समकालीन साहित्य: मार्क्सवाद, दलित विमर्श और आगे की राह
डॉ. राजेन्द्र वर्मासमकालीन साहित्य को विविध विमर्शों का साहित्य कहा जाता है। स्टेफेन स्पेंडर के अनुसार—“The contemporary belongs to the modern world, represents।t।n his works and accepts historical forces moving through।t.” अर्थात् साहित्य के सन्दर्भ में समकालीनता का सम्बन्ध आधुनिक संसार और एतदर्थ ‘आधुनिकता’ से है। दूसरे, अपने समय के केन्द्रीय स्पंदन का प्रतिबिम्ब उस साहित्य की कृतियों में विद्यमान हो। तीसरे, ऐसे सृजन में ऐतिहासिक शक्तियों की सम्यक और निराग्रह स्वीकृति भी हो।
“विमर्श” अँगरेज़ी भाषा के शब्द “Discourse” का हिंदी पर्याय है जिसका सामान्य अभिप्राय है—‘किसी भी समस्या अथवा स्थिति को एक कोण से न देखकर भिन्न मानसिकताओं, दृष्टियों, संस्कारों और वैचारिक प्रतिबद्धताओं का समाहार करते हुए समग्रता में समझने की कोशिश करना और फिर मानवीय सन्दर्भों में निष्कर्ष प्राप्ति की चेष्टा करना।’ “विमर्श” शब्द को समकालीन हिंदी साहित्य और समीक्षा में नए शब्द के रूप में ग्रहण किया गया है। यूँ हिंदी साहित्य के इतिहास में विविध कालखंडों के अंतर्गत विविध प्रवृत्तियाँ, तत्कालीन विमर्श-Discourse का ही हिस्सा हैं। ‘सृष्टि’ और इसलिए साहित्य में भी कुछ एक तत्त्व अपेक्षाकृत चिरंतन होते हैं और कुछ गतिशील। आधुनिकता का सम्बन्ध गतिशीलता से है। “समकालीनता” अपने समय की चेतना से विशेष रूप से जुड़ा हुआ होता है किन्तु ऐतिहासिक नैरन्तर्य की चेतना के साथ अपने समय की केन्द्रीय चेतना उस पर हावी रहती है। “आधुनिक” कभी-कभी चिरंतन तत्त्वों की भी बात कर सकता है, पर “समकालीन” को अपने समय के स्पंदन को मूर्त रूप देने से अवकाश नहीं।’1 अतः समकालीनता के साथ-साथ आधुनिकता को भी समझने की आवश्यकता है।
वस्तुतः आधुनिक कालीन साहित्य में दो अवधारणाएँ महत्त्वपूर्ण हैं: 1. आधुनिकता 2. प्रगतिशील चेतना, जिसका का मूल आधार है मार्क्सवाद। साहित्य के सन्दर्भ में वैयक्तिकता, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र या लोकतान्त्रिक व्यवस्था आधुनिकता के प्रमुख लक्षण मान्य किए गए हैं। भारतीय सन्दर्भ में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा अनिवार्यतः विवादास्पद रही है और भारत के संविधान में भी सेक्युलर शब्द का अर्थ पंथनिरपेक्षता किया गया है। किन्तु भारतीय संविधान की प्रस्तावना में इस शब्द के आगमन बल्कि प्रक्षेपण से पूर्व ही सेक्युलर के अर्थ में धर्मनिरपेक्ष शब्द प्रचलित ही नहीं हुआ, आधुनिकता और प्रगतिशीलता की अनिवार्य कसौटी ही नहीं माना गया बल्कि मध्यकाल की हर बुराई को धर्म के माथे मढ़ कर आधुनिक और प्रगतिशील बनने और दिखने का ढिंढोरा भी पीटा गया। वस्तुतः भारतीय सन्दर्भ में धर्म की अवधारणा अत्यंत व्यापक है—मानवीय सभ्यता के विकास में जो कुछ भी धारण करने योग्य रहा उसका संहति रूप ही धर्म है, धर्म सभ्यता और संस्कृति के विकास में अर्जित मानव-मूल्यों का समुच्चय है। सामाजिक रूढ़ियों, अंधविश्वासों, अन्ध-श्रद्धाओं और तमाम तरह की विकृतियों का समग्र अधर्म है न कि धर्म। किन्तु भारत में भी धर्म की अवधारणा को पश्चिम के ‘रिलिजन’ के समकक्ष रख कर, मानवीय आदर्श की सर्वोच्च सम्भावना के शिखर से नीचे उतार कर, समाज के सभी हेय पक्षों और विकृतियों के लिए इसे ज़िम्मेवार मान लिया गया। जबकि उसके लिए ज़िम्मेवार कदाचित धर्मच्युत राजनीति थी जिसमें छद्म धर्म के स्वार्थी तत्त्व सत्ता के साथ हो लिए। इस प्रकार धर्मनिरपेक्षता को आधुनिकता का सर्वोपरि मूल्य मान लिया गया।
मार्क्सवाद—समाज को देखने की वर्गीय दृष्टि, जिसमें धर्म को शोषण का पर्याय बताया गया; एक विचार है जिसे बुद्धिजीवियों के एक वर्ग ने आधुनिकता का पर्याय माना तथा समाज की हर बुराई और बीमारी का एकमात्र इलाज भी। वहाँ वैयक्तिक स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं, क्योंकि उसे शोषण-सामंतवाद-राजनीतिक सत्ता को संगठित चुनौती देनी थी; शोषितों को संगठित करना था। अतः शोषण से मुक्ति के लिए वैयक्तिक स्वतंत्रता को त्यागने का पुरज़ोर आवाहन किया गया। किन्तु फिर उसका हासिल क्या? सत्ता को चुनौती देकर सत्ता; वर्चस्व को चुनौती देकर वर्चस्व;—‘सर्वहारा का अधिनायकत्व!’ शोषण से मुक्ति के इस लक्ष्य- ‘अधिनायकत्व’ में लोकतंत्र कहाँ और सर्वहारा कहाँ? अर्थ को केन्द्र में रखकर, सभी प्रकार के शोषणों से मुक्ति अर्थात् स्वतंत्रता हेतु वैयक्तिक स्वतंत्रता को बलि चढ़ा कर स्वतंत्रता से भी बड़ा लक्ष्य—सत्ता पर अधिकार—‘सर्वहारा का अधिनायकत्व’ ने स्वतंत्रता के विचार का कितना गला घोंटा है वह जगज़ाहिर है। किन्तु यह भी सत्य है कि अर्थ को केन्द्र में रख कर सभी मौजूदा विचारों को एक ओर ठेलने का प्रयास करने वाले इस विचार ने आधुनिक भारतीय साहित्य को दूर तक प्रभावित किया है।
दलित विमर्श जातीय दृष्टि से ही ‘जाति’ को ‘अर्थ’ पर अधिमान देता है। किन्तु अर्थ, सम्पति और भूमि पर उच्च जाति के लोगों का वर्चस्व उस विमर्श का केन्द्र बिंदु है। दलित विमर्श भी मार्क्सवादी विचार की तरह राजनीतिक महत्वकांक्षा से शून्य नहीं, बल्कि वृहद सामाजिक-राजनीतिक विमर्श का उपकरण है। आधुनिक साहित्य की उपयोगिता भी कदाचित् उसी में निहित है। समकालीन साहित्यिक विचारकों ने मार्क्सवादी दर्शन के आग्रहों, अंतर्विरोधों और सीमा को रेखांकित किया है। ब्रजेश के शब्दों में—“यद्यपि मार्क्सवादी दर्शन की गतिशीलता कम्युनिस्टों को विभिन्न स्कूलों से गुज़ारती हुई उत्तर आधुनिकता की एक शाखा तक ले आती है, जिसका प्रतिनिधित्व युर्गेन हैवरमास करते हैं, इसके बावजूद मार्क्सवाद की औसत छवि कोई मूलगामी परिवर्तन लिए हुए नहीं दिखाई पड़ती है। जहाँ व्यक्ति की आज़ादी का सन्दर्भ आ जाता है, वहाँ उसे स्वछंदतावाद दिखाई पड़ने लगता है और जहाँ स्त्री की आज़ादी का सन्दर्भ आ जाता है वहाँ उसे बाज़ार का शिकंजा दिखाई पड़ने लगता है। मार्क्सवाद ने आज़ादी, फैशन, यौन सम्बन्ध और बाज़ार के नाम पर पूँजीवाद की एक आभासी इमेज भी गढ़ ली है, शायद यह थियरी को ज़रूरत से ज़्यादा राजनीतिक फ़्रंट पर तैनाती के स्टंट के कारण हुआ है।”2
बीसवीं शती के अंतिम दो-तीन दशकों में साहित्य के क्षेत्र में उभरे विविध विमर्शों के उत्स पर विचार करते हुए प्रायः यह समझा जाता है कि ‘शीतयुद्ध की राजनीति’ ने वैश्विक चिंतन को गहरे आन्दोलित किया, जिसका प्रभाव भारतीय साहित्य एवं कला जगत पर भी सहज ही देखा जाने लगा। भूमण्डलीकरण और बाज़ारवाद की वर्चस्वशाली उपस्थिति ने भी मनुष्य जीवन से जुड़े प्रायः सभी पहलुओं को प्रभावित किया। समकालीन साहित्य पर इसका प्रभाव अनिवार्य था। उत्तर आधुनिकता, उत्तर संरचनावाद और विखंडनवाद के प्रभावस्वरूप पाठ के विखंडन का नया दौर शुरू हुआ। इसी परिदृश्य में नस्लवादी आलोचना, नारी विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, सांस्कृतिक-ऐतिहासिक बोध जैसी साहित्यिक विमर्श की विविध धाराएँ विकसित हुईं। पिछले तीन-चार दशकों में एक साथ बहुत से विमर्शों ने साहित्य, संस्कृति और कुल मिलाकर कहें तो समूचे चिंतन जगत को आलोड़ित किया है।
ब्रजेश को दिए एक साक्षात्कार में ओम प्रकाश वाल्मीकि दलित की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कहते हैं— “दलित शब्द का अर्थ जो भी है, वह दलित विमर्श के साथ जुड़कर संघर्ष और चेतना की अभिव्यंजना पैदा करता है। इस शब्द ने दलितों में सामूहिकता की भावना सुदृढ़ की है। आज तक जो शब्द दलितों के लिए प्रयोग किए जाते रहे, वे दूसरों ने उन पर थोपे थे। . . . उन्होंने अपने लिए यह शब्द चुना जिसने उनमें आत्मविश्वास जगाया है। उनके लिए यह शब्द हीनताबोध पैदा नहीं करता है। बल्कि गहरे भावबोध का प्रभाव पैदा करने में भी सफल है। जो मात्र उनकी सामाजिक, आर्थिक स्थिति का ही परिचायक नहीं है, उनकी अस्मिता, सांस्कृतिक पहचान का द्योतक भी है।”3 यह भी कि “दलितों की चेतना वैयक्तिक नहीं सामूहिक होती है। उनकी भौतिक जड़ें सम्पति में नहीं श्रमशक्ति में विद्यमान रहती हैं। यही शक्ति है जो उनकी चेतना में होती है। और उनकी संस्कृति और चेतना में अभिव्यक्त होती है।”4 अपने व्यापक स्वरूप में यह विमर्श जाति, नस्ल, रंग, धर्म आदि सभी धरातलों पर मानव-निर्मित असमता के निषेध का विमर्श है। इन सारे विभेदकारी तत्त्वों में भी उसकी पहली नज़र जाति और वर्ण पर है। यह मानता है कि सामाजिक समता पहली आवश्यकता है, तभी आर्थिक व अन्य प्रकार की समताओं की बात हो सकती है। यह उन सभी संस्थाओं, मतों और शास्त्रों के विरुद्ध है जो वर्ण-व्यवस्था और जातिभेद को बरक़रार रखे हुए हैं।
दलित विमर्शकारों को इस समकालीन विमर्श के शुरूआती लक्षण बुद्ध की वाणी में दिखाई देते हैं, जो निरंतर पालि, प्राकृत, अपभ्रंश जैसी जनभाषाओं से आगे बढ़ते हुए आधुनिक भारतीय भाषाओं के आरंभिक और मध्यकालीन काव्य में विस्तार लेते चले गए। विशेषतः मध्ययुगीन संत काव्य में इसकी मुखर अभिव्यक्ति हुई है, जिसने भारतीय समाज को गहरे आंदोलित भी किया। आधुनिक पुनर्जागरण के दौर में दलित चिंता का स्वर पुनः उभरा जो राष्ट्रीय आंदोलन को एक नया आयाम दे रहा था। यह स्थापित तथ्य है कि दलित चेतना के अभ्युदय में डॉ. अम्बेडकर की भूमिका विशेष उल्लेखनीय है, किन्तु यह भी स्वीकार करना होगा कि उनकी विचारधारा बुद्ध, कबीर, रैदास और ज्योतिराव फुले जैसे समता-निष्ठ चिंतकों से प्रेरित थी। डॉ. अम्बेडकर दलित चेतना को न सिर्फ़ बृहतर आयाम देने में, वरन् उसे आंदोलनधर्मिता के साथ जोड़कर राष्ट्रीय आंदोलन के एक बड़े प्रश्न के रूप में उभारने में भी सफल हुए । समकालीन सांस्कृतिक परिदृश्य में दलित-विमर्श और दलित साहित्य की वैचारिक पीठिका को निर्मित करने में डॉ. अम्बेडकर की भूमिका निर्णायक और निर्विवाद रही है।
सम्यक् दृष्टि से विचार करें तो भारतीय नवजागरण की चिंताओं में दलितों-शोषितों की दुरवस्था और उपेक्षा को समाप्त करने की चिंता शामिल रही है। दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानंद से लेकर महात्मा गाँधी और डॉ. अम्बेडकर तक सभी ने भारतीय समाज व्यवस्था में जाति आधारित वर्ग-वैषम्य को पाटने की कोशिश की। भारतेन्दु युग से लेकर द्विवेदी युग तक के रचनाकारों पर इसका प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। प्रेमचन्द और निराला जैसे रचनाकारों ने दलित पीड़ा को व्यापक मानवीय सरोकारों के साथ जोड़कर देखा। प्रगतिवादी काव्यधारा में भी शोषणककारी व्यवस्था और शक्तियों के विरोध के कारण दलित चिंता उत्तरोत्तर गहराती चली गई, जहाँ शोषित-दलित को सर्वहारा के रूप में चिह्नित किया गया। इस प्रकार दलितों की पीड़ा की प्रामाणिक अभिव्यक्ति वैसे तो हिन्दी साहित्य में मध्यकाल से ही प्रारंभ हो गई थी, किन्तु आधुनिक काल में और उसमें भी सत्तर के दशक में उभरे दलित साहित्य को एक नई शुरूआत के रूप में देखा जाना चाहिए। यह भी विदित है कि समकालीन हिन्दी साहित्य में दलित विमर्श का नए तेवरों के साथ आगमन कुछ विलम्ब से हुआ और इस रूप में नए दलित साहित्य पर मराठी साहित्य का प्रभाव रेखांकित किया जाता है। पिछले तीन-चार दशकों में हिन्दी साहित्य में भी न केवल ‘सुन्दर अतीत’ से आते मान-मूल्यों पर प्रश्न चिह्न लगाए हैं, वरन् कथित आधुनिकता और प्रगतिशीलता के आडम्बर में छुपी दलित विरोधी मानसिकता पर भी दलित साहित्यकारों और विमर्शकारों ने अपना निशाना साधा है:
“चूल्हा मिट्टी का, मिट्टी तालाब की, तालाब ठाकुर का।
भूख रोटी की, रोटी बाजरे की, बाज़ार खेत का, खेत ठाकुर का।
बैल ठाकुर के, हल ठाकुर का, हल की मूठ पर हथेली अपनी,
फसल ठाकुर की, कुआँ ठाकुर का, खेत खलिहान ठाकुर के,
गल्ली-मुहल्ले ठाकुर के, फिर अपना क्या? गाँव? देश?”
ओम प्रकाश वाल्मीकि की यह कविता सामाजिक यथार्थ का एक शालीन सा नमूना है, जो मुंशी प्रेम चन्द के कथा साहित्य में विविध अभिव्यक्ति पा चुका है। किन्तु “फिर अपना क्या? गाँव? देश?” में, देश की मूल संस्कृति से विलगाव की ध्वनि ज़रूर आ रही है। समकालीन दलित साहित्यकारों ने इस ध्वनि को और बुलंद किया तथा परवर्ती दलित काव्य, कथा साहित्य और आत्मकथाओं में यह विषम यथार्थ घृणित और नग्न रूप में चित्रित हुआ है। डॉ. अम्बेडकर और उनकी पीढ़ी ने यह नग्न यथार्थ अपनी आँखों से देखा था। उन्होंने अनेकशः उल्लेख किया है कि भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था असमानता पर आधारित है। जाति, वर्ग, कुल तथा वंश के आधार पर बनी इस व्यवस्था के शीर्ष पर एक वर्ग अपना आधिपत्य तथा वर्चस्व बनाए हुए है, जिसके कारण अन्य वर्ग अपने सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक अधिकारों से वंचित हैं और यही उसके शोषण का कारण है। डॉ. अम्बेडकर ने इस शोषणकारी व्यवस्था को राष्ट्रीय एकता में भी बाधक माना। उन्होंने दलितों के उत्थान को राष्ट्र के उत्थान के साथ जोड़ कर देखा। उनके दलित चिंतन में राष्ट्र एक भारतीय परिवार के रूप में है, जो उनके चिंतन की व्यापकता का द्योतक है। वे जाति के आधार पर कुछ लोगों को विशेषाधिकार देने और कुछ लोगों को मानवाधिकारों से वंचित करने का विरोध करते हैं, जबकि जाति-वर्ण की रूढ़ मान्यताएँ इन्हें बरक़रार रखना चाहती हैं। उनकी मान्यता है कि आप जो भी क्रांति करेंगे, जाति का राक्षस आपका रास्ता ज़रूर रोकेगा, अतः जाति के राक्षस को मारे बिना आप कोई सुधार नहीं कर सकते। सांविधिक प्रावधानों के द्वारा जातीय विषमता को दूर करने हेतु उनके प्रयास मील का पत्थर साबित हुए हैं, यह समाज में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।
किन्तु समकालीन दलित विमर्श उनके प्रयासों से संतुष्ट नहीं है। संविधान में प्रदत्त राजनीतिक-सामाजिक अधिकारों और ‘आधुनिक’ शिक्षा प्राप्त दलित, अतीत की दीर्घकालीन वंचना के दंश को ‘स्वानुभव’ के आधार पर नए आक्रोश के साथ चित्रित और अभिव्यक्त कर रहे हैं। जिसमें डॉ. अम्बेडकर का दलित चिंतन, ‘स्वानुभव’ और समता के उनके प्रयास गौण दिखाई पड़ रहे हैं। समकालीन दलित विमर्श दृढ़ता के साथ इस मत को प्रसारित कर रहा है कि ‘ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र’ के रूप में वर्ण विभाजन—एक वर्ग—‘शूद्र’ को शिक्षा, सत्ता और सम्पति से विहीन रखने का षड़्यंत्र था। सेवा को धार्मिक ग्रंथों में परम धर्म कहकर महिमा मंडित करने में भी षड़्यंत्र की ही बू आती है। इस दृष्टि से ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’, ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ और ‘सभी एक ही परमात्मा की संतान हैं’ जैसी बातें ‘जागृत’ दलितों को समय-समय पर वर्ग विशेष में उत्पन्न असंतोष को दबाने की कोशिशें ही लगती हैं। दलित साहित्यकार और विमर्शकार को मार्क्सवादी चिन्तक की तरह प्रगतिवादी स्वर की मुखरता से पूर्व के साहित्य में प्रतिगामिता ही नहीं दिखाई पड़ती, बल्कि उससे आगे बढ़कर दलित शोषण की गहरी दुरभिसंधि और सोची समझी योजना भी दिखाई देती है।5 वह शोषण की आर्थिक व्याख्या से भी संतुष्ट नहीं है बल्कि उसका स्पष्ट मंतव्य है—“जाति के कारण ही समाज का एक बड़ा वर्ग सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक राजनीतिक, धार्मिक-सांस्कृतिक सभी प्रकार से वंचित, उपेक्षित शोषित, उत्पीड़ित और अस्पृश्य तथा दमन और दलन का शिकार रहा है।”6
इस विमर्श को यदि मध्यकाल के ऐतिहासिक संदर्भो में देखें तो संत कबीर, रैदास आदि मध्यकालीन कवियों ने उच्च वर्ण समाज—ब्राह्मणों, पंडे-पुरोहितों को ही नहीं, मौलवियों को भी अपने आध्यात्मिक ज्ञान के बल पर चुनौती दी। किन्तु आधुनिक दलित चिंतकों को ‘कह रैदास चमारा’, ‘नागर जनां मेरे जाति विअखात चमार’ जैसी उक्तियों में जातीय अपमान की प्रतिक्रिया तो दिखाई देती है, किन्तु उनकी वाणी में यह आत्मविश्वास आध्यात्मिक उपलब्धि के कारण आया, वे यह मानने को तैयार नहीं हैं। बल्कि समकालीन दलित-विमर्श स्थापित मध्यकालीन पाठों को ‘ब्राह्मणवादी’ कहकर नकारने में लग गया है। क्योंकि समकालीन दलित चिंतक भारतीय महा-आख्यानों में अभिव्यक्त मानवीय-सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों को वैदिक(हिन्दू) धर्म की स्थापना-पुनर्स्थापना के रूप में देखता है तथा राम और कृष्ण को ब्राह्मणवाद या हिन्दू संस्कृति के नायक के रूप में। उन्हें इन आख्यानों में जातीय वर्चस्व को बनाए रखने का षड़यंत्र ही दृष्टिगोचर होता है। अतः यदि इस एकदेशीय चिंतन से दूर सम्यक बोध वाले चिंतकों को आधुनिक अस्मिता मूलक विमर्शों में विषमता और संघर्ष के नए अध्याय के प्रारंभ की आशंका लग रही है तो वह निर्मूल नहीं है। क्योंकि समकालीन दलित विमर्शकारों को कदाचित् राजनीतिक शक्ति में दलितों की अनुपेक्षणीय और निर्णायक उपस्थिति के कारण, डॉ. अम्बेडकर की तरह जाति-व्यवस्था के उन्मूलन के प्रयासों में कोई रुचि नहीं है, वरन् जाति-व्यवस्था को समाप्त करने के प्रश्न पर, जातीय ग्रंथियों को दूर करने हेतु वैज्ञानिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार की आवश्यकता और अंतरजातीय विवाह को आन्दोलन का रूप देने के विचार पर ओम प्रकाश वाल्मीकि की सुचिंतित प्रतिक्रिया है कि “भारतीय लोकतंत्र जाति-तंत्र में बदल गया है जो लोकतंत्र की मूल भावना को ही निगल गया है। जाति-तंत्र की जड़ें इतनी गहरी हैं कि इस पर छोटे मोटे हमले इसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते हैं।”7 इसका आशय यह हुआ कि दलित विमर्शकारों की यह पता लगाने में रुचि ही नहीं है कि जातीय तंत्र की जड़ें हैं कहाँ, क्योंकि नकारने और धिक्कारने से काम चल रहा है अथवा कदाचित् उन्हें बोध है कि जातीय तंत्र के मूल तक पहुँचे बिना, अतीत और वर्तमान यथार्थ का समुचित मूल्यांकन किए बिना हम जिन पैमानों के आधार पर प्रतिवाद कर रहे हैं, वे सुचिंतित नहीं, भोथरे हैं। सम्पूर्ण अतीत और मध्यकालीन साहित्यिक विमर्श को सामंतवादी-हिंदूवादी-गर्हित कहकर नकारने से उथल-पुथल तो पैदा की जा सकती है; किन्तु सार्थक, संतुलित, मानवीय निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा जा सकता।
सामंतवाद आधुनिक लोकतंत्र की स्थापना से पूर्व की एक राजनीतिक व्यवस्था थी और यह व्यवस्था सम्पूर्ण भूगोल पर थी न कि केवल आपके ‘ग़लीज़’ भारत में। बाहरी शक्तियों के साथ प्रतिरोध और संघर्ष की प्रक्रिया में लगभग 800 वर्षों के दीर्घ कालखंड के बाद तुलसी बाबा ‘रामचरित मानस’ की रचना कर बिखरती-कराहती राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था को संबल देने का धैर्यपूर्वक प्रयास करते हैं और आप उसे सामंतवाद और ब्राह्मणवाद की प्रतिष्ठा का प्रयास कहकर नकार दोगे? आपको लगता है कि बाहरी प्रबल शक्तियों से लोहा लेने के लिए तुलसी बाबा ने सामंतवाद के स्थान पर लोकतंत्र की प्रतिष्ठा प्रस्तावित क्यों नहीं की; गोया कि बाहरी शक्तियाँ लोकतंत्र की स्थापना के लिए भारतवर्ष पर आरूढ़ होना चाह रही थीं। बाहरी शक्तियों से लगभग बारह शताब्दी का दीर्घकालीन संघर्ष, प्रतिरोध और उसके सामजिक, राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक दुष्प्रभावों को समझने में दलित विमर्शकारों की कोई रुचि नहीं है। लम्बे संघर्ष के बाद लोकतंत्र की स्थापना हुई। अब यदि लोकतन्त्र जाति-तन्त्र बन गया है तो इस तंत्र को तोड़ने के लिए तुलसी बाबा की तरह धैर्य की आवश्यकता है। ब्रह्मवाद और ब्राह्मणवाद में अंतर करते हुए, ब्राह्मणवाद को भी ऐतिहासिक सन्दर्भों में समझने की आवश्यकता है। ब्रजेश के अनुसार—“धार्मिक ग्रंथों का सही पाठ इतिहास, दर्शन और विज्ञान के प्रकाश में ही संभव है।”8 तथाकथित “ब्राह्मणवादी विचारधारा इतने महापुरुषों द्वारा सिरजी गई और उसके इतने अंतर्विरोध हैं कि उनकी पहचान अधिक बारीक़ी की माँग करता है।”9 सब कुछ को नकार कर आप कहीं नहीं पहुँच सकते, बल्कि आशंका है कि आप भी शीघ्र ही नकार दिए जाओगे।
इस आलोक में ब्रजेश का मानना है कि “विवेकानंद और गाँधी अंतर्विरोधों से ग्रस्त होने के बावजूद दलितों के मुद्दे पर उन दलितों से कहीं ज़्यादा मानवीय हैं जो दलितों के नाम पर राजनीति करते हुए लगातार सत्ता में बने रहते हैं या दलितों के पैसे से स्वयं के लिए तो महल बना लेते हैं किन्तु दलितों के लिए धेला भर काम नहीं करते हैं . . .”10 कहना न होगा कि ‘ब्राह्मणवाद’ को सिरे से ख़ारिज करते हुए कुछ उत्साही दलित चिन्तक ‘दलित ब्राह्मण’ की भूमिका में आ गए हैं, कुछ राजनीतिक नेता दलित वर्ग के ‘नव-सामंत’ बन गए हैं और उनकी कुंठा और आक्रोश दम्भ में परिवर्तित हो गया है, तो फिर ‘परिवर्तन’ उन्हें क्यों काम्य हो। वे इतनी शीघ्रता में हैं कि सुबह जागें तो ‘समता’ उनके पाँवों के नीचे बिछी मिले। डॉ.रघुवीर द्वारा अब तक के कबीर साहित्य के स्थापित निष्कर्षों को ब्राह्मणवादी कहकर नकारने और मुंशी प्रेमचन्द को ‘सामंतों का मुंशी’ की संज्ञा देना किसी भी संवेदनशील साहित्यिक प्रेमी के गले नहीं उतरता। क्या अब हमें यह मानना पड़ेगा कि सन्त कबीर और सन्त रैदास भारतीय सन्त परम्परा के प्रवर्तक और महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर नहीं बल्कि केवल और केवल मध्यकाल के दलित कवि हैं और इसी रूप में वे दलित विमर्श के प्रेरकों में शामिल होंगे अन्यथा नहीं। यह वैचारिक उथलापन नहीं बल्कि बौद्धिक ‘उदंडता’11 है जो इतिहास, ऐतिहासिक बोध, सृजनात्मक साहित्य के कार्य-कारण पुष्ट विश्लेषण-संश्लेषण के बौद्धिक दायित्वपूर्ण प्रयासों को धत्ता बताकर कदाचित् अपने जातीय-वर्ग की राजनीतिक शक्ति के दंभ से परिचालित है। डॉ. पी.एन. सिंह के शब्दों में “इनकी प्रतिभा उन्मादी है और दलित होना इनका कवच है। जैसे सभी सनातनी ब्राह्मण अभेद्य था वैसे ही आज दलित ब्राह्मण अभेद्य है।”12 राम प्रकाश कुशवाहा का यह आकलन कि “यह लेखन दलित बुद्धिजीवियों की ओर से दलित लेखन परियोजना की तरह है।”13 भी सही प्रतीत होता है।
‘हिन्दी के समानान्तर साहित्य का जनतंत्र’ नामक अपने आलेख में राम प्रकाश कुशवाहा ने विभिन्न पत्रिकाओं में दलितवाद अथवा दलित विमर्श पर केन्द्रित विशेषांकों के हवाले से समकालीन दलित साहित्य लेखन में कई अन्तर्निहित ऐतिहासिक विसंगतियों की ओर संकेत किया है और इस लेखन को अमेरिका और दक्षिण अफ़्रीका के रंगभेद विरोधी आन्दोलन से उपजे साहित्य की तुलना में संवेदना के स्तर पर यथार्थ से कुछ दूर पाया है। वे कहते हैं—“हिन्दी के दलित साहित्य के अतीतोन्मुख यथार्थ और भारत के वर्तमान सामाजिक यथार्थ में ऐतिहासिक अंतर्विरोध है। भारत का दलित यथार्थ उस मोड़ पर पहुँच गया है कि वह पीड़ा के स्तर पर संवेदनात्मक वर्तमान न रह जाने से अपनी साहित्यिक सम्भावनाएँ खो चुका है। सचाई यही है कि अधिकांश दलित यथार्थ अब सिर्फ़ ऐतिहासिक या स्मृति संरक्षित यथार्थ ही है। कहीं-कहीं साम्प्रदायिकता की वापसी की तरह आपराधिक हठ और हिंसा के रूप में दलितों के प्रति सामंती व्यवहार की घटनाएँ अब भी घट जाती हैं, लेकिन दलित राजनीति के सफल सत्ता-आरोहण ने उसका राजनीतिक आधार छीन लिया है।”14 डॉ. पी.एन. सिंह भी दलित साहित्य के अंतर्विरोधों और संभावनाओं पर विचार करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि “आरम्भिक सर्जनात्मक विस्फोट के बाद इन्होंने अपने लिए कोई नया पंथ अन्वेषित करने की चिंता नहीं दिखाई। “रंगभूमि” का दहन या प्रेमचन्द को “सामन्त का मुंशी” सिद्ध करने के लिए पसीना बहाना दलित प्रतिभा की अन्वेषण-क्षमता एवं संवेदना में आयी रुग्णता का लक्षण है।”15 राम प्रकाश कुशवाहा ने दलित साहित्य के सन्दर्भ में एक और ऐतिहासिक विसंगति की ओर ध्यान आकृष्ट किया है, वह यह कि “दलित साहित्य लेखन का वर्तमान दौर आधुनिकता की प्रक्रिया में, दलित वर्ग में भी आर्थिक दृष्टि से उच्च वर्ग और मध्य वर्ग के उदय के बाद आया है।”16
एक और तथ्य यह भी है कि इन विमर्शों के मूल में मौजूद विचार पर जब ग़ौर किया जाता है तो एक शब्द केन्द्र में आ जाता है वह है ‘शोषण’। ‘ग़रीब की जोरू सबकी भाभी’ यह कहावत हर देशकाल में सत्य है। यह कहावत किसी सामंतवादी अथवा कुलीनतावादी तंत्र की मोहताज नहीं है, किन्तु है यथार्थ। यह यथार्थ अर्थ केन्द्रित भी है और कमज़ोर को दबाने की चेष्टा भी इसमें अन्तर्निहित है, फिर वह जाति के कारण हो या अन्यथा। समकालीन स्त्री विमर्श को जब दलित वर्ग तक ले जाते हैं तो स्त्रिओं की दशा तथाकथित प्रभु-वर्ग से बेहतर नहीं है बल्कि हीनतर है। किन्तु क्या उस शोषण को समाप्त करने की पहल दलित विमर्श में शामिल है? और क्या दलित विमर्श के आवरण तले अन्तर्निहित जातीय भेद समाप्त हो गया है? या उस भेद को समाप्त करने के लिए अंतरजातीय विवाह को दलित ब्राह्मणों की स्वीकृति मिल गई है? आरोपण-प्रत्यारोपण, गाली-गलौच, धिक्कार, जूतम-पैजार से यथार्थ स्थितियाँ नहीं बदलती। उसके लिए गहरे पानी पैठना पड़ता है। ‘जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानि पैठ’- कबीर की यह उक्ति उनके ‘दलित चिंतन’ से नहीं निकली है बल्कि गहन अन्तःसाधना से निसृत हुई है, गहन मानवीय चिंतन की उपज है। इस उक्ति की गहराई मापने के लिए कौन-सा ब्राह्मणवादी अथवा दलितवादी पैमाना लाओगे?
किन्तु बात ‘शोषण’ शब्द की हो रही थी। ‘शोषण’ शब्द के केन्द्र में आते ही साहित्यिक चेतना क्रियात्मक नहीं प्रतिक्रियात्मक हो जाती है। ‘शोषण’ शब्द साहित्य में प्रगतिशील अवधारणा का प्रस्थान बिंदु है और आमूल-चूल परिवर्तन अथवा ‘क्रान्ति’ सामाजिक लक्ष्य और ‘सर्वहारा का अधिनायकत्व’ राजनीतिक उपलब्धि। इस प्रतिक्रियात्मक दृष्टि से वेदों, उपनिषदों और पुराणों से लेकर साहित्य में प्रगतिशील आन्दोलन से पूर्व तक का साहित्य शोषण और प्रगतिगामिता का पर्याय और सामंतवाद का पोषक बन जाता है और आधुनिकता के तमाम सूत्र भी मार्क्सवादी दर्शन में ही सूझ पड़ते हैं। लोकतंत्र की वास्तविक लड़ाई भी यहीं से प्रारंभ होती है तथा मानवीय सभ्यता के प्रारंभ से हस्तगत सभी मानव-मूल्य ‘शोषण के हथियार’ बन जाते हैं। ऐसे में आधुनिक विमर्शों के उत्स में तो मार्क्सवाद को अपनी वैचारिक सफलता दिखाई पड़ी, उसने अपनी पीठ थपथपाई, किन्तु जैसे ही इन विमर्शों ने अस्मिता-मूलक प्रश्न उठाए, आधुनिकता और लोकतंत्र के ध्वजवाहक-अग्रदूत बगलें झाँकने लगे। अतएव उन्हें इन नव्य-साहित्यिक विमर्शों पर अपनी बात रखते हुए संकोचपूर्वक अपना परिचय देना पड़ता है। दलित विमर्श पर अपनी बात रखते हुए डॉ. पी.एन. सिंह लिखते हैं—“दलित साहित्यकार ‘अपने’ बाबा साहब अम्बेडकर और दलित साहित्य पर किसी ग़ैर दलित के लेखन को प्रामाणिक नहीं मानता। प्रामाणिकता के लिए ‘दलित’ और दलितवादी होना अनिवार्य-सा मान लिया गया है, जाति-वर्ण, धर्म, स्वानुभूति-सहानुभूति जैसे मसलों को उठाकर ऐसे लेखन को ख़ारिज कर दिया जाता है।”17 अत्यंत पीड़ा पूर्वक वे बताते हैं—“मैं भी दलित नहीं हूँ। सामाजिक मंडलवादी शब्दावली में ‘अगड़ा’ हूँ और उसमें भी ‘क्षत्रिय’ जिसका वर्ण/जाति नाम के सिवाय कोई भी शास्त्र मंडित गुण मुझमें नहीं है।”18 और अब देखिए वास्तविक संकोच—“राजनीतिक दृष्टि से मुझे मार्क्सवादी माना जाता है, और बहुत सारे अम्बेडकरवादी भी समझते हैं। इधर गाँधी में मेरी रुचि बढ़ी है . . . ”19 आदि-आदि। यह लोच- सैद्धांतिक प्रतिबद्धता के बावजूद यह व्यावहारिक लचीलापन स्तुत्य है। अतएव एक बात तो स्पष्ट है कि किसी एक विचार से आप किसी भी सभ्यता, संस्कृति, साहित्य, अतीत-वर्तमान का विश्लेषण-मूल्यांकन नहीं कर सकते और यदि आप ऐसा करने का प्रयास करते हो तो यह हठधर्मिता है, दलित विमर्श की शब्दावली में ‘ब्राह्मणवाद’ है! पीड़ा इसलिए होती है कि सामाजिक घृणित यथार्थ को शब्दबद्ध करते हुए साहित्यकार होते हुए, साहित्य चिन्तक होते हुए, विमर्शकार होते हुए आप पारिभाषिक शब्दों की गहन अर्थवत्ता को लांछित करने से भी गुरेज़ नहीं करते और साहित्यकार के रूप में संवेदनशील होने का दावा भी करते है। यह अतिसंवेदना जो अपने अतीत को गर्हित साबित करने पर तुली है, बेहतर भविष्य का निर्माण नहीं कर सकती और यदि बेहतर भविष्य का निर्माण आपकी योजना में नहीं है तो फिर आपकी योजना क्या है?
इस आलोक में और इस नव्य-बोध में डॉ. पी.एन. सिंह कहते हैं कि—“उत्तर-आधुनिक विमर्शकारों ने इतने सारे महाप्रश्न खड़े किए हैं कि अब किसी विचारधारा को उसके मूल में जीना न केवल मुश्किल है बल्कि बौद्धिक गतिहीनता का सूचक भी है।”20 और मानो मार्क्सवाद ने अपनी हार स्वीकार कर ली हो। जिस बौद्धिकता के बल पर आधुनिकता का ताना-बाना बुना गया था, यथास्थितिवाद और गली-सड़ी व्यवस्था और गतिहीनता को चुनौती दी गई थी, युगों-युगों के मंथन के बाद हस्तगत जीवन मूल्यों पर प्रश्न-चिह्न खड़े किए गए थे, वह बौद्धिकता समकालीन महाप्रश्नों के आगे गतिहीन हो गई, परास्त हो गई। अतः उन्हें ठीक ही महसूस हुआ कि “दलित रचनाकारों और विमर्शकारों ने गाँधी और प्रेमचन्द को उनके समय के सन्दर्भ में देखने-परखने की चेष्टा नहीं की।”21 किन्तु प्रश्न यही है, बल्कि महाप्रश्न है कि मार्क्सवादी चिंतकों ने भी हमारी, हम सब की भावात्मक-बौद्धिक-सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत वेदों, उपनिषदों, पुराणों और मार्क्सवाद के प्रभाव से पूर्व के विचार और दर्शन को कब ‘उनके समय के सन्दर्भ में देखने और परखने’ की चेष्टा की? एक आकलन यह भी है कि—“मार्क्सवाद निरन्तर विकासशील दर्शन रहा, उसकी विश्व दृष्टि की यांत्रिकता जो कहीं-कहीं दंभ का रूप ले लेती है, मुक्तिबोध के ब्रह्मराक्षस के दंभ की भान्ति छँटती जाती है और सामाजिकता के साथ-साथ वैयक्तिकता की उर्वर सम्भावनाएँ दिखाई पड़ने लगती हैं।”22 अब ‘मार्क्सवाद में वैयक्तिकता की उर्वर सम्भावनाएँ’, ‘सर्वहारा के अधिनायक्तव’ जैसे झूठे नारे की वास्तविकता के दर्शन से उत्पन्न हुई अथवा वैयक्तिक स्वतंत्रता और लोकतंत्र के अन्योन्याश्रय सम्बन्ध की प्रतीति के कारण; तो फिर मार्क्सवादी विचार की कसौटी क्या हुई?
अस्तु, प्रसिद्ध साहित्य आलोचक धनञ्जय वर्मा भिन्न सन्दर्भ में स्वीकार करते हैं कि—“बौद्धिकता, विवेकशीलता और तकनीकीकरण आधुनिकीकरण के अनिवार्य लक्षण हैं और इसका तात्पर्य यही है कि धार्मिक अन्धविश्वास और समर्पित श्रद्धा के बदले तर्क और विचार की प्रतिष्ठा की जाए; लेकिन विडम्बना तो यही है कि किसी भी तर्क और विचार पर अन्धविश्वास भी धार्मिक अन्धविश्वास से बहुत भिन्न नहीं है।”23 किन्तु यह स्वीकारोक्ति अर्थ केन्द्रित मार्क्सवादी दर्शन के ‘अतिविश्वास’ पर भी तो लागू होती है। उल्लेखनीय है कि धनञ्जय वर्मा अपनी ‘आधुनिक कवि विमर्श’ नामक इसी पुस्तक में अपनी विचारधारा के आलोक में आधुनिक काव्य के अग्रदूत अज्ञेय को अन-आधुनिक सिद्ध कर देते हैं। संतोष है कि दलित विमर्श के अतिवाद की समीक्षा करते हुए डॉ. पी.एन सिंह आत्मावलोकन के लिए मजबूर हुए और उन्होंने अपने साहित्यिक चिंतन पर विविध विचारों के प्रभाव को स्वीकार किया। किन्तु इतना निश्चित है कि अर्थ से पूर्व जाति को अधिमान देने के बावजूद अधिकांश उत्तर-आधुनिक विमर्शों और विशेषतया जाति-वर्ण-नस्ल आधारित विमर्शों का वैचारिक अतिविश्वास मार्क्सवादी दर्शन की प्रेरणा से ही आता है। जिस प्रकार उसी से हर समस्या के निदान का दंभ भरा गया और जिस तरह से प्राचीन को गला-सड़ा कहकर गर्हित साबित करने की कोशिश की गई तो उससे आगे की राह तो इसी ओर जानी थी। इसलिए डॉ. पी. एन. सिंह का दलित विमर्श को लेकर ‘असहमतियों को मुखर रखते हुए सहमतियों की जगहों की तलाश’24का सुझाव ठीक ही है, किन्तु यह केवल आज की आवश्यकता नहीं है। यह आवश्यकता पहले भी थी, आज भी है और सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक और भावनात्मक क्षेत्र में और इसलिए सृजन के क्षेत्र में भी हमेशा बनी रहेगी।
दलित विमर्श ने अर्थ आधारित दर्शन—ऐतिहासिक भौतिकवाद की सीमा को रेखांकित किया है। अतः यदि जाति को विमर्श का केंद्रबिंदु बनाया जाता है तो धर्म भी केन्द्र में आएगा। धर्म में आई विकृतियों पर प्रश्न-चिह्न लगाने में कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु आधुनिकता के नाम पर धर्म को विमर्श से बाहर कर देना और धर्मनिरपेक्षता को ‘मूल्य’ मान लेना अतीत से विमुख होना ही है। भारतीयता के सन्दर्भ में धर्मनिरपेक्षता मूल्य ही नहीं है तो फिर आधुनिक मूल्य कैसे हो सकता है? किसी भी मानवीय मूल्य का निर्धारण मानवीय विवेक और संवेदना से ही होगा, पारम्परिक शब्दावली में यह धर्म का क्षेत्र है। तथाकथित आधुनिक दर्शन के आलोक में अर्थ को केन्द्र में रख कर यदि विचार करें तो अर्थ के मूल में वणिक वृत्ति आती है। अर्थ का अर्जन, संग्रह अथवा दान (लोक-कल्याण हेतु) करना है, नहीं करना है अथवा कितना करना है, यह विवेक अथवा इस हेतु समुचित मार्गदर्शन के लिए हमें फिर धर्म के क्षेत्र में प्रवेश करना होता है। ‘शोषण से मुक्ति’ के लिए आपने संगठन का रास्ता चुना। संगठन और संरक्षण पारम्परिक दृष्टि से क्षत्रिय वृत्ति की माँग करता है। मान लीजिए आपके संकल्प मात्र से क्षत्रिय वृत्ति के शोषक लोगों को आपने ठिकाने ही लगा दिया। क्योंकि शोषक लोगों (सामंतों) का आपकी आदर्श व्यवस्था में कोई स्थान नहीं है। दूसरी ओर शोषितों को क्षत्रिय वृत्ति से संपन्न करके, संगठित करके संरक्षण की ज़िम्मेवारी दे दी, क्योंकि आप पुरानी शोषण पर आधारित व्यवस्था से संतुष्ट नहीं हैं। संरक्षण का विवेक कहाँ से आएगा, संरक्षक और भक्षक की वृत्ति में गुणात्मक अंतर ही होता है। ‘हाथ कंगन को आरसी क्या’—समकालीन भारत में राजनीति और भ्रष्टाचार का गठजोड़ अपनी कहानी आप कहता है। संरक्षण हेतु इन नव दलित-क्षत्रियों का प्रशिक्षण करना पड़ेगा, ताकि इन्हें सामंत बनने से रोका जा सके। क्या लोकतंत्र की स्थापना के बावजूद आप इस वृत्ति से पोषित लोगों को सामंत बनाने से रोक पाएँगे, या रोक पाए। इनके समुचित प्रशिक्षण के लिए आपको व्यवस्था करनी पड़ेगी। पारम्परिक शब्दावली में शिक्षण-प्रशिक्षण-मार्गदर्शन धर्म का ही कार्य है। नई व्यवस्था की स्थापना के लिए यह कार्य आपको करना पड़ेगा, आपको ब्राह्मण बनना ही पड़ेगा। व्यवस्था परिवर्तन, आमूल-चूल परिवर्तन, क्रांति के नारों में समुचित विवेकशीलता अर्थात् धर्म का अभाव है; बस एक स्वप्न-लोक का दर्शन है—‘सर्वहारा का अधिनायकत्व’। अवास्तविक लक्ष्य के बोध से परिमार्जन करते हुए सामाजिक लक्ष्य हुआ—‘समता’। अब इस ‘समता’- आर्थिक समता के लिए दान और संग्रह का संतुलन कैसे हासिल होगा, पहले संकेत किया जा चुका है। आर्थिक-सामाजिक मूल्य के रूप में ‘समता’ एक आदर्श है जिसके लिए लगातार प्रयास किए जाने चाहिएँ; किन्तु इस समता के लिए वणिक वृत्ति के लोगों का गला घोटेंगे? कितना कर लगाओगे? आर्थिक समता सामाजिक समता का एक घटक मात्र है। वास्तविक समता मनस् के धरातल पर घटित होती है, जिसे समदृष्टि कहते हैं। जिसका प्रतिबिम्ब सामाजिक समरसता और संतोष में दृष्टिगोचर होता है, होना चाहिए। इस सामाजिक समरसता को कभी राम-राज्य के नाम से अभिहित किया गया था। समझने की आवश्यकता है कि जो अपने स्वभाव से दो वक्त की रोटी में संतुष्ट हैं, वणिक से रोटी छीन कर उसके पेट में ज़बरदस्ती चार रोटी ठूँस दोगे? जिसने संसार को मायाजाल समझ कर संन्यास का व्रत ले लिया है, अन्तः साधना का संकल्प ले लिया है, वह न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति के लिए आपके द्वार पर भिक्षाटन करता हुआ आएगा तो क्या उसे दुत्कार दोगे?
अभिप्राय यही कि आपको लोगों को चुनने की स्वतंत्रता देनी ही होगी। वैयक्तिक स्वतंत्रता सर्वोत्तम मानव मूल्य है। आप लोगों को संगठित करके उनको एक लक्ष्य की ओर उन्मुख करके कदमताल नहीं करवा सकते। प्रत्येक व्यक्ति के लिए जीवन का अभिप्राय अलग-अलग है। मनुष्य वृत्ति से ही स्वतंत्रता का आकांक्षी है, उसके जीवन संकल्प उसकी अपनी वृत्ति से आते हैं; संकल्प के अनुरूप लक्ष्य को प्राप्त करने की स्वतंत्रता और उचित वातावरण की व्यवस्था शासकीय-धर्म का क्षेत्र है। इस व्यवस्थापन के लिए ज़िम्मेवार राजा, महाराजा, सामन्त अब नेता नाम से अभिहित होते हैं। इनका व्यक्तित्व और आचरण हमेशा ही आलोचना के घेरे में रहा है, रहना भी चाहिए। ‘राम’ राजा हैं किन्तु उनके आचरण में सामन्त कौन-से कोने से दीखता है? ऐसा राजा जिसने शासकीय धर्म निभाने के लिए अपनी व्यक्तिगत इच्छा और पारिवारिक सुख को सामाजिक कसौटियों—जो सामाजिक जटिलता के चलते कई बार अंध-विश्वासों, अन्ध-श्रधाओं, सामाजिक विकृतियों को यथार्थ मान लेने के कारण समाज द्वारा अपना ली जाती हैं, पर कस कर; राजा, प्रजा, परिवार और समाज के लिए मानव-मूल्यों के अनुरूप एक आदर्श प्रस्तुत किया। आज फिर ‘राम’ और ‘रामत्व’ उसी विकृत मानसिकता की कसौटी पर है। मानवीय धर्म और संस्कृति को कसौटी बनाया जाता तो बात समझ में आती। अपनी अस्मिता को एक अलग नाम—‘दलित अस्मिता’ का नाम देकर और संस्कृति को ‘दलित संस्कृति’ कह कर ‘हिन्दू संस्कृति’ को सभी तरह के शोषण की जननी बताकर क्या हासिल करने का प्रयास किया जा रहा है? सत्ता के अन्धे गलियारों में ‘जय भीम’ के साथ षड़्यंत्रपूर्वक ‘जय मीम’ जोड़ दिया गया है। ‘दलित ब्राह्मणों’ के अनुमोदन की प्रतीक्षा है। सचेत हो जाइए अन्यथा मध्यकालीन मानसिकता के गहरे अंधकूप में गिरकर-डूबकर ‘अस्मिता’ कहीं ढूँढ़े नहीं मिलेगी। और यदि डूब-मरने से बच गए, तैर कर पार करने का संस्कार, अनचाहे ही सही विद्यमान मिला तो उसी अंधकूप की अतल गहराई में ‘सनातन’ मिलेगा ही मिलेगा। क्योंकि सनातन आदि भी है, अन्त भी, अनंत भी और इसलिए आधुनिक भी, अद्यतन भी और समकालीन भी।
सामाजिक मूल्य के रूप में है, समता हेतु व्यक्तिगत और सामूहिक-सामाजिक प्रयासों की सतत आवश्यकता है। किन्तु क्रोध, आवेश, नकार, धिक्कार मानसिक-सामाजिक स्वास्थ्य के लक्षण नहीं हैं। इस मानसिक विकृति के समुचित उपचार की आवश्यकता है और इसका उपचार पश्चिम में नहीं मिलेगा, पूरे अमरीका और यूरोप में नहीं मिलेगा, पूर्व में ही मिलेगा और भारत में मिलेगा, भारतीयता (भारत-इयता) में मिलेगा; अपनी व्यक्तिगत, जातिगत, पंथगत, सम्प्रदायगत इयता को भारत-इयता के हवाले करने से मिलेगा। मुक्तिबोध की एक कविता है—‘जन-जन का चेहरा एक’। मुक्तिबोध राजनीतिक रूप से साम्यवादी दल के सदस्य रहे हैं, जिसका मूल विचार मार्क्सवादी दर्शन से आता है। उन्होंने साम्यवादी दल की प्राथमिकता सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया था। उनकी कविता- ‘आधुनिक कविता’ का एक अंश है:
एशिया के, यूरोप के, अमरीका के
भिन्न-भिन्न वास-स्थान;
भौगोलिक, ऐतिहासिक, बन्धनों के बावजूद;
सभी ओर हिन्दुस्तान, सभी ओर हिन्दुस्तान।
सभी ओर बहनें हैं, सभी ओर भाई हैं।
सभी ओर कन्हैया ने गायें चरायी हैं
जिन्दगी की मस्ती का अकुलाता भोर एक;
बंसी की धुन सभी ओर एक।
इस कन्हैया की बंसी की धुन की व्याप्ति वृन्दावन तक सीमित नहीं है; सभी ओर है, बल्कि सम्पूर्ण एशिया, यूरोप और अमरीका तक है और हमें भारत-भूमि में बैठ कर नहीं सुनाई दे रही है। मुक्तिबोध ने एक समय साम्यवादी दल को छोड़ दिया था, किन्तु उन्हें सामंतवाद का पोषक किसी ने भी नहीं कहा, अथवा कदाचित् इस आरोपण से पूर्व ही वे इस संसार को छोड़ कर चले गए। मुक्तिबोध के शब्दों से ध्वनित होता है कि कृष्ण केवल हिन्दुओं के नायक नहीं हैं, सम्पूर्ण भूगोल के नायक हैं और नायक इसलिए हैं क्योंकि वे राजा तो बाद में बने, उन्होंने बचपन में अपने नन्द बाबा की गायों को चराया है। वे गोपालक हैं; किसान-मजदूर-सर्वहारा के बिलकुल समकक्ष। राजा का दायित्व भी वहन किया, किन्तु नन्द, यशोधा और गोप-गोपियों को हमेशा स्मरण करते रहे। कालिन्दी के कछार को हमेशा स्मरण करते रहे। अब प्रजा की आकांक्षा-इच्छा और आधुनिक विमर्शों की विखंडन-वृत्ति का तो कोई अन्त है नहीं। आप कहेंगे कि याद तो करते रहे, किन्तु वापिस नहीं लौटे; जैसे आपके चुने हुए नेता अपने निर्वाचन क्षेत्र में नहीं पहुँचते, जब तक दूसरी बार चुनाव में ताल ठोकने का समय न आ जाए। और यह भी कि बंसी की धुन सुनने से पेट थोड़े ही भरता है! आदि-आदि। आलोचन-विलोचन, दृष्टि और परिप्रेक्ष्य पर ही निर्भर करता है और यदि केदारनाथ सिंह और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना शहरों में बैठकर अपनी कविताओं में गाँव की बात कर के किसान-मज़दूर और वृहद् सन्दर्भ में प्रगतिशील चेतना के अग्रदूत हो सकते हैं तो ‘कृष्ण’ सामंत और ‘शोषक’ कैसे? कोई प्रमाण तो देना पड़ेगा। यह भी समझ लेना चाहिए कि मनुस्मृति और पुराण भारतीय आदर्श का पूरी तरह से प्रतिनिधित्व नहीं करते। स्वामी दयानंद सरस्वती पुराणों को बहुत पहले नकार चुके हैं। उन ग्रंथों पर भी तत्कालीन सामाजिक यथार्थ का प्रभाव है और पुराणकारों की व्यक्तिगत समझ-बूझ और संस्कार-विकार की भी सीमा है। उन ग्रंथों की अन्वीक्षा-परीक्षा निषिद्ध नहीं है, किन्तु किसी के पास धैर्य है अन्वीक्षा-परीक्षा का? साहित्य गर्हित नहीं होता; आज लिखा जा रहा है, वह भी गर्हित नहीं है। आदर्श और यथार्थ में हर देशकाल में अंतर रहा है और रहेगा। कई बार यह खाई चौड़ी हो जाती है, तो विवेक इसमें है कि खाई को पाटा जाए। कब, क्या, कैसे हुआ विवेचन-विश्लेषण की माँग करता है। अब जब जाति विमर्श के केन्द्र में है तो धर्म को केन्द्र में आने से नहीं रोका जा सकेगा, रोका भी नहीं जाना चाहिए। ‘धर्मनिरपेक्षता’ की अवधारणा ने समाज को बरबस धर्म पर बात करने से रोका। एक अवास्तविक डर पैदा किया गया कि धर्म पर बात करोगे तो देश-समाज टूट जाएगा। देश टूटा भी किन्तु ‘धर्म’ के कारण नहीं बल्कि विदेशी, अर्थ केन्द्रित, मध्यकालीन और सनातन विरोधी मानसिकता के गठजोड़ से। उसके बाद भी चेतना नहीं आई।
किसी की हताशा-निराशा-उन्माद का समुचित समाधान तो आत्मावलोकन में ही है—अन्तःसाधना में ही है। और अन्तःसाधना का प्रतिफल संत तुका राम के जीवन के प्रसंग से समझा जा सकता है। उसके लिए वेद-पुराण-उपनिषद् पढ़ने की भी आवश्यकता नहीं; संस्कृत भाषा सीखने की भी आवश्यकता नहीं; क्योंकि संस्कृत सीखने के सुझाव में भी सामंतवाद थोपने की आशंका अथवा षड़्यंत्र दिखाई पढ़ सकता है। प्रसंग भी आप सभी को पता है—एक कुत्ता जब संत तुकाराम की झोंपड़ी से रोटी चुरा लेता है तो वे अपनी सम्यक् दृष्टि के वशीभूत, घी का डिब्बा हाथों में लेकर कुत्ते के पीछे भागते हैं कि प्रभु रुको रोटी रूखी है थोड़ा घी चुपड़ दूँ! फिर जोड़ दूँ, विखंडनवाद की तो कोई सीमा है नहीं। आप पूछ सकते हो कि गरीब ब्राह्मण की झोंपड़ी में घी कहाँ से आया? या कि यह घटना भी कपोल-कल्पित है या कि यह भी ब्राह्मणों का षड़्यंत्र है। किन्तु यदि आपकी मानसिकता पूरी तरह विकृत नहीं हुई है तो ‘समता’ का वास्तविक भाव तो अन्तःसाधना की ही उपलब्धि है; आत्मोपलब्धि है, जिसका व्यावहारिक रूप ही ‘धर्म’ है। ‘सनातन’ विचार का सर्वोच्च शिखर यही है, जहाँ जीव-मात्र में प्रभु के दर्शन होते हैं। सामान्य सामाजिक इसी तरह की घटना पर कुत्ते के पीछे लाठी लेकर दौड़ेगा तो उसके लिए दोष संत तुकाराम का नहीं, उस व्यक्ति का है, किन्तु हम संत तुकाराम पर उँगली कर रहे हैं।
अस्तु, सामाजिक स्तर पर बहुत सी विकृतियाँ-विषमताएँ अतीत में भी रही हैं, वर्तमान में भी हैं और भविष्य में भी रहेंगी। इन विषमताओं से जूझना और सामाजिक समता के लिए सतत प्रयत्न ही तो साहित्य का लक्ष्य है। धिक्कार-प्रतिकार, कुंठा, निराशा, हताशा की अभिव्यक्ति आधुनिक साहित्यिक सृजन में यथार्थ के नाम पर मान्य हो गई हैं, किन्तु अतीत और वर्तमान को एक ही साँस में गर्हित कह कर नकारना साहित्य नहीं है। और समीक्षक से तो और अधिक प्रौढ़ता की अपेक्षा होती है, नहीं तो समकालीन मानव मूल्यों की स्थापना के लिए क्या पश्चिम के किसी चिन्तक को कार्य सौंपना पड़ेगा? बड़ी बात यह कि ‘कुत्ते’ को ‘प्रभु’ कहने में किसी को ‘ईश-निन्दा’ नहीं दिखाई पड़ती। इससे अधिक स्वतंत्रता कहाँ मिलेगी? आप ‘धर्मनिरपेक्षता’ को मूल्य मानते हो और ‘आधुनिक मूल्य’ भी। धर्म को ख़ारिज करके आप मानव मूल्यों को ख़ारिज करते हो और दावा करते हो ‘क्रांति’ और ‘समता’ का। ‘धर्म’ को सिरे से ख़ारिज नहीं किया जा सकता वरन् लोकतंत्र को जाति-तंत्र के रूप में परिवर्तित होने से बचाने के लिए कोई सूत्र नहीं मिल सकते। मार्क्सवादियों के तमाम प्रयासों के बावजूद अर्थ की अपेक्षा जाति विमर्श के केन्द्र में आई है, तो धर्म भी विमर्श के केन्द्र में आ ही गया। ‘दलित अमर्ष’ वास्तव में ‘दलित विमर्श’ में भी बदलेगा और व्यापक सामाजिक विमर्श में भी; किन्तु जब खुल कर बात होगी, बिना किसी आग्रह के। ‘किसी भी समस्या अथवा स्थिति को एक कोण से न देखकर भिन्न मानसिकताओं, दृष्टियों, संस्कारों और वैचारिक प्रतिबद्धताओं का समाहार करते हुए समग्रता में समझने की कोशिश करना और फिर मानवीय सन्दर्भों में निष्कर्ष प्राप्ति की चेष्टा करना’ पारिभाषिक शब्दावली में विमर्श कहलाता है। सामाजिक-सांस्कृतिक विकास और विमर्श की कोई भी योजना विकृति से निरापद नहीं हो सकती। समय-समय पर इन विकृतियों पर सम्यक् मानवीय आदर्श के आलोक में विचार कर आगे बढ़ना होता है। यही प्रगतिशीलता है और इसी पद्धति से सनातन-मानवीय विचार की भी प्रतिष्ठा होती है। प्रगतिशीलता मार्क्सवादी विचार की बपौती नहीं है, क्योंकि अर्थ आधारित विचार में सभी प्रकार की सामाजिक विसंगतियों को संगति में लाने का माद्दा नहीं है।
भारतीय विचार परम्परा में मानव-संस्कृति की सबसे बड़ी उपलब्धि है ‘ब्रह्म’। किन्तु समकालीन विमर्श में यह शब्द ब्राह्मणों द्वार बुने गए मायाजाल का द्योतक बन गया है, क्योंकि ब्रह्म-तत्त्व की उपलब्धि हेतु जिस सात्विकता, अनुशासन और धैर्य जैसे गुणों की आवश्यकता है, वह जातीय ब्राह्मणों में भी दूर-दूर तक दृष्टिगोचर नहीं होते। इसलिए ब्रह्मनिष्ठ ऋषियों की उपलब्धि भी अविश्वसनीय, झूठ का पुलिंदा और भेद-भाव पूर्ण जातीय व्यवस्था को बनाए रखने की सोची समझी दुरभिसंधि ही प्रतीत होगी। सनातन का विचार हर प्रकार के विमर्श को खुला आसमान देता है और जमीन भी। और यह ज़मीन किसी भौगोलिक-सामाजिक-राजनीतिक-साम्प्रदायिक सीमा में आबद्ध नहीं है—सम्पूर्ण वसुधा है। शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय, ब्राह्मण उत्तरोत्तर जातीय शुचिता के अर्थबोधक शब्द नहीं हैं, बल्कि आत्मविकास के विशुद्ध मनोवैज्ञानिक पड़ाव हैं। सामाजिक दृष्टि से जाति से पूर्व ‘गोत्र’ का भी अस्तित्व है। हर गोत्र एक ऋषि की परंपरा में आता है अथवा एक ऋषि परिवार है। हर गोत्र में सभी जातियाँ विद्यमान हैं। ऋषियों ने अपनी संतानों से भेदभाव हेतु तो जातियाँ बनाई नहीं होगी। यह कर्म विभाजन ही है जो किसी कालखंड में दूषण का शिकार हो गया। भारतीय ज्योतिष-शास्त्र में गुणों की अवधारणा के अंतर्गत वर्ण-विभाजन प्रचलित नामोल्लेख के साथ यथावत् शामिल है। शूद्र वर्ण में जन्म लेने वाले लोग अधिकांशतः अभियांत्रिकी, सेवा और तकनीक के क्षेत्र में अपने समर्पण और कौशल से न केवल राष्ट्र के विकास में अपना योगदान देते हैं बल्कि स्वयं भी समृद्ध जीवन जीते हैं। अतः शूद्र किसी भी प्रकार से ‘हीनता’ का द्योतक शब्द नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि भारतीय परम्परा के इस शास्त्र में विद्यमान गुणों की अवधारणा और विशेषतया वर्ण की अवधारणा का आधुनिक मनोविज्ञान और समाजशास्त्र के आलोक में शोध-अध्ययन किया जाए। कदाचित् यह अध्ययन हमारी वर्ण और जाति की समझ में आमूल-चूल परिवर्तन कर समतामूलक समाज का आधार और समृद्धि का कारण बने। आशंका और आरोपण समाधान नहीं है।
वर्ण का शाब्दिक अर्थ भी जाति नहीं। वर्ण का जातिसूचक शब्द के रूप में प्रयोग कोई साधारण घटना नहीं है। जाति के नाम पर अस्पृश्यता मानवीय मूल्य नहीं है, और इसलिए ‘सनातन मूल्य’ भी कैसे हो सकता है? अमर्ष से विमर्श की ओर बढ़ना ही विकल्प है। एक अंगरेजी कहावत है- ‘Charity begins at home.’ अब इसका अर्थ भी हमने कर दिया—‘अँधा बांटे रेवड़ी मुड़-मुड़ अपने को दे’—प्रबल स्वार्थ और भ्रष्टाचरण के अर्थ में। है न समकालीन दृष्टि का प्रभाव। वास्तविक अर्थ तो मेरी समझ में यह होना चाहिए कि अच्छे कार्य का प्रारम्भ अपने घर से होना चाहिए। यदि हम समाज में कुछ सकारात्मक परिवर्तन करना चाहते हैं तो इस परिवर्तन के प्रयास भी हमारे घर से प्रारंभ होने चाहिएँ। समकालीन दृष्टि के प्रभाव से कविवर दुष्यंत भी नहीं बच पाए जब वे कहते हैं- “मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।” आग जलने के प्रश्न पर विकल्प की गुंजाइश नहीं है, हो ही नहीं सकती। कबीर ने भी मुराड़ा अपने हाथ में लेकर अपने-अपने घर फूँकने का आवाहन किया था, पड़ोसी का घर नहीं। इसलिए आग ‘मेरे’ सीने में ही जलनी चाहिए। ‘तेरे’ सीने में जली तो मुझे अलाव ताप कर कम्बल ओढ़कर सोने का अवकाश मिल गया, कल सुबह उठकर धर्म और समाज को कोसने का, समकालीन विमर्श पर कागज़ काले करने का!
सन्दर्भ:
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भाषा: वर्ष-41, अंक : 4, पृ. 32
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सृजन संवाद: 21वीं सदी, अंक-6, सितम्बर 2006, पृ. 20
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वही, पृ. 202
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वही
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विस्तार के लिए देखें- ‘समकालीन विमर्श: मुद्दे और बहस’, सं. रवि कुमार गोंड़ में जयप्रकाश कर्दम का आलेख- ‘समकालीन हिंदी कविता और दलित चेतना’
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‘समकालीन विमर्श: मुद्दे और बहस’, सं. रवि कुमार गोंड़, पृ. 224
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सृजन संवाद: 21 वीं सदी, अंक-6, सितम्बर 2006, पृ. 203
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वही, पृ. 25
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वही, पृ. 21
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वही, पृ. 22
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वही, पृ. 209
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वही, पृ. 209
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वही, पृ. 86
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वही, पृ. 86
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वही, पृ. 215
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वही, पृ. 86
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वही, पृ. 205
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वही
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वही
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वही
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वही
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वही पृ.17
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आधुनिक कवि विमर्श : धनञ्जय वर्मा, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पृ.18
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सृजन संवाद: 21 वीं सदी,अंक-6, सितम्बर 2006, पृ. 205
राजेन्द्र वर्मा, ग्राम मंझोल, पत्रालय क्यारीघाट, तह. कंडाघाट, ज़िला सोलन, (हि.प्र.)
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