ग़म-ए-हस्ती
बसन्त राघव
उमस भरा है, मौसम, और दिल बेजार है
ठंडी बयार का अब बाशिद्दत इंतिज़ार है।
वही रह गुज़र है, और वही अपनी नज़र है
सहर वही, शाम वही, गर्दिश-ओ-गुबार है।
कुछ भी नहीं बदला है इस ज़िन्दगी में यार
वही प्यार का ढर्रा और वैसी ही तकरार है।
लाख कोशिशों पर फ़ितरत नहीं बदल पायी
हम दुनिया को बदलने के लिए बेक़रार हैं।
मकड़ियों के जाल सी फैली हुईं मक्कारियाँ
कीट से फँसे हुए न्याय धर्म लाचार हैं।
समझ नहीं आता लोग कितने ख़ुदग़र्ज़ हैं
पीर के दरबार में सब तलबगार हैं।
अंतहीन ख़्वाहिशों के सामने लाचार हैं सब
झुलझ रहा ज़मीर बहुत गर्म है बाज़ार।