पाती पिया की अपनी प्रिया को

15-12-2024

पाती पिया की अपनी प्रिया को

डॉ. शैली जग्गी (अंक: 267, दिसंबर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

कितनी आसानी से कह जाती हो तुम स्त्रियाँ! 
कि कितना कुछ सहती हो, सीमाओं में बँध जाती हो। 
 
हर रिश्ते में तुम घुलती हो, पैमाने में ढल जाती हो। 
कोई घाव जो पीड़ा देता है, तुम आँसुओं से रो देती हो
 
जी का ग़ुबार निकाल पति पर, लंबी तान कर सोती हो! 
कोई दिन या पर्व भूल जाऊँ तो, तुम रौद्र रूप धर लेती हो। 
 
मैं पहले जैसा नहीं रहा, . . . दिन उलाहनों से भर देती हो! 
लेकिन ऐसा क्यों हूँ मैं, कहाँ इसका शोध तुम करती हो॥
 
—आओ प्रिया! 
चलें तुकांत से अतुकांत पर! 
जो अनंत-अनुभूत है वह सीमाओं में न रह पाएगा, 
शायद ऐसे न कहा जाएगा . . .
 
तुम सोचती होगी मैं ऐसा क्यों हूँ? 
क्या ऐसा ही धरती पर आया था! 
इस पुरुष प्रधान समाज की—
धज्जियाँ उड़ाती
मानसिकता के पीछे भी—
कुछ टटोला कभी! 
 
पुत्र-रत्न की प्राप्ति के साथ
‘ख़ुशियों की पिटारी’ के आवरण के नीचे
कहीं बहुत पीछे—
रखी होती है . . . 
ज़िम्मेदारियों की एक फ़ेहरिस्त, 
एक लंबी लिस्ट! 
 
जहाँ बचपन से ही बताया जाता है कि—
तुम्हें ही होश सँभालते, 
सबको सँभालना होगा! 
 
शिक्षा! योग्यता के साथ-साथ—
विवशता भी हो जाती है कि—
जीविकोपार्जन, रोज़ी-रोटी के लिए—
बेटे-पति-पिता-भाई का ही पहला फ़र्ज़ है। 
पत्नी-बहन-बेटी-माँ तो पूरक बनेंगी, 
लेकिन बेटा! 
बरकत तेरी ही कमाई की होगी। 
 
घर का मुखिया कहकर एक उत्तरदायित्व की बोरी—
लाद दी जाती है पीठ पर! 
बिना देखे कि—
अभी मेरे कंधे और पीठ . . . 
तैयार भी हुए कि नहीं! 
 
बहन के रक्षा-सूत्र के साथ ही उसको अच्छा घर-वर दिलाने का दायित्व! 
 . . . और . . . और एक डर हमेशा—
मन में रहता है कि क्या? 
उसको कुछ अच्छा दे पाऊँगा! 
 
और नौकरी या कारोबार जमते ही—
मेरे लिए लड़की ढूँढ़ने की क़वायद शुरू! 
 . . . और फिर—
मेरी अर्द्धांगिनी! 
मन में अनेकों सपने सँजोए हुए—
करती है प्रवेश मेरे मन के द्वार से! 
 
जो जल्द ही हो जाती है मायूस . . . 
कि मैं चलचित्र और कहानियों सा—
पति नहीं! 
कैसे ले आऊँ झूठी मुस्कान चेहरे पर! 
 . . . जो कंपनी के मंथली टारगेट्स और 
अधिकारियों की मियादी धमकियों संग—
हर पल साँसों में घुलती है! 
 
नित बढ़ती महँगाई में, 
स्थिर वेतन के साथ—
घर का बजट सँभालते . . . 
मैं ख़ुद भीतर लड़खड़ा जाता हूँ! 
इसलिए तुम्हारे मुस्कुराने पर
एक अधूरी रेखा सा खींचता—
होंठों को फिर से समेट लेता हूँ! 
 
बाहर की समस्याएँ तुमसे साझा न करता, 
तुम्हारी दिन भर की पटर-पटर
(बुरा ना मानना) 
सुनने की कोशिश करता हूँ। 
 
माँ-बाबा को लगता है बेटा हाथ से निकल गया! 
तब वे . . . बहन यानी बेटी से उम्मीदें लगाने लगते हैं। 
मुझे तिरस्कृत करता समाज! 
क्यों याद नहीं रख पाता कि! 
 
घर-विवाह के बाद ही क्यों बँटता है? 
किसी घर की बेटी! 
पत्नी और बहू बनकर—
क्योंअलगाव और बँटवारे पर उतर आती है! 
 
“बेटों को संस्कार और नारी-सम्मान की सीख” 
बचपन से दो के जुमले और विचार रखने वाले—
बेटियों को बहू-बेटियाँ बनना भी तो सिखाएँ! 
 
माँ से ग़लती पर थप्पड़ खाकर—
भूल जाने वाली बेटी! 
सास की उम्रदराज़ी की मजबूरी को समझे बिना, 
एक झिड़की पर मायके जाने के लिए क्यों उतारू हो जाती है! 
 (चलो छोड़ता हूँ इस प्रश्न को, नहीं तो बिफर जाओगी) 
 
दोस्तों बीच ठहाके लगाता हूँ, 
तुम्हारे साथ क्यों नहीं खिलखिलाता! 
पगली, तुम तो आईना हो मेरा! 
आईने से झूठ कैसे बोलूँगा? 
 
अभिनय मंच पर होता है प्रिये! 
तुम्हें मुस्कुराते-लहराते देखता हूँ तो, 
उन्हीं क्षणों को स्थिर कर लेता हूँ-
दिल के फ़्रेम में! 
 
और . . . कुछ भूलने से तुम्हारे और परिवार के प्रति
मेरा लगाव कम नहीं हो जाता! 
क्योंकि जानता हूँ, कि तुम हो ना! 
मेरे मकान को घर बनाने वाली! 
 
मेरी बेफ़िक्री को तरतीब देने वाली, 
मेरी हर ज़रूरत का ख़्याल रखने वाली! 
 . . . और मेरे बिखराव हो हमेशा . . . 
 सलीक़े से सजाने वाली! 
आज इतना ही शेष फिर . . . 
 
तुम्हारा कुछ
नासमझ सा हमसफ़र! 

-डॉ शैली जग्गी
अमृतसर पंजाब (भारत) 

2 टिप्पणियाँ

  • 19 Dec, 2024 04:56 PM

    I read your poem and after reading it I felt very good and you have written it very well It is a great guide for today's society and we should think deeply about it. It is an inspiration and motivates us in our lives. Arjun kumar Malhotra Ismilganj near new high court vibhuti khand gimti nagar Lucknow uttar pradesh

  • डॉ शैली जग्गी की काव्य रचना 'पाती पिया की अपने प्रिया को' यथार्थ को बयां करती है। इसमें पुरुष को उन्होंने उसकी मन;स्थिति और कटु यथार्थ नजरिये से देखने का प्रयास किया है जो अद्भुत और साहसिक दृष्टि है। यत्र सच है कि स्त्री विमर्श की चर्चा जोरों पर है। जहाँ पुरुष प्रधान समाज में केवल को स्त्री शोषित पीड़ित मान लिया जाता है। परंतु डॉ शैली ने समकालीन संदर्भ में पुरुष की द्वन्द्वात्मक स्थिति का जितनी बेबाकी से सामने रखा है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।

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