शुक्र है, मेरे बड़ों के पास मोबाइल नहीं था

15-08-2025

शुक्र है, मेरे बड़ों के पास मोबाइल नहीं था

डॉ. शैली जग्गी (अंक: 282, अगस्त प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

“शुक्र है, मेरे बड़ों के पास मोबाइल नहीं था“—यह पंक्ति सुनते ही एक क्षण को ठहराव आता है। यह केवल एक वाक्य नहीं, बल्कि एक पूरी पीढ़ी के अनुभव, संघर्ष और सौभाग्य का प्रमाण है। यह झकझोरती भी है, विडंबना भी, और साथ ही एक गंभीर आत्ममंथन की पुकार भी।

आज जब हर हाथ में मोबाइल है और हर नज़र उसकी स्क्रीन पर, तब यह कहना कि हम ख़ुशक़िस्मत थे कि हमारे माता-पिता के पास मोबाइल नहीं था—एक अद्भुत बोध कराता है। उस दौर में, जब डिजिटल उपकरणों का वर्चस्व नहीं था, हमारे बड़ों के पास समय था—हमारे लिए, हमारे बचपन के लिए, हमारे सवालों, शरारतों, संस्कारों और संवेदनाओं के लिए। वे कहानियाँ जो दादी-नानी सुनाती थीं, वे क़िस्से जिनमें राम थे, कृष्ण थे, पंचतंत्र की नीतियाँ थीं—वे सब आज गूगल सर्च में तो हैं, पर स्मृतियों और संस्कारों में कहीं खो चुके हैं। 

पुरानी पीढ़ी के पास समय नहीं होता था, फिर भी वे समय निकालते थे। आज सबके पास समय है, पर वह स्क्रीन में खो गया है।

मोबाइल की लत: एक नयी महामारी

आज का यथार्थ भयावह है। बच्चे, जो कभी खेतों में खेलते थे, अब बंद कमरों में मोबाइल पर खेलते हैं। युवा, जो मित्रता और साहचर्य के माध्यम से जीवन का अनुभव लेते थे, अब ‘फ़ॉलोअर्स’ और ‘लाइक्स’ में आत्ममूल्य खोजते हैं। 

मोबाइल की यह लत एक ‘डिजिटल ड्रग’ बन चुकी है, जिसका नशा शरीर से पहले आत्मा को ग्रसता है। शोध बताते हैं कि मोबाइल की स्क्रीन पर अधिक समय बिताने से बच्चों में नींद की कमी, ध्यान की समस्या, चिड़चिड़ापन, और यहाँ तक कि मनोवैज्ञानिक विकार भी बढ़ रहे हैं। 

सामाजिक रूप से बच्चे एकाकी होते जा रहे हैं—अब उनके पास मित्र नहीं, केवल चैटबॉक्स हैं; संवाद नहीं, केवल टेक्स्ट मैसेज हैं। 

माता-पिता की भूमिका: आदर्श या उदाहरण

कोविड-19 के समय मोबाइल एक अनिवार्यता बना, यह सत्य है। ऑनलाइन पढ़ाई, वर्चुअल मीटिंग्स और डिजिटल संचार हमारी जीवनशैली का हिस्सा बन गए। लेकिन इस सहायक उपकरण को मुख्य संचालक बना देना हमारी भूल रही। 

अभिभावकों ने अनजाने ही मोबाइल को बच्चों का पालना बना दिया। माँ, जो पहले लोरी गाकर सुलाती थी अब बच्चे को वीडियो गाने दिखा कर सुलाती है। 

पिता, जो पहले कहानियाँ सुनाते थे। अब केवल स्क्रीन पर नज़रें गड़ाए बैठे हैं। 

ऐसे में, जब बच्चा मार्गदर्शन चाहता है, संवाद चाहता है—तो उसे केवल “अभी नहीं, बाद में” सुनने को मिलता है। 

क्या हमने कभी सोचा कि यह ‘बाद में’ कभी आता भी है? 

गर्भ से ही डिजिटल संस्कार

पहले गर्भवती महिलाएँ धार्मिक साहित्य, सूक्तियाँ, रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों से जुड़ी रहती थीं। उन्हें सुंदर सोच, पौष्टिक भोजन और सामूहिक स्नेह मिलता था। अब एकल परिवारों में, गर्भवती स्त्री घंटों मोबाइल पर रहती है—अनजाने ही वह गर्भस्थ शिशु को मोबाइल की कम्पन, अशांति और अनियंत्रित जानकारी सौंप रही होती है। फलस्वरूप नवजातों में औटिज़्म और नज़र के चश्मे लगना आम बात हो गई। आज के शिशु जन्म के कुछ ही महीनों में मोबाइल को पहचानने लगते हैं। वे हँसते नहीं, स्क्रीन देखकर मुस्कुराते हैं। वे खेलते नहीं, उँगलियों से स्क्रीन स्वाइप करते हैं। यह ‘डिजिटल बचपन’ हमें किस दिशा में ले जाएगा? 

आगे का रास्ता क्या हो

मोबाइल एक क्रांति है, एक आवश्यकता भी। लेकिन हर आवश्यकता सीमित उपयोग में ही वरदान बनती है। हमें फिर से अपने संवादों को सजीव करना होगा, सुनने और सुनाने की परंपरा को पुनर्जीवित करना होगा, और सबसे ज़रूरी—बच्चों को समय देना होगा। 

मोबाइल को उपकरण बनाएँ, संबंधों को नहीं। 

संस्कार स्क्रीन से नहीं, सान्निध्य से बनते हैं। 

अंत में इन पंक्तियों के साथ वाणी को विराम देती हूँ जहाँ इस पूरे विचार के बाद किसी कवि की ये पंक्तियाँ आत्मा को छू जाती हैं:

“वैसे तो हमें क़ैद में, 
आराम बहुत है। 
ज़ख्मों में मगर टीस, 
सुबहो-शाम बहुत है . . .।”

शेष फिर . . .

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