फूल की चाह

01-10-2022

फूल की चाह

डॉ. सुरभि दत्त  (अंक: 214, अक्टूबर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

सूरज की नरम धूप, शरीर को छू कर बहती शीतल हवा, डालियों के झूले पर झूमते कुछ हल्के, कुछ गहरे हरे पत्ते, केसरी, लाल सफ़ेद और गुलाबी फूल सभी कितना मनभावन है। टहलते हुए साथ में चलता हरि ओम शरण का भजन सर्वस्व ले लो . . .। सच में मन यही कामना कर रहा है कि प्रभु मेरा सर्वस्व ले लो प्रकृति में रमी अपनी इस अद्भुत छटा को आँखों में रहने दो यही वरदान मुझे दे दो। 

सुबह टहलना बैंच पर बैठ नैसर्गिक सौंदर्य को निहारना कितनी शान्ति देता है! प्रायः मेरा सुबह का नियम भंग होता रहता है परन्तु ईश्वर रचना नियम भंग नहीं होता। अपने समय से सूरज उगता है, फूल खिलता है, चाँद चमकता है। हवाओं की संगीत लहरी के बीच मुस्कुराते फूल जब तितली भँवरों को आकर्षित करते हैं तब मैं कैसे बच सकती हूँ! सुबह की सुनहरी किरणों में फूलों का निखरा रूप मन मोह लेता है, इन्हें तोड़ घर के मंदिर में विराज रहे गणपति जी, माँ दुर्गा, शारदा, कृष्ण और राम; सभी के चरणों में अर्पित कर, इनसे उनका सिंगार करके लगता है पूजा प्रार्थन पूर्ण हुई। फूलों से सुशोभित आराध्यों को एकटक निहारती रहती हूँ। 

अपार्टमेंट के चारों तरफ़ वाकिंग ट्रैक के एक ओर बने वॉचमैन सीनू के छोटे मगर प्यारे से घर के सामने तुलसी का रंगोली से सजा वृंदावन है और गहरे लाल जपाकुसुम का पौधा जो मुझे ललचाता रहता है। फ़्लैट में रहने के कारण घर की बालकनी में खाद-पानी के बाद भी और हर सम्भव दूसरे तरीक़े अपनाने के बाद भी जपाकुसुम ने खिलने से इंकार कर दिया। तुलसी जी की कृपा अवश्य बनी हुई है। पानी से आधी भरी परात में छह सात फूलों को देख सीनू की कॉलेज की पढ़ाई कर रही बेटी सुलेखा से एक माँगने पर दो मिले। उसकी कृपा से दुर्गा माँ और गणपति जी के चरणों में अर्पित कर दिये। तीसरे दिन पौधे पर फिर दृष्टि गई, चबूतरे पर बैठ चावल धो रही सीनू की माँ को देख, मेरे तेज़ चलते क़दम थम गए। मैंने इशारे से पूछा क्या एक मिल सकता है? उसने मुस्कान के साथ सिर हिलाया। मेरी बाँछें खिल गईं और एक पूरा खिला जपाकुसुम हाथों में खिल गया। आकस्मिक आ पहुँचे अनिवार्य कारणों से चार-पाँच दिन तक अपार्टमेंट की प्रदक्षिणाएँ नहीं कर सकी। अवसर मिलते ही भ्रमण के लिये नीचे पहुँच गई। सूर्य देव भी आ चुके थे उन्हें नमस्कार कर, निर्धारित चक्कर प्रारंभ किये। आधे चक्कर के बाद राम धुन के साथ चलते क़दम पौधे के सामने पहुँचे, सीनू की बीवी चाय के घूँट ले रही थी। पहले दो अनुभव अच्छे रहे इसलिए पूरे विश्वास के साथ कहा, “लीना एक जपाकुसुम!” अप्रत्याशित रूप से उसने पूरे ना में सिर हिला दिया। उसकी चाय छलकते-छलकते रह गई और मेरा मन मुरझा गया। फूल मिलने से नहीं उसकी रूखाई के कारण। 

इस घटना के बाद से जपाकुसुम पर दृष्टि जाती है और हटा लेती हूँ, यही सोच कर की लालच बुरी बला है और जो तुम्हारा नहीं उस पर दृष्टि भी नहीं रखना। अपार्टमेंट की उर्वरा ख़ाली भूमि में भरपूर खिल रहे चाँदनी और लाल गुलाबी कनेर के फूलों को थैली में भर लौट आती हूँ। अपार्टमेंट के कुछ परिवारों के मंदिरों की भी यही शोभा बढ़ाते हैं। 

पाँच फूल अपने साथ रखी छोटी थैली में डाल मेरा मन कहाँ संतुष्ट हुआ है? ऐसे ही एक दिन फूल तोड़ने बढ़े अपने हाथों को रोका और सोचा कितने फूल! इसका तो कोई अंत ही नहीं है। मंदिर में विराज रहे आराध्य क्या सच में इसी से संतुष्ट और प्रसन्न होते हैं? दीप प्रज्ज्वलित करने से पहले सूख चुके फूलों को हटा ताज़े फूलों से देवालय सजाने की दिनचर्या में कुछ दिन पूर्व अचानक कष्ट सा हुआ कि कैसे आपनी जड़ों से जुड़े कई दिन खिले रहकर सौंदर्य बढ़ाते फूल एक दिन में ही देखो मुरझा जाते हैं। विचार आया, क्यों ना सुंदर कोर वाली प्लेट में पानी रख इन फूलों को प्रतिमाओं के समक्ष रख दूँ जिससे अधिक दिन तक ताज़ा रहें और रोज़ फूल तोड़ने की ग्लानि से भी बच जाऊँ। इस उपाय से मन प्रसन्न है। 

आज सुबह की सैर करते समय क़दम चल रहे थे और मन झूमते फूलों को देख कर आनन्दित हो रहा था। श्वेत पुष्प पौधे पर ही नहीं ज़मीन पर भी चाँदनी बिखेर रहे थे। मन में एक बार पुन: उथल-पुथल मची। सुगंधिम् पुष्टिवर्धनम् . . . मंत्र कानों में गूँज रहा था। फूल जिन्होंने पूरा जीवन जिया ही नहीं हम उन्हें तोड़ लेते हैं और स्वयं ईश्वर से पूर्ण आयु की प्रार्थना करते हैं। बिखरे फूल लगा जैसे मुझसे कह रहे हों, सारी सृष्टि ईश्वर की है। ईश्वर सृष्टि में रमा हुआ है। तुम हमें क्या प्रभु चरणों में चढ़ाओगी; हम तो स्वतः ही ईश्वर चरणों में स्वयं को चढ़ा देते हैं। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें