फागुनी दोहे
मणि बेन द्विवेदीआँधी उड़ी गुलाल की, भीगा फागुन रँग!
नर नारी मदमस्त हुए, ख़ूब चढ़ाये भंग!!
रँग बसंती रंग में, मनवा हुआ विभोर!
मादकता ले उड़ चली, हवा बही चहुँ ओर!!
मन हुलसे तन रँग गए, सुन्दर ऋतु बसंत!
आँधी उड़ी गुलाल की, भूल गए सब पॅंथ!!
ढोल मँजीरे बज रहे, और बजे करतार!
माँदर वाली थाप पर, थिरकत हैं नर नार!!
होली के हुड़दंग में, फगुआ करे धमाल!
चौराहे पर खड़ा हैं, बाबा लिए गुलाल!!
कबीरा कहें बसंत की, महिमा बड़ी अनंत!
सब बौराये फागुन में क्या साधू क्या संत!!
ले पिचकारी हाथ में, रंग अबीर गुलाल!
नर नारी निकले घर से, मचा दिया धमाल!!
गोरी पर भी चढ़ गया, ऋतु बासंती रंग!
मदमस्ती में डूब कर, चहके सजना संग!!
बीवी की बोली लगे, जैसे काँट बबूल!
जीयरा में सली बसे, बन जूही का फूल॥
रंगों की बरखा हुई, आँधी उड़े अबीर!
फागुन में सब मस्त हुए, बुढ़ऊ हुए अधीर!!
फागुन मासे खिल गए, टेसू और पलाश!
गदराया यौवन कहे, पिया मिलन की आस!!