 
स्कूल के भोले-भाले अबोध बालक कभी नहीं समझ पाए—वह जो गुरु जी बोलते थे—वह नहीं, बल्कि टाइगर छाप बोतल बोलती थी। और उन पैंतालीस लड़कों के भविष्य का निर्माण मास्टर ताहिर मियाँ नहीं बल्कि वही बोतल कर रही थी। 

मुझे याद आते हैं वे दिन जब पत्थलगाँव तहसील के तालगाँव के मिडिल स्कूल में मेरा तबादला हुआ था। तीन शिक्षक, एक लिपिक (याने कि मैं) और चपरासी सोनाऊ कुल पाँच का स्टाफ़ था वह। उन सभी में जिसका व्यक्तित्व मुझे सबसे आकर्षक एवं स्निग्ध लगा वह और कोई नहीं, ताहिर मियाँ का ही था। हृष्ट-पुष्ट गोरा शरीर, गबरू नवजवान और हँसमुख चेहरा। उनके बातचीत करने के सलीक़े से मैं मुग्ध हो गया था। मैंने देखा कुछ ही दिनों में वह मेरे अंतरंग हो गए हैं। 

गाँव में उनकी ख़ूब धाक थी। सभी वर्ग के लोगों से वह समान मेल-जोल बनाए हुए थे। गाँव के लोग यह भूल गए कि ताहिर मियाँ एक बाहरी आदमी हैं। झगड़ा-फ़साद के निपटारे के लिए पंचों के बीच उनका महत्त्वपूर्ण स्थान होता। तीज-त्यौहार में उन्हें स्नेह पूर्वक निमंत्रण मिलता। 

उनमें सबसे विचित्र बात जो थी—वह यह कि मुसलमान होने के नाते वह नमाज़ तो पढ़ते ही थे, विधिवत रामायण का भी पारायण करते। रामचरित मानस की कई दोहे-चौपाई उन्हें कंठस्थ थीं। वह जब हिन्दू ग्रंथ के दुरुह तात्विक विषयों पर अधिकारिक चर्चा करते तब इस विरोधाभास पर बड़ा सुखद आश्चर्य होता। 

पहले-पहल किसी नई जगह में रहने-बसने की बड़ी समस्या होती है। तालगाँव में मेरे लिए सबसे बड़ी समस्या थी मकान की। चूँकि तब मैं परिवार नहीं ले गया था और उस गाँव का यह रिवाज़ था कि किसी अकेले राम को (चाहे वह शादीशुदा ही क्यों ना हो) बिना जाँचे-परखे मकान नहीं दिया जाता था। इस बेतुक रिवाज़ के कारण की जानकारी बाद में मिली तब मुझे ज़ोरदार हँसी आई थी। 

बात उन दिनों की है जब तालगाँव में प्राथमिक स्कूल नया-नया खुला था। एक शिक्षक की नियुक्ति हुई। नाम था कन्हैयालाल। वह शादीशुदा ही नहीं, तीन बच्चों का बाक़ायदा बाप भी थे। लेकिन जब वह सागरपुर से ट्रांसफ़र होकर तालगाँव आए तब अकेले ही आए थे। तब ऐसा-वैसा कुछ रिवाज़ भी नहीं था। सच कहा जाए तो इस रिवाज़ के जनक यही मिस्टर कन्हैयालाल जी थे। ख़ैर . . . 

उनको बीच बस्ती में एक अच्छा मकान मिल गया था। मकान मालिक अपने परिवार के साथ उसी मकान के एक हिस्से में रहता था। दूसरे हिस्से में उनके नेक किराएदार यही कन्हैयालाल जी रहते थे। पहले तो कन्हैयालाल जी ने कह दिया कि वह जल्द ही अपने परिवार ले आएँगे। पर लाए नहीं, हालाँकि वह पूरे छह साल वहीं जमकर रहे—वह मकान, मास्टर साहब की फ़ेमिली से आबाद होने के लिए तरस गया। 

छह साल की लम्बी अवधि में कन्हैयालाल जी काफ़ी खुर्राट हो गए थे। भोले-भाले ग्रामवासियों पर उनका अच्छा ख़ासा रोब था। लेकिन उनका यह रोबदाब बहुत दिनों तक चला नहीं। एक दिन अचानक कन्हैयालाल मकान मालकिन के साथ छेड़छाड़ करते, रंगे हाथ पकडे़ गए। और पकड़ने वाला भी कौन? स्वयं मकान मालिक! 

और इस घटना का वही हश्र हुआ जो आमतौर पर होता है। 

अलबत्ता मास्टर साहब पिट-पिटा कर येन-केन-प्रकारेण वहाँ से खिसक गए और अन्यत्र अपना ट्रांसफ़र करा लिए, लेकिन जाते-जाते शिक्षा विभाग में और ख़ासकर तालगाँव के शुद्ध वातावरण में सदा-सदा के लिए एक कलंक (हम सब के लिए) उछाल गये। इस घटना का परिणाम कितना घातक और दूरगामी सिद्ध हुआ कि स्वयं कन्हैयालाल भी नहीं जानते होंगे। 

अब कौन ऐसा बेवुक़ूफ़ सरकारी कर्मचारी होगा जो बिना किसी व्यवस्था के—परिवार को लेकर निहायत ही ऐसी अजनबी जगह में आ धमके। ख़ुदा ना खास्ता कोई कर्मचारी कुँवारा हो और कभी तालगाँव जैसे गाँव में आना हो तो समस्या और भी भयंकर जटिल हो सकती है। इस ओर शासन का ध्यान ज़रूर जाना चाहिए। कर्मचारियों के हिसाब से सरकारी क्वार्टर ज़रूर बनवाएँ . . . अस्तु . . . 

तो मुझे भी यत्किंचित कन्हैयालाल जी के ऐतिहासिक कृत्य का फल भोगना पड़ा। मकान के वास्ते किसी की ख़ुशामद करने के बदले मैंने स्कूल के एक कमरे में डेरा जमा लिया। हालाँकि स्कूल के ठीक पीछे पहाड़ और अगल बग़ल खेत थे। स्कूल भी गाँव से काफ़ी दूर था। रात में ऐसे एकांत की कल्पना मात्र से ही मन सिहर उठता था, पर विवशता बड़ी चीज़ थी। तीन रातें मैंने, अकेले वहाँ काटीं। आधी रात के आसपास नींद खुल जाती और शेष रात-कुछ लिखकर-कुछ पढ़ कर बिताई जाती। चौथे दिन परिणाम सामने था। मुझे बुख़ार हो आया। हताशा और निरुपायता की स्थिति में मेरी हालत दयनीय हो गई। 

स्कूल बंद होने के क़रीब आधा घंटा बाद ताहिर मियाँ एक आदमी को साथ लेकर मेरे पास आए और बोले, “समान वग़ैरह ठीक कर लीजिए, अभी आपको चलना है।”

“तो क्या मकान का इंतज़ाम हो गया?” मैंने ख़ुश होकर पूछा। 

“अजी छोड़िये मकान की चिंता . . . आज नहीं तो कल ठीक हो ही जायेगा,” उन्होंने आत्मीयता से कहा था। 

”तो फिर आप कहाँ चलने के लिए कह रहे हैं?” मैंने कुछ निराश होकर कहा। 

“मैंने कहा ना आप निश्चिंत रहें . . . सब ठीक हो जाएगा . . . अजी चलिए भी तैयारी कीजिये . . . बंदे का ग़रीब-ख़ाना कब काम आएगा।”

मुझे लगा जैसे कोई मेरा अपना है यहाँ। 

एक होल्डाल, एक सूटकेस और एक ट्रंक। बस इतना ही समान था जिसे वह आदमी काँवर में डाल कर ले गया। 

“आइए मेरे साथ,” उन्होंने कहा और मैं कृतज्ञ भाव से उनके साथ हो लिया था। 

थोड़ी ही देर में हम लोग एक पत्थर से बने मकान के दरवाज़े के सामने खड़े थे। उन्होंने हौले से टीन का दरवाज़ा ठेल कर कहा था, “यही बन्दा का ग़रीब-ख़ाना है। तशरीफ़ लाएँ,”

“जी धन्यवाद!” मैं हिचकता-झिझकता अंदर प्रविष्ट हो जाता हूँ। 

परछी में एक कुर्सी खींचकर मुझे बैठने के लिए आग्रह किया फिर बोले (शायद मेरी मनोदशा भाँप ली गई थी), ” उम्मीद है आप हमें ग़ैर न समझेंगे। आपकी ख़ातिरदारी से हमें फ़ख़्र महसूस होगा।”

“आप कैसी बात करते हैं ताहिर जी, बल्कि मैं तो कहूँगा—आपने मुझ पर जो कृपा की है उसे मैं जीवन भर नहीं भूला सकूँगा।” 

तभी दाहिने कमरे से पर्दा हटा कर एक पर्दानशीं महिला प्रगट हुई ताहिर मियाँ ने उन्हें मेरा परिचय दिया, “सलमा, यह हैं हमारे अज़ीज़ मेहमान . . .”

“सलाम,” दबे कोमल स्वर में, झुककर श्रीमती सलमा ने कहा। और प्रत्युत्तर में, अजीब सी मनःस्थिति से मैंने दोनों हाथ जोड़ लिए। 

एक विधर्मी व्यक्ति के यहाँ अतिथि होने का यह पहला अवसर था। आधुनिक विचारों का पोषक जरूर था मैं लेकिन इतना नहीं कि एक मुसलमान या ईसाई के यहाँ भोजन कर लेता। तब पुराना हिंदू संस्कार एक तरह से हावी था, मुझ पर। लेकिन जैसा कि मैंने कहा परिस्थितियाँ बड़ी प्रबल होती हैं। और फिर जिस श्रद्धा और विश्वास के साथ मुसलमान दम्पति ने मुझ अजनबी को अतिथि माना तो भला मैं उनके आतिथ्य को अस्वीकार करने वाला कौन था।

शुद्ध निरामिष भोजन बना था, और मैंने ख़ूब खाया। दिन भर की भूख सारे संकोच और ग़ैरत की भावना को दरकिनार कर गई थी। 

भोजन करने के दौरान ताहिर मियाँ ने कहा, “झा साहब, वैसे हम डर रहे थे कि एक अनार्य के घर भोजन करने से कहीं आप इंकार न कर दें। लेकिन आपने तो कमाल कर दिया . . . बड़े प्रेम से आपने हमारा अन्न स्वीकारा . . .। वैसे झा साहब, हम मुसलमान ज़रूर हैं पर हममें से कोई भी ‘नान वेजिटेरियन’ नहीं है . . .”

“ऐसा कह कर आप मुझे लज्जित कर रहे हैं हुसैन साहब,” मैंने कौंर मुँह में डाल कर कहा, ”हम चाहे हिंदू हों या मुसलमान, यह सब ऊपरी बाते हैं। भीतर से हम सब एक समान हैं . . . खाने वाले और खिलाने वाले के मन में प्रेम रहे फिर बस . . . आप चाहे जो भी खाते हों, हमें क्या उज़्र होगा . . . हमें तो बस भाजी ही परोस दें . . .”

जानता था, ताहिर जी मुझे समझने की चेष्टा कर रहे थे। वह मुझे समझ सके अथवा नहीं—वही जानें अलबत्ता मैं उन्हें ज़रूर समझ गया। दूसरे को खिला-पिला कर संतुष्ट होने वाला इंसान, साफ़ दिल और निरहंकार। 

और भी कई वैचारिक स्तरों पर उनसे बातचीत हुई कहीं-कहीं थोड़ा बहुत मतभेद होने के बावजूद हमारे बहुत से विचार आपस में मिलते थे। 

बिलासपुर उनका गृह नगर था और वही उनकी ससुराल। उनकी शादी को मुश्किल से दो साल हुए थे। मास्टर साहब के हमेशा प्रफुल्लित दिखाई देने वाले चेहरे से स्पष्ट था, उनकी गृहस्थी ‘स्वर्ग’ हो गई थी। रथ के दोनों पहियों में समानता समरूपता थी, तालमेल था। 

बाद में यह भी मालूम हुआ कि ताहिर मियाँ को शायरी लिखकर सुनाने का भी शौक़ है। उन्होंने जब मेरी साहित्यिक रुझान के बारे में सुना तो बड़े ख़ुश हुए थे। उनके शेरो-शायरी से यही लगा कि वह किसी पर दिलों जाँ से न्योछावर हैं—निःशेष समर्पित कि किसी हूर का चांँद-सा चेहरा उनके जीवन में अमृत रस छलकता रहता है कि जब वह ज़िन्दगी की आपाधापी में बेहद थकान महसूस करते, तब कोई हसीन परी अपने आँचल की शीतल छाँह में तन-मन की पीड़ा हर लेती है। आदि . . .

मैं उनके घर क़रीब एक हफ़्ता टिका रहा लेकिन हुसैन मियाँ के ‘ख़्याल’ या कल्पना का दीदार नहीं कर सका। वैसे ना तो इसकी ज़रूरत थी और न मैंने अपनी तरफ़ से कोशिश ही की। 

मैं देख रहा था, मेरे रहते ताहिर मियाँ के परिवार को कई बातों में असुविधा होती थी। एक तो जगह पर्याप्त नहीं थी, दूसरे पर्दा का तक़ाज़ा। उधर ताहिर जी बड़ी गर्मजोशी से मेरी ख़ातिरदारी किए जा रहे थे। मैंने अचानक एक दिन निवेदन किया, “ताहिर जी, बहुत हो गया अब कृपया मुझे छुट्टी दीजिए। सोनाऊ (चपरासी) ने कहीं एक मकान ठीक किया है . . .”

“अजी, सोनाऊ क्या ठीक करेगा? वैसे आपके लिए बढ़िया मकान तो मैंने भी ढूँढ़ रखा है। लेकिन मैं सोच रहा हूँ जब आपकी फ़ैमिली आ जाए तब वहाँ चले चलियेगा . . . मैं जानता हूँ रसोई का खट-राग आपसे नहीं हो पाएगा।”

ताहिर जी ने ऐसे कहा जैसे मेरी सारी कमज़ोरियों को जानते हों। मैं उस वक़्त चुप कर गया। मकान मिल गया था, यही बड़ी बात थी। 

दूसरे दिन अल सुबह जल्दी-जल्दी सूटकेस में ज़रूरी कपड़े ठूँसे। तब ताहिर मियाँ खर्राटे भर रहे थे। उजाला फैलने लगा था। टेबल पर पड़ी नोटबुक से एक पत्ता फाड़ा और उसमें लिखा:

“हुसैन जी कृपया नाराज़ ना हों, पूर्व सूचना के बग़ैर मैं जा रहा हूँ . . . दो-तीन दिन लग सकते हैं लौटने में। अस्तु”।

पत्र को तह करके पेपरवेट के नीचे दबा कर बाहर चला आया। परछी में सलमा बेगम झाड़ू कर रही थी। मुझे सूटकेस के साथ देख कर वह चकित हो गई। उन्होंने तुरन्त बुरका खींच लिया यद्यपि एक हलकी सी झलक मिल ही गई, जो शायर पति के कल्पना की हक़ीक़त क़ुबूल करने के लिए पर्याप्त थी। 

मैंने झिझकते हुए कहा, “हुसैन साहब जागें तब कह दीजिएगा—मैं घर जा रहा हूँ . . .। अब की बार बच्चे भी साथ आएँगे।”

“लेकिन,” . . . लाज के अवगुंठन में उन्होंने बेहद धीमे स्वर में कहा, “थोड़ा ठहर कर जाइयेगा मैं नाश्ता तैयार कर लेती हूँ।”

“उसकी ज़रूरत नहीं . . . देर हो जाएगी, क्योंकि पहली बस के छूटने का वक़्त हो गया है . . . इसलिए।”

और उसके पहले की सलमा बेगम के कपोल में लाज—सुबह की लाली के साथ गहराती मैं जल्दी से वहाँ से प्रस्थान कर गया। 
देखते ही देखते दिन गुज़रने लगे। सच है, सुख के दिन इस क़द्र जल्दी बीत जाते हैं कि पता ही नहीं चलता। तालगांव में रहते हमको तीन वर्ष पूरे हो गए थे। 

हम दोनों के परिवार आपस में काफ़ी घुल मिल गए थे। बच्चों को ताहिर मियाँ के परिवार का बे-इंतिहा प्यार मिला। मिसेज़ ताहिर ख़ासकर बच्चों को ख़ूब लाड़ करती। दिन भर बच्चे वहीं जमे रहते। 

अनुराधा (धर्म पत्नी) कहती, “सलमा को बच्चे बहुत प्यारे हैं और अभी तक उसकी गोद हरी नहीं हुई है . . . बेचारी अपनी कोख से जाये बच्चे का मुख देखने के लिए तरस रही है . . . भगवान भी धीरज की परीक्षा ले रहे हैं . . . पूरे पाँच साल हो गए निकाह को और अभी तक . . . कहती है, ‘छोटू को मुझे दे दो, उसके बिना बड़ा सूना सूना लगता है’ . . . मज़ाक़ ही सही लेकिन उसके हृदय की तड़प तो मालूम पड़ ही जाती है।”

मैं पत्नी की बात चुपचाप सुनता और गुनता। 

मैं देख रहा था—आए दिन ताहिर मियाँ भी कुछ ग़मगीन दिखाई दे रहे थे। खोए-खोए किसी अज्ञात वेदना के स्वर में अर्धमूर्छित अवस्था में डूबने उतरने लगे थे। “क्या बात है आजकल आप बहुत थके-हारे से दीखते हैं?” 
 एक दिन मैंने उनके घर में पूछा। 

उन्होंने उदास स्वर में जवाब दिया, “कोई ख़ास बात नहीं, यों ही . . . दिल डूबने सा लगा है।” 

“और आप फ़रमाते हैं ‘कोई ख़ास बात नहीं’,” मैंने उनके छुपाव-दुराव पर किंचित नाराज़ होकर कहा था। 

उन्होंने कुछ नहीं कहा। चुप ही रहे। थोड़ी देर बाद स्वतः बोले, “अब आपसे क्या छुपाना झा साहब, दरअसल बात यह है . . . हमारी क़िस्मत में बच्चे का मुख देखना नहीं लिखा है। अब हम बाप नहीं बन सकते झा साहब . . .”

“क्या कहते हैं आप?” मैं अचंभित रह गया। 

वह अपने को संयत करके बोले, “पिछली गर्मी में हमने जाँच करायी थी– ‘रिपोर्ट’ में लिखा है।”

न जाने कैसा अजीब-सा लगा था मुझे। मेरी स्वयं की अवस्था बड़ी विचित्र हो गई। नाहक़ छेड़ दिया। मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था—इतने स्वस्थ्य दिखने वाले व्यक्ति के शुक्रकीट निष्क्रिय हों . . . 

ताहिर मियाँ के चेहरे पर हीनता के गहरे भाव उग आए थे। मैंने कहा, “इसमें निराश होने की बात नहीं हैं मास्साहब। इसका समाधान है।” 

“मैं जानता हूँ, इसका समाधान-पर वह तरीक़ा—कितना वाहियात और ग़लीज़ . . . हमेशा लगेगा—बच्चा अपना नहीं किसी दूसरे—निहायत ही अनजान व्यक्ति के ‘सीमेन’ का फल है . . . हर पल एक नामुराद वहम ज़ेहन में छाया रहेगा . . . नहीं-नहीं झा साहब, इससे तो बेहतर है कि . . .” 

और वह आगे कुछ बोल नहीं पाए मैंने उन्हें ढाढ़स बँधाते हुए कहा, “आप नहीं जानते ‘मास्साहब, यह वैज्ञानिक युग है। ऐसे ‘हार्मोंस’ तैयार किये जा चुके हैं जो सुस्त शुक्रकीट को सक्रिय कर देते हैं। आप किसी अच्छे यूरोलॉजिस्ट से बात करके तो देखें। सब ठीक हो जाएगा।” 

ख़ैर, मैंने देखा उनकी थकान और भी गहरी हो गई थी। 

याद आती हैं कुछ महत्त्वपूर्ण तारीख़ें। कुछ पन्द्रह अगस्त, कुछ छब्बीस जनवरियाँ . . . जिनमें ताहिर हुसैन जी का सवार्धिक ओजस्वी भाषण होता और तालियों की गड़गड़ाहट से सारा विद्यालय गूँज जाता। उनका वह प्रिय प्रार्थनापरक गीत जिसे अल्लामा इक़बाल ने लिखा है; कितने शौर्य के साथ ताहिर मियाँ गाते:

“लब पे आती है दुवा बन के तमन्ना मेरी
 ज़िन्दगी शम्मा की सूरत हो ख़ुदाया मेरी”

वह भी एक 26 जनवरी थी। सब कुछ हर वर्ष की तरह जोश ख़रोश से हुआ, लेकिन ताहिर जी वैसे (पूर्ववत) न रहे थे। ‘टूटन’ उनके हर क्रियाकलाप में झलकने लगा था। सिर्फ़ दो चार वाक्य चलताऊ ढंग से बोलकर वापस मेरी बग़ल में आ बैठे थे। मैंने उनके मुख पर दृष्टि डाली उन्होंने भी मेरी ओर देखा। आँखें लाल और कुछ धूमिल-सी थीं। मैंने धीरे से बुदबुदाया, “लब पे आती है दुवा बन के तमन्ना मेरी . . .” और उन्होंने नज़रें झुका ली थीं। 

‘क्या हो गया है इस आदमी को’ मैं अक़्सर अपने आप से पूछता। मैं बहुत चिंतित था उनको लेकर। कभी-कभी मन में विचार आता कहीं बच्चा नहीं होने के कारण तो . . .? पति से भी ज़्यादा तब्दीली बेगम सलमा में हुई थी। वह भी बेहद चिड़चिड़ी और खींची तनी रहने लगी थी। मामूली सी बात में आपा खो बैठना उनका स्वभाव हो गया था। 

परिवार में न जाने कैसे, बिखराव की अजीब-सी स्थितियाँ पैदा हो गई थीं। दम्पति के चेहरों पर हर वक़्त विषाद की छाया डोलती रहती। क्या बात थी, कौन जाने? आख़िर वह समय आया जब सब जान गए—इस परिवारिक विघटन का मूल कारण क्या था? सब कुछ उजागर हो गया। जैसे अँधेरे में पड़ी हुई वस्तुओं का रूप रंग आकार नहीं होता, परन्तु जब उस पर रोशनी पड़ती है तब सब कुछ स्पष्ट हो जाता है। 

लेकिन इसके पहले की रोशनी पड़े, अँधेरे की-मानव मन की अँधेरी गुफाओं में छटापटा रही कुछ ग्रन्थियों की-अधूरी कहानी पूरी हो जाए . . . 

सितंबर की पहली तारीख़। रात क़रीब दस बजे मिस्टर ताहिर मियाँ बदहवास मेरे पास आए। मुझे समझते देर न लगी कि कुछ अप्रिय घट गया था। उन्हें एकांत कमरे में ला बैठाया और पूछा—क्या बात है? उन्होंने बदहवासी में कहा, “झा साहब, मैं लुट गया। सलमा ने मिट्टी का तेल पी लिया है।”

“लेकिन क्यों?”

“क्योंकि आज पहली बार मैंने उस पर हाथ उठाया,” उन्होंने रुआँसा स्वर में कहा। 

“आख़िर क्यों??” मेरा-ख़ुद का दिमाग़ भन्ना रहा था। “ओफ्फ,” मैंने कहा और तुरंत अपनी पत्नी को सारी बातें समझाकर जल्दी से जल्दी ताहिर मियाँ के घर पहुँचने के लिए कहा। पीछे-पीछे हम लोग भी पड़ोस के वयोवृद्ध वैद्यराज को लेकर पहुँचे। 

ख़ुशक़िस्मती थी कि हमारे पहुँचने के पहले ही श्रीमती सलमा बेगम दो बार उल्टी कर चुकी थी। और घर आयी बला काफ़ी हद तक टल गई। लेकिन यह हमारा भ्रम था बला टली नहीं थी वरन् उसका आना शुरू हुआ था। उस आई गई बला ने स्पष्ट कर दिया—अभी बहुत कुछ होने को है। 

देर रात तक हम लोग वहीं रहे। वैद्यराज ने कोई गोली दी जिसे खाकर वह लम्बी-लम्बी साँस खींचती अर्धचेतनावस्था में लेटी रही। वैद्यराज ने गंभीर होकर कहा—यह बड़ा बुरा हुआ-पेट में बच्चा है और . . . (ऊपर की ओर दृष्टि उठाकर) हे ईश्वर, तुम्हारी अद्भुत लीला है! तू ही बिगाड़ता है और तू ही बनाता है . . .”
 
और मुझे ऐसा लगा जैसे एक तीव्र रोशनी हुई है। एक ही पल में सब कुछ उजागर हो गया है . . . कुछ भी सुनने-समझने को नहीं रह गया था। 

कुछ दिनों बाद श्रीमती सलमा ने बिलासपुर जाकर अपना ‘अबॉर्शन’ करा लिया। लेकिन उसके बाद फिर वह विक्षिप्त सी रहने लगी। इधर मियाँ ताहिर के मन में बड़े ख़तरनाक विचार जन्म ले रहे थे जिनका न तो ‘अबॉर्शन’ हो सकता था और न ही उसका गला घोंट कर समाप्त किया जा सकता था। अलबत्ता मिस्टर ताहिर मियाँ ने इन जनमते-पकते विचारों से पिंड छुड़ाने के लिए एक जघन्य रास्ता ढूँढ़ निकाला—उन्होंने शराब पीनी शुरू कर दी। मैं उनका इतना अंतरंग था, जिस दिन उन्होंने पहली बार शराब पी—शराब भठ्ठी से झूमते-गिरते सीधे मेरे पास आए और आव देखा न ताव एकबारगी मेरे पैर पकड़ लिए। मैं अवाक्‌ और विस्मित उनको देखता रह गया। 

“म . . . मुझे मुआफ़ करना मेरे दोस्त . . . आज दोज़ख के रास्ते पर पहला क़दम रक्खा है . . . म मैंने सोचा, सुरूर छाने के पहले कम से कम अपने अज़ीज़ दोस्त का दीदार कर लूँ . . . बोलो, मैंने ठीक किया न? अँ (हिचकी)” 

अनुराधा आकर सामने खड़ी हो गई। अप्रत्याशित दृश्य को देखकर विमूढ़ हुई। बच्चे बड़े कौतूहल से उन्हें देख रहे थे। मेरी आँखों में आँसू थे, जो उस अनपेक्षित परिणति के साक्षी बने। 

“बहुत ख़ूब!” उनको सहारा देकर कुर्सी पर बैठाते हुए मैंने कहा, “बहुत अच्छा रास्ता चुना है आपने ग़मों से नजात पाने का। क्या कहेंगे लोग, कभी सोचा आपने एक नामी-गिरामी आइडियल टीचर शराब पीता है? . . .धत्त . . .”

बड़ी मुश्किल से मैंने जवाब दिया। कुछ भी कहना समझना अर्थहीन था। क्षणक्षण उनकी चेतना विलुप्त होती जा रही थी। 

उन्हें चारपाई पर लिटा दिया गया। 

थोड़ी देर में मिसेज हुसैन आ गई। 

और अपने पति की दुर्दशा देखकर विचलित-सी हो गई। 

हमारा कर्त्तव्य दोहरा हो गया। 

गाँव के लोग इकट्ठे हो गए। फिर तो पीने का वह दौर चला कि जब वह अल्लाह को प्यारे हुए उस वक़्त भी उनकी गोद में टाइगर मार्का बोतल थी। उनके महाप्रयाण के वक़्त उनके पास कोई नहीं था। सिर्फ़ थी तो वह बोतल जिसने उनको अंतिम विदाई दी और मास्टर ताहिर मियाँ चरम शान्ति की सहज मुद्रा में अपना जर्जर रक्तहीन पार्थिव शरीर छोड़ गए थे। 

अन्तिम दिनों में कितना अभिशप्त हो गया था उनका जीवन—कितना दर्दनाक और कितना नारकीय। दुनिया में बहुत कम ऐसे लोग होंगे जो मृत्यु पथ पर हठपूर्वक तिल-तिल घुलते हुए चले चलते हैं। जिन्हें लगे कि वे हर पल मर रहे हैं-जिनके कुचले अहम को तुष्टि मिले हर पल जी-जी कर मौत को निगलने के लिए मुँह खोलें और ग्रास छूट जाय-ओफ़, कितना दुर्दान्त था यह मृत्यु के साथ आँख मिचौली का खेल। 

लेकिन यह खेल चला बहुत दिनों तक। उनकी मृत्यु के आकांक्षी यहाँ तक कि निराश हो चुके थे। हर रात उनके लिए कालरात्रि होती और हर सुबह उनके जीवन की एक और कड़ी। लोग, सुबह उन्हें देखकर कहते, “चलो बेचारा बच गया—आज भर कम से कम ज़िन्दा रहेगा . . .” 

ऐसे ही एक दिन, अपनी तनख़्वाह लेने पहुँचे थे मास्टर ताहिर। एक महीने में केवल एक दिन अपनी तनख़्वाह लेने के लिए ही तो स्कूल आते थे। बाक़ी दिन पीकर लाश की तरह घर में पड़े रहते थे। तब किसी को पता नहीं था कि मास्टर साहब का यह आख़िरी आना है अपनी तनख़्वाह लेने। 

बच्चों के अभिभावक पूर्णतः ऊब चुके थे। अधिकारियों से शिकायत करते, पर परिणाम कुछ न निकलता। हुसैन मियाँ चुपचाप अपने वेतन का एक तिहाई या आधा भाग अधिकारी महोदय की जेब में ठूँस देते और सब काम बन जाता। इस तरह दो वर्ष खींच ले गए थे वे। 

एक दिन स्कूल इंस्पेक्टर दौरे पर आए। शाला समिति के सदस्यों ने हिम्मत करके एक अर्ज़ी पेश की जिसमें मास्टर ताहिर मियाँ को मुअत्तल करने या कम से कम अन्यत्र ट्रांसफ़र करने की माँग की गई थी। 

चालाक और दुनियादार स्कूल इंस्पेक्टर ने बिफरे लोगों को अत्यन्त कौशल से समझाया, “देखिए, आप लोग अधिक चिंतित न हों, ताहिर मियाँ अब चंद दिनों के मेहमान हैं। फिर तो वह स्वयं ट्रांसफ़र हो जाएँगे।” ऊपर आसमान की ओर संकेत करते हुए कहा। 
 
गाँव वालों का आक्रोश तत्काल काफ़ूर हो गया और उसकी जगह सहज मानवीय संवेदना उत्पन्न हो गई ताहिर मियाँ ख़ुश होकर पाँच-पाँच सौ के दो नोट, इंस्पेक्टर साहब की ठंडी और प्यासी जेब में डाल दिए। 

ताहिर मियाँ का स्वास्थ्य पूर्ण रूप से चौपट हो गया था। इधर सलमा बेगम पच्चीस से छब्बीस और फिर सत्ताईस की हो गई। उनके हुस्न में अचानक ही निखार आ गया था। 

ज़िन्दगी के तमाम हसीन लमहात अभी शेष थे। पूरी रात अभी बाक़ी थी। एक जल गया तो क्या? कोई दूसरा आएगा . . . जल मरेगा . . . तीसरा आएगा—फिर चौथा . . . फिर भोर का तारा चमकेगा; डूब जाएगा . . . फिर सुबह का उजियाला फैलेगा; तब कहीं जाकर शम्मा बुझेगी ! बहुत लम्बा सफ़र है . . . 

मैं देख रहा था—मिसेज ताहिर ने अपने आपको एक बिलकुल ही नए रूप में ढाल लिया था। शायद यही उनका असली रूप था। या हो सकता है परिस्थितियों ने इस रूप को निखारा हो। कौन जाने! बहरहाल ताहिर मियाँ इस सुलगती-जलती शम्मा को निरूपाय देखते रहे और भीतर ही भीतर आत्मा की छटपटाहट महसूस करते रहे। अलग-अलग दायरों में ज़िन्दगी घटती रही। घटनाएँ होती रहीं। 

हर रोज़, शाम ढले, एक फटफटिया आती और ताहिर मियाँ जी के द्वार के पास खड़ी हो जाती। 

उसमें से आर.आई. (रेवन्यू इंस्पेक्टर) नूर मोहम्मद उतरते और श्रीमती सलमा अधरों में ताज़ा मुस्कान लिए द्वार पर स्वागत करती . . . और बिलकुल सबेरे फटफटिया फिर स्टार्ट हो चली जाती। गाँव वाले साँस रोके यह सब देख रहे थे। 

रात को, जब अनायास ही ‘मास्टर साहब’ का नशा कम होता और आसपास की भौतिकता का सही सही बोध होने लगता तब वह पागलों की तरह चिल्लाते और अपनी मौजूदगी का—अपने जीवित रहने का एहसास कराते, तब सलमा बेगम आर.आई. नूर मोहम्मद के पहलू से रटपटा कर उठती और ख़ाली गिलास को शराब से भर कर स्वयं पति (परमेश्वर) के मुँह में उढ़ेल देती। मियाँ कृतज्ञभाव से अपनी बीवी की ओर देखते, बड़े-बड़े, घूँट से शराब गटक जाते और पुनः गहरे नशे में डूब जाते—और सलमा बेगम अपनी बड़ी-बड़ी उनींदी आँखों में गुलाबी डोरे लिए वापस लौट जाती। 

ताहिर मियाँ के नशे का फ़ायदा और भी कई महत्त्वपूर्ण लोगों ने उठाया पर उन सबका ज़िक्र करना अप्रासंगिक होगा। गाँव के बड़े बुज़ुर्ग इस स्थिति से क्रुद्ध थे उनका ख़्याल था—बेगम सलमा की ‘नेक चलनी’ का प्रभाव गाँव की बहू-बेटियों पर पड़ सकता है। बात सही भी थी पर सवाल था बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधे! गाँव वाले तो पटवारी को भी माई-बाप मानते हैं . . . फिर बात तो एक आर.आई. की थी! ख़ैर . . . 
 
और इसी क्रम में याद आता है वह विशिष्ट दिन जब एक लड़के ने आकर कहा, “मतवार गुरु जी तुंहला बुलाय हावें-अभीच्चे। कहिन हे -, ज़रूरी काम हवंय।”

मैं पसोपेश में पड़ गया—जाऊँ कि नहीं। धर्म पत्नी की निषेधाज्ञा थी। इधर अंतरात्मा कहती थी कि मैं ज़रूर जाऊँ। अंत में मैंने अंतरात्मा की बात मान ली, पर जैसे ही क़दम बढ़ाया अनु रास्ता रोककर खड़ी हो गई, “ए लो!  मैं पूछती हूँ, इतने बड़े गाँव में क्या आप ही अकेले न्यायमूर्ति हैं? आप वहाँ नहीं जा सकते हो!” 

“यह क्या? तुम भी, मुझे इतना कमज़ोर समझती हो?” मैंने एकदम उसके मर्म को छुआ। 

वह मुझे कुटिल मुस्कान के साथ देखने लगी। मैं आगे बढ़ना चाहा तो उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और बोली, “आपको क्या ज़रूरत है वहाँ जाने की—उन दोनों के बीच में पड़ने की?” 

“देखो अनु, तुम नहीं समझती . . . कितने दिनों के बाद तो बेचारे ने याद किया है। न जाने क्या विपत्ति पड़ी है।” 

“कमीनी ने पी लिया होगा फिर मिट्टी का तेल और क्या . . .?” वह आग बबूला हो गई। 

“तब तो मुझे जल्दी जाने दो . . . छोड़ो रास्ता प्लीज़ वर्ना . . .”

“वर्ना! क्या करेंगे?” वह आशंकित हो उठी। “तुम्हें भी ले जाऊँगा उठाकर . . . फूल की तरह तो हल्की हो . . . ऐसे . . .”

“अरे . . . अरे, यह क्या पागलपन है? . . . छोड़िए,” और मैं उसे नीचे भूमिस्थ कर वेग से बाहर निकल गया। 

उनके घर में मातम-सा छाया हुआ था। ताहिर मियाँ ज़मीन पर सरकी (चटाई) डाल दिवाल पर टेक लगाए बैठे हुए थे। रसोई घर की दहलीज़ पर सलमा बैठी थी। वातावरण भारी था। 

अभिवादन के रूप में ताहिर हुसैन साहब के पपड़ाए होंठों में फीकी और निरस मुस्कान थिरक गई। मैं कुर्सी पर बैठ गया तो वह बोले, “झा साहब, बहुत अकेला पड़ गया हूँ मैं . . . आप सभी हैं यहाँ और मैं तन्हा हो जाऊँ यह बड़ी अफ़सोसजनक . . . ओक्क . . . बात है आपको देखने की बड़ी हसरत थी . . . और आज सुबह-ओक्क, . . . ओक . . ओ . . . मुझे लगा जैसे रुख़्सत होने का लम्हा बिलकुल क़रीब है . . . जानता था, आज आप ज़रूर आएँगे . . . ओ . . .ओक्क . . . तशरीफ़ लाने का ज़हमत गवारा . . . हम शुक्रगुज़ार हैं . . .” उन्हें लगातार उबकाई आती रही।

“कैसे लग रहा है आपको?” मैंने, उनके क़रीब जाकर पूछा। करुणा का एक सोता फूटा था, भीतर। 

“बस ऐसे ही . . . झा साहब आज सुबह से पी नहीं ज़रा भी इसलिए यह . . . सलमा ज़रा पानी लाना तो हलक़ एकदम सूख गया है। ओक्क . . .” 

सलमा पानी ले आई। 

“यह क्या सलमा, मैंने तो पानी माँगा था और तुमने शराब भर लाई . . . ओक्क, ओक्क . . .” लगातार उबकाई!

सलमा अपने पति की पीठ और छाती सहलाने लगी, वह बोली, ”अब हद हो गई, पानी भी आपको शराब दिखाई देने लगा है . . . अगर शराब दी होती तो आपका यह ‘ओख-ओक्क’ कब का बंद हो गया होता।” स्वर में गहरी उपेक्षा थी और चेहरे में तीखी विकृति के भाव जो मेरे उपस्थिति को नज़र अंदाज़ कर उभर आए थे। मैं सोच सकता था ताहिर मियाँ ने अकेलेपन की जो बात कहीं उसमें कितनी सच्चाई थी। मुझे महसूस हुआ, मेरा आना श्रीमती सलमा बेगम को बढ़ा नागवार गुज़रा था। शायद उन्हें डर था कहीं ताहिर मियाँ जी मेरी उपस्थिति में कुछ ऐसा-वैसा ना बक दें जिससे उन्हें किसी रहस्य के उद्घाटित होने का ख़तरा हो . . . और वही अनजाने में ताहिर मियाँ से हो गया, जिसका सलमा को डर था। 

अपनी पत्नी की कटूक्ति से ताहिर आहत हो गए। वह अपलक उनकी ओर देखते रह गए थे। 

“देख लीजिए भाई जान, क्या शराब है गिलास में? बरदाश्त की भी हद होती है . . . जब यह शराब माँगते हैं और मैं शराब दे देती हूँ, तब कहते हैं कि मैंने शराब के बदले पानी दे दिया है और जब पानी माँगते हैं मैं पानी देती हूँ तब कहते हैं . . . ओफ़ मैं ऊब गई हूँ, इनके रवैये से . . .” मैं तटस्थ भाव से उनकी ओर देखा भर। बोला कुछ नहीं। 

“ख़ुदा के लिए चुप कर जाओ सलमा, मुझे माफ़ कर दो (लगातार हिचकी) मुझसे ग़लती हो गई . . . दरअसल शराब के बग़ैर में अब एक पल भी नहीं रह सकता वर्ना मुझे अब तुम भी शराब नज़र आवोगी . . . यह झा साहब भी . . .” 

मैं देख रहा था मास्टर साहब अपना मानसिक संतुलन खोते जा रहे थे और मैं अपने आपको कोस रहा था, क्यों आ गया यहाँ? सलमा ने जले में नमक छिड़का, “हाँ-हाँ क्यों नहीं, अब आपको सारी दुनिया शराब नज़र आएगी . . . इसीलिए तो इन्हें बुलाया है ताकि यह सिद्ध कर सको, कि आपकी इस तरह दुर्गत करने का मूल कारण मैं ही हूँ . . . या ख़ुदा!”

“मास्साहब, अब आप शराब पी डालिए। और यदि आप मेरी उपस्थिति में पीना नहीं चाहते तो मैं चलता हूँ,”
 मैं जाने के लिए खड़ा हो गया। 

“न-न झा साहब, अभी आप ना जाएँ,” उन्होंने उठने की कोशिश की पर उठ न सके। मैंने कहा, “तो फिर आप शराब या आपके पुराने लब्ज में ज़हर क्यों नहीं पीते? आप कुछ कहना चाहते हैं न?”

वह उदास और सूनी_सूनी नज़रों से मुझे देख रहे थे। कुछ कहना चाहते थे, पर कहने में असमर्थ थे। एक तो अनवरत हिचकी उठ रही थी, दूसरे, सलमा के आक्षेप से मन की बात कहने की कोई गुंजाइश नहीं थी। 

शाम घिर रही थी और मिस्टर ताहिर मियाँ क्रमशः बुझ रहे थे। मैं अविलम्ब वहाँ से चला जाना चाहता था। तभी श्रीमती सलमा ने आक्रामक तरीक़े से मेरे सामने आकर कहा, “भाई जान, अब यह क्या कहेंगे . . . जब तक एक बोतल शराब नहीं पी लेंगे—कुछ न कह पाएँगे . . . और मेरी ज़िद है इधर यह शराब पिएँ, उधर मैं ज़हर पी लूँगी . . . भाईजान, अच्छा हो गया आप ख़ुद आ गए। मैं बहुत दिनों से आपसे मिलने की सोच रही थी।”

“चलिए अच्छा हुआ, आपको तकलीफ़ करने की ज़रूरत नहीं पड़ी। मैं स्वयं हाज़िर हो गया . . . लेकिन क्या मैं पूछ सकता हूँ आपने इस तरह अचानक क्यों ज़िद पकड़ ली जबकि इस तरह की ज़िद इनके लिए ख़तरनाक सिद्ध हो सकती है।”

सलमा बेगम प्रश्नयुक्त दृष्टि से मेरी ओर देखने लगी। 

मैंने कहा, “अब जबकि काफ़ी देर हो गई है और आपके शौहर इतनी ख़ुराक बढ़ा चुके हैं कि एकाएक शराब बंद कर देना निश्चित रूप से मौत के मुँह में ढकेल देना होगा।”

वह मेरी ओर बड़ी विचित्र नज़रों से देखने लगी उसे विश्वास न था कि वह अपने ही हथियार से इस तरह घायल हो जाएगी। 

ताहिर मियाँ ने काँपते हाथों से पानी का गिलास मुँह से लगा लिया और तुरन्त गिलास होंठों से अलग कर दिया। 

“आप खड़ी-खड़ी क्या देख रही है जाइये-जल्दी शराब ले आइये,” न जाने कब का दबा हुआ आक्रोश कैसे फूट गया मैं स्वयं नहीं समझ सका। 

“हाय अल्ला!” के साथ बेगम सलमा दौड़कर कमरे के भीतर चली गई और फफक-फफक कर रोने लगीं। 

मिस्टर ताहिर मियाँ की आँखों से तर-तर आंँसू बह रहे थे। 

और उसके बाद—उस तनावपूर्ण वातावरण में एक क्षण भी रहना मेरे लिए नामुमकिन था। अच्छा हुआ मैं तुरन्त चला आया वर्ना हर रोज़ की तरह शाम को मेहमान बनकर आने वाले मियाँ नूर मोहम्मद की सवालिया आंँखों की प्रतिद्वंद्विता भी झेलनी पड़ती। 

इस घटना के ठीक दूसरे दिन हम लोगों ने सुना कि ताहिर मियाँ ‘रिजाइन’ कर चुके हैं। पूरा स्‍टाफ़ स्तब्ध रह गया। लेकिन यह होना ही था। अगर वह अपनी ओर से रिजाइन न देते तो भी नौकरी छूट जाती। नौकरी ही क्यों सब कुछ। शायद, यह क्लेशकारी निर्णय उसी अपरिहार्य भविष्य का पूर्वाभास था। 

मैं स्कूल से जैसे ही घर पहुँचा यह देखकर मेरे आश्चर्य की सीमा न थी कि सलमा बेगम और अनु किसी गहन विचार में निमग्न बैठी है। आहट पाकर सलमा तो झट से ओट में हो गई लेकिन अनु इत्मीनान से उठती हुई मुझे इस तरह से घूरने लगी जैसे कह रही हो, ‘कल मेरा कहना ना मानकर पंचायती करने गए थे—उसी करनी का फल है-भोगो अब’।

मैं कपड़े बदल कर चारपायी पर बैठा ही था कि अनु चाय लेकर आई और फुसफुसा कर कहने लगी, “कल जाकर पता नहीं क्या गुल खिलाए कि आज बेचारे ने इस्तीफ़ा दे दिया . . . देवी जी जब से बैठी हैं इंतज़ार में—‘भाई जान कब आएँगे-भाई जान कब आएँगे’ रट लगाकर मेरी जान खाए जा रही है . . . जाइये सँभालिए उसे . . .” और वह फनफनाती हुई चली गई बाहर। 

पिछले कई महीनों से सलमा ने आना बंद कर दिया था। उस दिन भी न आती वह, लेकिन सहसा अपने आपको नितान्त असहाय और घोर नैराश्य की स्थिति में पाकर हत्‌बुद्धि हो गई थी। ठोकर और प्रताड़ना दी और वह चली आई थी। वैसे, मैं स्वयं सोच रहा था—उसके पहले दिन मैं जिस तरह से उसके मुँह में लताड़ दिया था और जिस तरह उत्तेजना की जानलेवा मनःस्थिति में उसे छोड़कर तथा क्लाइमेक्स में पहुँचते-पहुँचते सारे जलते संदर्भों से कट कर चला आया था। उस स्थिति में—उस जैसी विद्रोहिणी स्त्री का मौन बैठ जाना नामुमकिन है—उसे अपनी तरफ़ से सफ़ाई देने और मुझसे जवाब तलबी के लिए आना ही था। 

और उसने अपनी सफ़ाई दी। ढेर सारे आरोप अपने पति के ऊपर मढ़कर। सारे आरोप जीवन के नर्क बन जाने के बाद की घटनाओं पर आधारित थे—ऐसा एक भी आरोप नहीं था जो परिणति के मूल कारणों पर प्रकाश डालता। 

काश कि वह स्वयं बेनक़ाब हो जाती और अपनी सारी ग़लतियों को स्वीकार लेती तब उसके प्रति नफ़रत नहीं सहानुभूति होती, उसके सभी क्रियाकलापों को हम परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में देखते। 

उसका कहना था—“जब कोई मर्द इतना निकम्मा हो जाता है कि लोग उसकी बीवी पर कीचड़ उछालें और वह चुपचाप देखता रह जाए तब उस अभागन की मजबूरी का अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है . . . लोग समझ जाते हैं अब रास्ता साफ़ है। फिर क्या है! जिसके मन में जो आता है—लांछन थोप देता है . . . औरत एकदम हलकी पड़ जाती है न! 

“. . . खसम का यह हाल है कि दस हज़ार की शराब पी जाते हैं महीने में—बाक़ी बचा क्या? मात्र बीस तीस हज़ार रुपये—उससे क्या होता है? राशन का ख़र्च, घर का किराया, दूध का ख़र्च-राऊत का ख़र्च . . . कपड़ा-लत्ता, . . . दवा-दारू का ख़र्च? ऊपर से यह कि नौकरी पर लात मार दी . . . कैसे कटेगी ज़िन्दगी? मेरा क्या हश्र होगा?” 

हज़ार प्रश्न मुँह बाए खड़े थे। समस्याएँ ज्वलन्त थीं परन्तु उत्तर एक भी नहीं—कोई निदान नहीं। एक विकल्प था—तलाक़! 

मैंने कहा भी उसे कि वह तलाक़ क्यों नहीं ले लेती? तलाक़ का नाम सुनकर वह एकाएक चमत्कृत हो गई पर वह नाटक था। मैं समझता था। जब वह यहाँ तक अपने आपको खींच लाई तो कुछ दिन और सब्र करने में क्या नुक़्सान था? और फिर तलाक़ से कुछ फ़ायदा भी नहीं था। मास्टर साहब के नाम से प्राविडेंट फ़ंड में हज़ारों की जमा राशि पर अधिकार कैसे होता? 

उधर, बीच-बीच में जब भी मौक़ा मिलता, अनु आँखों के संकेत से मुझे सचेत करती कि “टालो इस कुलच्छनी को ऐसों को अधिक मुँह देना अच्छा नहीं“

सलमा अपने आपको बेक़ुसूर साबित करने की जितनी कोशिश करती, उसके गोरे गालों की हड्डियों के पास हलके-हलके दाग, पाउडर की तह में—उतने ही अधिक झलकने लगते थे जो नारी सुलभ लज्जा और कमनीयता को बलात् दबाकर निर्लज्ज कामुकता के ठोस प्रमाण के रूप में उभर आए थे। 

जब वह चलने लगी, तब मैंने कहा, “इस्तीफ़ा की चिंता मत करें, उसे रुकवाया जा सकता है . . . लेकिन आपके लिए मेरी नेक सलाह है, आप अपने भीतर झाँक कर देखें कि आप कहाँ तक ठीक हैं और कहाँ तक ग़लत। अब भी वक़्त है, उनका दिल जीतने की कोशिश कीजिये, शायद ईश्वर उन्हें सद्बुद्धि दे दें और शुरू की स्थितियाँ वापस लौट आएँ . . . यह ज़िम्मेदारी दूसरों पर डालने के बजाय आप स्वयं सँभाले . . . प्रेम में बड़ी शक्ति होती है . . .” 

उसकी आंँखें सजल हो आई थीं। मुझे महसूस हुआ मुख पर कठोरता की जगह लाज और नम्रता ले रही थी। सहसा वह जाने के लिए उठ खड़ी हुई। 

सलमा के जाने के बाद अनु ने मीठा ताना मारा, “भई वाह! मान गए—अगर यही सब कुछ ‘नारी जागरण अभियान’ में उन सारी तलाक़शुदा और उपेक्षिता औरतों के बीच बोलते तो ख़ूब वाहवाही लूटते।”

मैंने कहा, “देखो अनु, मज़ाक़ मत करो। मेरा मूड काफ़ी सीरियस है अभी . . . तुम नारी होकर एक नारी की दुख नहीं समझती।” 

“अरे आप भी, ये सुख-दुख कुछ नहीं सब त्रिया चरित्तर है . . . आप क्या समझेंगे इसे—देख लेना देवी जी अपनी आदत से बाज़ नहीं आएँगी और न ही देवता . . . सुधारेंगे . . .” 

ताहिर मियाँ के पीने का दौर और बढ़ गया। पोस्ट ऑफ़िस में बहुत पहले जमा की गई रक़म क़रीब अस्सी हज़ार रुपये निकालकर धुआँधार ख़र्च करने लगे। कहना असंगत ना होगा जितनी शराब एक माह में पीते थे उतनी एक सप्ताह में पी गए। 

सलमा और भी चिंतित हो गई। उसका एकमात्र तीर भी चूक गया। अर्थाभाव से ग्रस्त होकर वह एक दिन ग़ायब हो गई।

कहाँ? ख़ुदा जाने! 

इधर ताहिर मियाँ की हालत गंभीर हो गई। सिर्फ़ वह थे और शराब थी। पड़ोसी रात में भोजन की थाली छोड़ जाते—जो सुबह ज्यों की त्यों पड़ी मिलती। 

एक दिन . . .

दो दिन . . .

तीन दिन। 

उस रात कड़ाके की ठंड पड़ी। देर सुबह तक मास्टर साहब के मकान का दरवाज़ा नहीं खुला। आसपास के लोगों ने यह देखा तो उन्हें कुछ शक हुआ। दस बजे के आसपास गाँव के कुछ ज़िम्मेदार लोग एकत्रित होकर टीन का दरवाज़ा पीटने लगे। अंदर से कोई उत्तर कोई आवाज़ नहीं, तब दरवाज़ा तोड़ दिया गया। 

देखा गया कि ताहिर मियाँ परछी में—ज़मीन पर औंधे पड़े हैं। एक व्यक्ति ने डरते-डरते उनके शरीर को छुआ-बर्फानी शीतलता थी। दाहिने हाथ की तर्जनी को चूहे ने कुतर डाला था। जाँघ के नीचे उनकी चिर सहचरी अधभरी टाइगर छाप बोतल पड़ी थी। 

सब कुछ ख़त्म हो गया था। 

“संत्रास” का देवता चला गया था। अपने पीछे पीड़ा। आक्रोश और न जाने कितने दुर्दान्त ज्वलन्त प्रश्न चिह्न छोड़कर . . . 

मैं आज भी सोचता हूँ दोष किसका था? कभी लगता कि मियाँ दोषी हैं तो कभी लगता कि उनकी बेगम। 

क्या पता, ईश्वर की लीला अपरम्पार है—उसकी अवघठ माया से मि. ताहिर हुसैन के निष्क्रिय शुक्र-कीट सक्रिय हो गए हों और उनकी बीवी का गर्भ ठहर गया हो . . . 

क्या पता—डॉक्टर द्वारा दी गई रिपोर्ट ही ग़लत हो . . .?

पति के बार-बार कि आक्षेप से सलमा एकाएक तिलमिला गई हो और अपने पतिव्रत का प्रभाव न दे सकने की स्थिति में—इसका प्रमाण भी कौन दे सकता है? उलटे विद्रोहिणी हो गई हो . . . 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें