मज़दूर की नियति
मणि बेन द्विवेदीहर पल चहकने वाला बुधना आज बहुत ही सुस्त उदास और चुप बैठा था। एक तगाड़ी गारा दे कर आता कुछ देर बैठता फिर दो घूॅंट पानी पीता और पुनः गारे की तगाड़ी सर पर उठा मिस्त्री को पकड़ाने चल देता।
उसकी व्यथा को रमेश महसूस कर पा रहा था।
“क्या बात है बुधन आज तुम्हारी तबियत ठीक तो है?” बुधन की स्थिति देख कर रमेश ने पूछ ही लिया।
“आ हाँ हाँ कुछ ख़ास नहीं बस थोड़ा मन भारी भारी लग रहा,” बुधन ने अनमने ढॅंग से कह दिया।
परन्तु बुधन की लाल चढ़ी हुई आँखें सूखे होंठ और लड़खड़ाते हुए क़दम यानी उसकी शारीरिक स्थिति बता रही थी कि वह सख़्त बीमार है।
रमेश ने बुधन का सर छू कर देखा तो उसका सर तेज़ बुखार से तप रहा था।
“भाई तुम्हें तो काफ़ी तेज़ बुख़ार है और तुम कहते हो कुछ ख़ास नहीं,” इतना कह कर रमेश ने उसके हाथ से गारे की तगाड़ी छीन ली।
“नहीं भाई नहीं; अगर एक दिन भी नागा करूँगा मुझे दीपावली का बोनस नहीं दिया जायेगा,” बुधन ने अपनी मजबूरी जताई, “और घर में खाने का दो जून का आटा चावल भी नहीं।”
“पर . . . ”
“कुछ नहीं सब ठीक हो जायेगा। हम मज़दूर की नियति यही है, आराम कहाँ हमारे नसीब में? अपने परिवार और बच्चों की ख़ुशी के आगे मुझे अपनी परेशानी कुछ भी नहीं लग रही। मैं नागा नहीं कर सकता मेरे दोस्त। मुझे अपने कष्टों से ज़्यादा अपने परिवार की ख़ुशी प्यारी है।”
ऐसा कह कर बुधन ने पुनः गारे की तगाड़ी सर पर उठा ली।