पृथ्वी की पुकार

15-12-2021

पृथ्वी की पुकार

अशोक रंगा (अंक: 195, दिसंबर द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

मेरी गोद में पलते हो
मेरी गोद में ही समा जाते हो
सब कुछ देती हूँ
जीवनयापन के लिए
पर दुःख होता है जब 
पेड़ों को काट-काट कर
मेरा पेड़ रूपी शृंगार 
मुझसे छीनते हो
पहाड़ों को काट-काट कर 
मुझे घायल करते हो 
 
दुःख होता है जब 
मेरी छाती पर बारूद 
अणु-परमाणु बम्ब फोड़ते हो
दुःख होता है
जब सीमाओं की विस्तारवादी और 
ग़लत आर्थिक नीतियों ख़ातिर
निर्दोष सैनिकों का लहू बहाते हो 
 
हाँ फिर भी सहन करती हूँ
माँ जो हूँ
 
मैं नहीं चाहती सुनामी आए 
भूकम्प आए
मगर प्रकृति के विरुद्ध चलने पर
मैं भी विवश हूँ 
इन सब को रोकने के लिए
 
मैं चाहती हूँ चारों तरफ़ 
हरियाली हो ख़ुशहाली हो
विरानी नहीं

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