रविवार की छुट्टी

01-02-2025

रविवार की छुट्टी

पूनम कासलीवाल (अंक: 270, फरवरी प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

देर रात सब काम निबटा कर लेटने लगी तो याद आया राजमा भिगोना भूल गयी। अँधेरे में टटोलते हुए उठी, कहीं आलोक की नींद ना ख़राब हो जाए। अपने ही घर में दबे पाँव आँखों को एड्जेस्ट-सी करती रसोई में पहुँची। चोरों की तरह बिना आवाज़ अलमारी खोल, राजमा का डब्बा निकला और चार कटोरी राजमा भिगो दिए, तब जा कर तसल्ली हुई। रविवार और राजमा बरसों से चला आ रहा एक नियम सा बन गया था। घर में सबको आदत पड़ गई थी। 

अंधरे में फिर से टटोलती सी वापस लौटी, घुटना पलंग से टकराया तो दाँतों को भींच घुटी-घुटी सी चीख के साथ ख़ुद को कोसा, “दिखायी नहीं देता क्या?” 

“पर दिखता कैसे?”

“पर अंदाज़ा तो होना चाहिए था न, रोज़ यहीं सोती हो।” 

चुपचाप होंठ भींचती धीरे से पलंग पर लुढ़क सोने की कोशिश करने लगी। कोई बात नहीं ऐसा तो रोज़ ही हो जाता है। कभी रोटी पलटते उँगलियाँ सिंक जाती हैं तो कभी सब्ज़ी काटते हल्का-फुल्का सा कट। उँगली चूसते हुए, बिना चूँ-चा किए काम उसी तत्परता और तेज़ी से चलता रहता है। मानो रुक गई तो बाक़ी सारे कामों का ट्रैफ़िक जाम हो जाएगा। किसी को बताए तो सहानभूति की बजाय मज़ाक़ ही बनेगा। 

अगली सुबह उठना मुश्किल लगा, घुटना टीस मार रहा था। पर आज तो उठने में बिल्कुल भी देर नहीं कर सकती। रविवार तो बाक़ी दिनों से ज़्यादा बिज़ी होता है। आज तो कामवाली भी छुट्टी पर है। किसी तरह घसीटती सी उठी। घर के काम-काज में उलझी अपने दर्द को भूल सबकी पसंद का नाश्ता और खाना बना जब दोपहर को खड़ा होना मुश्किल लगा तो “मूव” लगाई। कुछ आराम मिला तो सूखते कपड़े समेटते हुए दिमाग़ में रात का मेन्यू और कल सुबह टिफ़िन में क्या बनाना है यह घूमने लगा। अलमारी में कपड़े रखते हुए पल भर को किवाड़ का पल्ला पकड़ ख़ुद को सम्भालती सी वह खड़ी हो गयी। 

ज़िंदगी रसोई से रसोई तक सिमट कर रह गयी। इसकी–उसकी पसंद, बजट में घर चलाना इन सबके बीच उसका अपना मन और तन दोनों उससे कितने दूर हो गए हैं। 

बच्चे शाम को नीचे से खेल कर लौटे। 

“माँ आज मेरा पास्ता बना देना।” 

“आज चाय मिलेगी?” 

“साथ में थोड़े पकौड़े बना लेना, मन कर रहा है।” 

“कल टिफ़िन में ब्रेड रोल देना।” 

“मेरे लिए तो सिंपल रोटी और सब्ज़ी रख देना और हाँ दो-चार आलू के पराँठे, वह रमेश कह रहा था, बहुत दिनों से भाभी जी के हाथ के पराँठे नहीं खाए।” 

अपने टीसते घुटने पर हाथ रखते वह सोफ़े पर बैठ गयी और दोनों पैर मेज़ पर रख लिए। 

“आज मेरी रविवार की छुट्टी है” . . .

(उसके बाद क्या हुआ आप ही अंदाज़ा लगाइए) 

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