बिंदास
डॉ. शैली जग्गी
“आज तुम फिर देरी से आई हो, ना तुम फोन उठाती हो ना बता कर छुट्टी करती हो। तुम्हारी वजह से आज मुझे कॉलेज से हाफ़-डे लेना पड़ा।”
“दीदी मेरा मरद मुआ फिर रात को पीकर आ गया था, मेरे से हाथा-पाई भी की। यह देखो,” कहकर कमला ने अपनी बाँह पर पड़ी खरोंच दिखाई और झाड़ू उठाकर कमरे में सफ़ाई के लिए चली गई। मैं भी कुछ कह न सकी। सच कह रही थी बेचारी। घर का सारा ख़र्च वह ही उठाती है और पति गाहे-बगाहे उससे रुपए छीनकर पीने चला जाता है। लेकिन यह तो इस वर्ग के अधिकांश घरों की कहानी है। मेरे कॉलेज जाने का टाइम हो रहा था सो उसे कुछ ज़रूरी निर्देश दे मैं कार में बैठ गयी।
कोरोना के दिनों में वह मुझे श्रमिक दिवस के दिन मिली थी, क्योंकि कोई भी उससे काम करवाने को राज़ी नहीं था। मेरे पति डॉक्टर थे सो उन्हें लॉक डाउन में कोई अवकाश नहीं। डेढ़ महीने से मैं अकेली घर के काम, ऑनलाइन क्लासिस और बेटे की होमवर्क असाइनमेंट करवाते, पहले ही अपनी क़िस्मत को कोस रही थी; कि एक दिन उसने दरवाज़े पर दस्तक देकर काम माँगा। साँवले से कुछ गहरा रंग और एक गठे शरीर वाली पचपन से ऊपर की अनजान महिला को देखकर इंकार कर दरवाज़ा बंद करने को हुई, तो उसके पीछे खड़ी मेरी पुरानी घरेलू सहायिका ने मास्क उतार कर कहा, “दीदी मेरी ताई हैं, इनका काम छूट गया है। अकेले आप के यहाँ ही काम करेंगी।” सो उसके घर का पता पूछ कर पूरी तसल्ली कर, स्वास्थ्य संबंधी निर्देश और सावधानी का पालन करते हुए, मैंने उसे काम पर रख लिया . . .।
इधर कुछ दिन से कमला बहुत टाइम पर आ रही है क्योंकि उसके पति को उसका भाई अपने शहर ले गया है शराब की लत ने लिवर और पित्ता दोनों ख़राब कर दिए हैं। ”ऑपरेशन होगा,” कमला ने कहा और फिर कोई गीत गुनगुनाते हुए काम करने लगी। माथे पर चिंता की कोई रेखा ही नहीं बल्कि सुकून ही दिखा।
बहुत अनोखी है कमला! प्यार करेगी दिल से और ग़म भुलाएगी तो भी दिल से। दो साल पहले की बात . . . तीन दिन कमला काम पर नहीं आई, मैं बहुत ग़ुस्से में थी न कोई फोन न कोई सूचना। पड़ोसी की घरेलू सहायिका को बुलाकर पैसे देकर काम करवाया। चौथे दिन वह लौटी तो मैंने लगभग दनदनाते हुए उसे लौट जाने को कहा। वह लड़खड़ाती हुए कुर्सी पर बैठ गयी उसने रोते हुए बताया कि उसकी पाँच साल की नातिन की छत से गिरने से मौत हो गई है। सुनकर मेरी आँखें छलछला आयीं। दिल मानों मुट्ठी में आ गया . . . एक माँ का दिल किसी अन्य बच्चे का दुःख भी कहाँ सुन पाता है! मैंने उसे गले लगाया पीठ थपथपाई पानी पिलाया। दो दिन में ही वह इस दुख से उबर आई। हाँ मेरे बेटे को पहले से भी ज़्यादा प्यार देने लगी। शायद नातिन के जाने का ज़ख़्म मेरे बेटे से खेलते हुए भरने लगा था। उस दिन के बाद फिर उसने कभी नातिन की बात भी न की।
एक बात और . . . कमला ने क्रिश्चियनिटी में अपना धर्म परिवर्तन करवाया हुआ है। इसलिए रविवार को चर्च ज़रूर जाती है और मेरे लिए छुट्टी का यह दिन आराम का नहीं बल्कि दोहरे काम का बन जाता है। जितना चाहे प्रलोभन दे लो, कमला का रविवार की सुबह को न आना निश्चित है। और तो और जब चाहे छुट्टी कर लेगी; न वह बताएगी न फोन उठाएगी। अगले दिन उसे डाँट भी नहीं सकते। काम छोड़कर चल देती है। बहुत से घर उसने पंद्रह-पंद्रह दिन काम करके अपनी इसी आदत की वजह से छोड़ दिए। उनसे हिसाब तक न करने गई। मैं समझाऊँगी तो कहेगी, “दीदी, मैं टेंसन नहीं लेती। परमेसर रोटी दे ही देता है। आप कितनी अच्छी हैं, भैया कितनी मदद दे देते हैं।” मैं और क्या कहूँ! यूँ भी कमला के हाथ में जादू था घंटे का काम मिनटों में निबटा देती थी, सो मेरा सम्बन्ध यहीं तक।
दिवाली पर हर साल वह पहले ही एक बड़ी सी डिमाँड रख देती है। कभी डिनर सेट और कुकर, कभी रजाई, तो कभी परिवार के लिए कपड़े। मैं भी हाथ नहीं रोकती। मेरे बेटे में तो उसकी जान बसती है। उसके परीक्षा के दिनों में चर्च जाकर उसके लिए प्रार्थना करती है। काम से लौट रही होगी, बेटा आवाज़ देकर कह दे, “आंटी मैक्रोनी बना दो।” उसी वक़्त तैयारी के लिए मुड़ जाएगी . . . हमारे परिवार का एक अहम हिस्सा है कमला। वह भी हमें निराश नहीं करती उसके दिन का एक बड़ा वक़्त तो वह हमारे घर ही होती है।
आजकल कमला ख़ुश रहने लगी है दिवाली आ रही है उसने मुझे उपहारों की लिस्ट थमाकर और ‘बड़े दिन’ के लिए पहले ही आर्टिफ़िशियल ज्वेलरी का सेट लेकर देने का बोल दिया है। मैंने अगले महीने लेकर देने का वादा किया।
अब कमला ख़ुश है क्योंकि उसका पति वापस आ गया था शराब छोड़ दी और काम पर जाने लगा है। बेटा भी किसी दुकान पर सहायक का काम करने लगा है। कमला बहुत ख़ुश है पति भी दिनभर की कमाई लाकर उसके हाथ में रखता है। अब तो कमला घर में एक और कमरा बनवा रही है। शाम को पति काम से लौट कर मज़दूरों के काम का निरीक्षण भी कर लेता है। नए कमरे के लिए क्या सजावट करेगी मुझे बताती रहती है। उसकी आँखों में तब बच्चों जैसी चमक आ जाती है। आज काम करते हुए मुझे बता रही थी। दूसरे गाँव से बेटा बहू आए हैं सब बहुत ख़ुश हैं पोता तो दादू की गोद से उतरता ही नहीं . . .। आज घर जा कर चिकन बनाएगी और पोते की लिए पास्ता . . . तभी उसका छोटा बेटा भागता हुआ आया, “मम्मी जल्दी चलो पापा गिर गए हैं, मुँह से ख़ून आ रहा है . . . वह घबराहट में दौड़ते हुए निकली।”
और पंद्रह मिनट बाद ही रोते हुए फोन किया “दीदी मेरा आदमी नहीं रहा . . . बिस्तर से गिरते ही मुँह से ख़ून आया वहीं दम तोड़ गया। शरीर तो शराब की लत से खोखला हो चुका था, हल्की सी चोट की ताब न सह सका।”
मैं अवाक् खड़ी थी . . .कमला के जीवन के विविध रंग चलचित्र की भाँति आँखों के सामने घूम रहे थे। जीवन की अनिश्चितता का प्रमाण इससे बढ़कर और क्या होगा . . .! सुबह उसके बेटे को बुलाकर मैंने कुछ रुपये दिए कि क्रिया कर्म के लिए ज़रूरत होगी।
चौथे दिन कमला लौट आई है, घर में था ही कौन, जिसके लिए बैठी रहती! मैंने सांत्वना दी, चाय पिलायी और वह चुपचाप काम करने लगी। लेकिन जब मैंने उसके वेतन में थोड़ी वृद्धि और जो पैसे उसे दिए थे उन्हें हिसाब में न काटने का बोला, तो उसकी पनीली आँखों में चमक लौट आई।
दूसरे-तीसरे दिन भी कमला कुछ अनमनी सी ही काम करती रही। पति की कोई बात याद कर मुझसे बतियाती रहती। चौथे दिन मानो शोक समाप्त कर आई थी। आते ही मेरे बेटे से मज़ाक़ करने लगी, खाने में उसकी फ़रमाइश पूछ कर सब्ज़ियाँ काटने लगी। यीशु का कोई भजन भी गुनगुना रही थी। मैं उसके जीवट पर हैरान थी . . . आख़िर क्या है यह कमला . . .। उसके वापस जाने के थोड़ी देर के बाद ही उसके लिए मँगवाए ज्वेलरी सेट का पार्सल आ गया। मैंने पैकेट खोला नहीं . . . उसे अलमारी में रख दिया . . . कितनी ख़ुशी से उसने मुझसे इसकी माँग की थी! लेकिन अब वह क्या ही पहनेगी! सो . . . मैं अर्द्धवार्षिक परीक्षाओं की कॉपियाँ चेक करने लगी।
कमला आजकल ज़्यादा वक़्त मेरे पास रहने लगी है। अब गाली-गलौच करने वाले उसके आदमी के फोन नहीं आते। जब-तब अपनी बेटियों के घर भी चली जाती है। हाँ अब कभी-कभी छुट्टी का भी पहले सूचित कर देती है।
दिसंबर का महीना चढ़ गया सर्द मौसम में हल्की धूप बहुत सुखद लग रही है। कमला के पति को गए भी लगभग एक महीना हो चला है। आज अलमारी से कुछ निकालते हुए एक-एक पार्सल मेरे हाथ में आया। पार्सल अभी पैक ही था। ”अरे, यह तो कमला के लिए था, पर अब वह अपना त्योहार कहाँ ही मनाएगी, क्या ही शृंगार करेगी।” मैंने अनमने ही बॉक्स वापस रख दिया और बेटे को स्कूल होमवर्क करवाने लगी।
डोर बैल बजी . . . कमला थी, खिलखिलाती हुई आई और बोली, “दीदी यह देखो!”
‘अरे क्या हुआ!’ मोबाइल पर आसमानी सूट में एक मॉडल दिखाते हुए बोली, “इस बड़े दिन से पहले गहनों के साथ इस रंग का सलवार सूट भी मँगवा दो या सिलवा दो।”
प्रश्ननिल दृष्टि से मैंने उसे देखा।
“दीदी यह उस दिन का डीरैस कोड है, फ़ादर जी ने कहा है,” कहकर वह रसोई में चली गई और मैं . . . मैं पार्सल को अलमारी से बाहर निकालने के लिए मुड़ी।